प्रकाशक -- रत नाभथूराम परत, हिन्दी-अन्थर-त्नाकर कार्यालय, हीराबाग, बम्बई ने० ४.

ठदीखरी बार अगस्त, १६४६

मूल्य डेढ़ रुपया

मुद्रक--

के० पी० शाह ओरियन्ट प्रिंटिंग हाउस, दादी सेठ अग्यारी लेन, नवीताड़ी, बम्वई नं०

पहला अंक

पहला दृश्य

| स्वर्गीय यहुनाथ सुकर्जीके मकानका पिछला साग * खिड़कीका दरवाजा खुला है | सामने एक छोटा-सा रास्ता है | चारों ओर आम और कटहलका जगीचा है। थोड़ी दूरपर तालावके पक्के घाटका कुछ हिस्सा दिखाई देता है सर्वेरेक्ा समय है रमा और उसकी मौसी स्तान करनेके लिए वाहर निकली है ठीक दूसरी तरफसे वेणी घोषाल भी आते हैं रमाकी उम्र वाईस-तेईस- से ज्यादा नहीं हे थोदी ही उम्रमें विधवा हो गई थी, इसलिए उसके हाथमें कुछ चूड़ियों ही हैं और वह वारीक किनारीकी एक धोती पहने हुए है। चैणीकी उम्र भी पतीस-छत्तीसते ज्यादा नहीं हे ]

चेणी--रमा, में तुम्हारे पास ही रहा था।

सौसी--लेकिन वेण, इस खिड़कीके रारते क्यो रहे थे £

रमा--मौसी, तुम मी खूब हो बड़े भइया घरके ही आदसी हैं। भलाए उनके लिए सदर दरवाजा क्या और खिड़की कया क्या कुछ काम है £ तो चलकर अन्दर वैठो न, म॒ अमी जल्दीसे गोता लगाकर आती हूँ

बेणी--बहन, वैठनेफ़ो वक्त नहीं है, वहुतसे काम हैं दतल|ओ, तुमने कुछ निदचय किया कि क्या करोगी :

छू

| समा ( पहल

रमा--निश्चय किस वातका बंद भद्या

रमा--मे जाऊँगी. तारिणी घोषालके घर ' वेशी--हों वहन, यह तो जानता द्वे कि अर चाहे जो चला जाय छेक्रिन तुम किसी हालतम सी उस मकानमें पेर.नहीं रखोगी लेकिन सना है कि लौडा खुद जाकर घर घर कह फिरेया याजीपनदी वातोमें तो वह अपने वापपर ही जाता है अगर वह सचमुच नुम्हारे यहों आया, तो क्या कहोगी रमा--बड़े सइया, में कुछ सी नहीं कहूगी। वाहर दरवान ही उसे जवाब ढे लेगा मौसी+-डखान क्यो जवाब ठेने लगा! क्‍या मे वात करना नहीं जानती £ पाजीको से तो खरी खरी सुनाऊंगी कि फिर कसी इस जनन्‍्ममें सुकर्जीके घर मुँह दिखाए। तारिणी घोषालका लड़का आएगा हमारे सकान- में न्‍्यौता देने ? में कुछ भी नहीं भूलो हूँ वेशणीमाघव ! तारिणी इस लड़केके ही साथ हमारी र॒माका व्याह करना चाहता था। तब तक यतीन्‍्द्रका जनम भी नहीं हुआ था। उसने सोचा था कि इस तरह मुकर्जीकी सारी जायदद मद्ठीमें ञआ जायगी। बेटा वेणी, समझते हो वेणी--हाँ, मौसी, समझता क्यो नहीं, सब कुछ समझता हूँ मौसी--हाँ हॉबिटा, समझोये क्यो नहीं यह तो सीधी-सी वात है। और जब मनचाहा नहीं हुआ, तव ईंसी सेरव आचायेसे जाने क्‍या क्या जप- तप और जादू-मन्तर कराके बेटीके सागमें ऐसी आग लगा दी कि महीने सी नहीं बीतने पाये कि इसके हाथोमें लोहेकी चूड़ियाँ नहीं रहीं और माधेका सिन्दूर पुँछ्ध गया नीच होकर चाहता था “यदु सुकर्जीकी लडकीको अपनी बनाना वेसी ही उस हरामजादेकी मौत भी हुईदं। गया था सदरमें सुकदमा लड़ने, पर लौटकर घर सी नआ सका एकलौता लड़का था. पर उसके हाथकी आग सी नसीब हुईं ऐसे नीचोके मैंहमें आग ! रमा--मौसी, तुम किसीको नीच क्यों बनाती हो £ तारिणी घोषाल

श्याक सभे चाचा ही तो थे वाम्हनको नीच क्‍यों कहती हो ? तुम्हारा सुंह तो जैसे कहीं रुकता हीं नहीं

वैणी---( कुछ लज्जित होकर )/नहीं रमा, मौसीने ठीक ही कहा है।

इ्श्य ] फप्हला अब्छ शव

2.3]

तुम कितने बडे ऋुशीन घरकी लखकी हो ! भला बहन, तुम्हे क्या हम लोग

अपने घर ला सकते हैं ! छोटे चाचाके मुहसे यह बात निकलना ही बेअदबीका काम था और जन्तर-मन्तरकी जो बात है वह-समी सत्य हे छोटे चाचा और सैरवके लिए टुनियामें कोई भी काम ऐसा नही जो वे कर सकते। रमेशके आते ही यह बदमाश उससे मिल गया है और उसका मुरब्बी बन बैठा है।

भीसी--बेणी, यह तो जानी हुईं व्गनत है लौठा दस-बारह बरस तक तो घर-ही नहीं आया उसके मामा आकर उसे काशी या जाने कहाँ ले नये और फिर उन्होंने कमी इस ओर आने ही नहीं दिया वह इतने दिलों सक्र था कहाँ ? और करता क्या था *

वेणी--भछा मौसी, सुझ्के क्य। मालूम छोटे चाचाके साथ तुम लोगों- का जैसा बरताव था, वसा ही मेरा सी था खुनता हूँ कि इतने दिनों तक चह जाने बम्बई या कहाँ था | क्रोई कहता है कि उसने डाक्टरी पास कर ली है, कोई कहता है कि वह वकील हो गया है और कोई कहता है कि यह सच अप्प है। और फिर यह लौंडा भारी शराबी है जिस समय घर आया था, उस समय उसकी दोनो आँखें अइहुलके फ़ूलकी तरह लाल हो रही थी

सौसी--ऐसी वात, है? तब तो फिर उसे घरके सी अन्दर घुसने 'डेना चाहिए

देणी---हरगिज नहीं क्यो रमा, तुम्हें रमेशकी याद तो है ?

रमा--( कुछ लज्जित भावसे सुरकराती हुईं ) बड़े भइया, यह तो अमी ऋलकी ही बात है वे मुझसे कोई चार ही बरस बड़े हैं एक ही

पाठशाल्मे पढे:हैँ, एक साथ खेले हैं, उन लोगोंके घरमें ही तो रहा करती

थी | चाची मुझे; अपनी लड़कीकी तरह चाहती थी।

मौसी---उस चाहनेके मुँहमें आय ! वह चाहना था खाली अपना मतलब गाँयनेके छिए उन लोगने फन्दा ही डाठा था किसी तरह तुझे अँसा लेनेके लिए रमेशकी माँ क्‍या कम चालबाज थी:

चेणी---इसमे सन्ठेह ही क्या है ! छोटी चाची भी...

रमा--देखों मौसी, तुम लोग और चाहे जो कहो; लेकिन सेरी चाची ख्वर्गमें हैं, उनकी निन्‍्दा में किसीके महसे नहीं सुन सकती

- मौंसी-- कहती क्या है री एकदम इतना-- वेशी--हों, यह तो ठीक है, ठीक है। छोटी चाची भले आदमीकी

है] समा [ इृस्सय

लड़की थी। उनकी चर्चा चलने पर अब भी मोकी आखोमे आस भर आहे हैं; पर अब इन बातोको जाने दो तो अब यही वात बिलकुल पकक्‍दी रही बहन * कुछ इधर उधर तो नहीं होगा

र॒मा---( हँसछर ) नहीं बंठ भद्या, वावू जी कहा करते थे कि आम, करज और दुश्मनका कुछ भी बादी नहीं रहने 5ना चाहिए। तारिणी घोषालने जीते जी हम लोगोको कम नहीं सताया --शवूजी तककों वे जेल भेजना चाहते थे बड़े भइया, में कुछ भी नहीं भूली हैँ- और जब तक जीती रहूँगी, भूलेँंगी सी नहीं रमेश उसी दुश्मनके रडके हैं। हम लोग तो नहीं ही जायेंगे, साथ ही जिन लोगोके साथ हमारा किसी तरहका सम्बन्ध है, उन लोगोको भी नही जाने देगे

वेणी-- यही तो चाहिए और यही हैं तुम्हारे लायक वात

रसा- क्यों बड़े सइया, कोई ऐसा उपाय नहीं किया जा सकता कि कोई भी ब्राह्मण उनके घर जाय तव तो ..

वेणी---अरे वहन, में वही तो कर रहा हूँ यदि तम मेरी सहायता करती रहो तो फिर मुझे और कोई चिन्ता नहीं रमेशकों अगर में इस कूआँ- पुर गॉवसे भगा दूँ. तो मेरा नाम वेणी घोपाल नहीं। उसके वाद रह जारऊँगा में और यह साला आचाये छोटे चाचा तो अब हैं नही, देखूँगा किः अब इसे कौन बचाता ?

रसा--( हँसकर ) में समभती हूँ कि यही रमेश घोषाल बचावेगे लेकिन बडे भइया, मे कहे देती हूँ कि इस लोगोके साथ दुश्मनी करनेमें दे भी कोई वात उठा नहीं रखेंगे

वेणी---( इधर उधर ठेखकर और स्वर कुछ अधिक धीमा करके ) रमा, असल वात तो यह है कि रुपये-पैसे और जमीन-जायदादका हाल वह अभी तक कुछ सी नहों समझता अगर बॉसको उखाड़ फेकना चाहती हो, तो यही समय है | यादे पक गया तो सै कहे देता हूँ कि फिर नही हिल सकेगा तुम्हें दिन-रात इस बातका ध्यान रखना पड़ेगा कि यह और कोई नहीं. चारिणी घोषालका ही लड़का है अगर अच्छी नरह जम गया तो फिर . . .

[ रमा चौंक पडती है तुरन्त ही दरवाजेसे रमेश अन्दर आता है।

उसका सिर रूखा है, पैर नंगे हैं, और दुपद्धा सिरमें लिपटा हुआ है। वेणीकी ओर दष्टि पडते ही--]

ड्श्य ] पहला ओअक रमेश--अरे, बडे भवया यहों हैं ! अच्छा तो चलिए आपके विना यह सब करेगा कौन मे तो गाँव-भरमे आपको देँद़ता फिर रहा हूँ। रानी कहों हैं? देखा कि घरमें कोई नही है | मजदरनीने कहा कि इसी तर गई हैं. . [ रमा सिर क्ुकाकर खड़ी थी। सहसा उसे देखकर--] रमेश---अरे ये तो यही हैँ | अरे तम तो इतनी बढ़ी हो गई ! अच्छी हो * मालूस होता है शायद मुझे पहचान नही रही हो में तुम्हारा रमेश भदया हैं रमा--( सिर उठाकर उसकी तरफ देखती तो नहीं, पर क्रोमल स्वरसे पूछती है )-- आप अच्छी तरह हैं रमेश--हों अच्छी तरह हैँ। लेकिन रानी, मुझे आप! क्यो कहती हो! ( वेणीकी ओर देखकर ) वडे भद्या, रमाकी एक बात मैं कभी भूल्ँगा जिस समय मेरी माँ मरी,उस समय ये बहुत छोटी थी। लेकिन उस समय भी इन्होंने मेरे ऑस पोछते हुए कहा कि रमेश भइया, तुम रोओ मत मेरी मॉ तो हे ही, हम दोनों उसीको वॉट लेंगे /' शायद तुम्हे यह बात याद है क्यो, याद नही है £ मेरी माँ तो याद है * [ रमा कोई उत्तर नही देती मारे छज्जाके उसका सिर और भी नीचे हो जाता है ।] रमेश---लेकिन रानी, अब तो समय ही नहीं है ।जो कुछ करना हो, कर घर दो जिसे विछकुल निराश्रय कहते हैँ, वही होकर फिर तम लोगोके द्रवाजपर आ' खड़ा हुआ हूँ। अगर तुम लोग नही चलोगी, तो शायद कुछ भी इन्तजाम हो सकेगा। मौसी--( रमेशके पास पहुँचकर और उसके मुँहकी ओर देखकर ) क्यों भशया, तुम तारिणी घोषालके लड़के हो £ [ रमेश चकित होकर चुपचाप देखने लगता है ] समौसी-- तुमने पहले तो मुझे कमी देखा नहीं था, इसलिए बेटा, तुम मुझे पहचान नहीं सकोगे। में रसाकी सगी मौसी हूँ लेकिन मेने तुम्हारे जैसा बेहया आदमी आज तक नही ठेखा | जैसा वाप था वैसा ही लब्का भी हुआहे कोई बात नहीं, कोई चीत नहीं, इस तरह एक ग्रहस्थके घरसे खिड़कीके रास्ते घुसकर उत्पात मचानेमें तुम्हें शरम नहीं आई

रमा--मौसी, तम यह क्‍या वक रही हो ! नहाने जाओ ! ( वेणीका चुपचाप प्रस्थान )

य्सा [ पहला भौसी--नहों रमा, वकती नहीं हूँ। जो काम करना ही है, उसमें मुझे तुम लोगोकी तरह ई३-ढेखी म्रौवत नहीं है सला वेणी झ्रो इस तरह भाग जानेकी क्या जहरत थी ? इतना तो कइ कर जाना था कि भाई, हम लोग तुम्हारे नौकर गुमास्ते नहीं हैं ओर तुम्दारी जमीदारीकी परजा ही हैं जो तुम्हारे घर पानी सरने और साटा सानने जायेंगे। तारिणी मर गया तो लोगोंका ऋलेजा ठंडा हुआ यह कऋहनेका सार हमारे जेसी दो ओरतोंपर छोड़कर आप ही कह जाता, तो मर्दका काम होता

लक

[ रपेश चुपचाप पत्थरकी मूरतकी तरह खडा रहता है ] सौसी--जो हो, में ब्रह्माणके लड़केका नीकर-चाकरोंसे अपमान नहीं कराना

चाहती जरा होशमें आकर काम करो | तुम कोई छोटे बचे नहीं हो जो दूसरेके घरमें घुसकर लाढ़-प्यारकी बातें करते फिरो तुम्हारे घर मेरी रमा कसी अपने पर धोने सी जा सकेगी मेने तुमसे साफ साफ कह दिया।

रसेश--रमा, माँ तुससे रानी कहा करती थी लड़कपनकी उनकी वही वात सुझ्के याद थी। में नहीं जानता था कि तुम मेरे घर जा सी नहीं सकोगी। रा, अनजानमें मुझसे जो गलती हो गई, उसके लिए सुमे क्षमा करो ॥:

रिसेश चला जाता है। वेणी फिर पहुँचता है इस समय उसके चेहेरेसे प्रसन्नता प्रकट हो रही है ]

वेणी---बाह मौसी, तुमने खूब सुनाई ! इस तरह कहना हम लोगोंके बूतेकी वात थी। रमा, यह काम क्या किसी नौकर-चाकरसे हो सकता था। मैने आइमें खड़े खड़े देखा कि लौंडा आपाइके वादलोंकी तरह काला सुँह करके चला गया यह बहुत ठीक हुआ

सौसी--हॉ ठीक तो हुआ लेकिन यह सब कहनेका भार औरत्ोंपर छोड़कर और यहाँसे खिसक जाकर खुद ही कहते तो और सी अच्छा होता और अगर नहीं कह सकते थे, तो भैया, कमसे &व जासने खड़े होऋर सुन ही लेते, कि मैंने क्या कहा 2 | रमा-- मौसी, तुम अफसोस मत करो ।ये सुने पर सैने सब सुर लिया है। कोई कितना सी क्यों कहता लेकिन तुम्हारे सित्र और कोई अपनी जीमसे इतना जहर उगल सकता

मौंसी--तूने यह क्या कहा

ड्श्य] पहला अंक र्मा--कुछ नहीं कहती हूँ कि कया आज रसोई-पानीका कुछ बन्‍्दो: चस्त नहीं होगा ? जाओ न, डुबकी लगा आओ | (समा जल्दीसे तालावकी तरफ चल देती है।) वेणी--- क्यो मौसी, आखिर बात क्‍या है? मौसी--मल्ा बेटा, में क्‍या जानें इस राज-रानीका मिजाज समझना सेरी जैसी मजदूरनियों और लौंडियोंका काम है ( अस्थान ) [ गोविन्द गांगुलीका प्रवेश ] गोविन्द--खर्‌, मिल तो गये ! में सबेरेसे सारे गॉवमें ढूँढ़ फिरा कि आखिर वेणी बाबू गये कहाँ ! पूछता हूँ, कुछ हाल-चाल सुना बेटाजी कल घर आते ही दौड़े गये थे नन्दीके यहाँ अगर दो-चार दिनमें ही वह वरबाद ही जाय, नो तुम लोग मेरा नाम बदल ढेना | अगर उसके शाही श्राद्धकी 'केहरिस्त देखो ता अवाकू रह जाओगे में जानता हूँ कि तारिणी घोषाल एक पाई भी मरते समय नहीं छोड़ गया था। फिर इतना ठाठ किस बिरतेपर ? अगर हाथमें हो, तो करो हो तो मंत करो अपनी जायदद रेहन रखकर किसीने कमी ऐसे ठाठसे वापका श्राद्ध किया हो, ऐसा तो भइया, मेने कभी नहीं सुना वेणीमाथव. गबू, भे॑ तुमते, विलकुल ठीक कहता हूँ कि इस लड़के- ने नन्‍्दीकी कोठीसे कमसे कम पाँच हजार रुपये उधार लिये हैं चेणी---अरे थह क्या कह रहे हो ! तव तो गोविन्द चाचा, तुमने खूब 'गता लगाया है ! गोविन्द--( कुछ दैँसकर ) भइया जरा धीरज घरो, सुमके; एक बार अच्छी तरह तो घुस जीने दो। फिर देखना कि में नाडीके अन्दर तककी -खबर ले आता हैँ कि नहीं। उसी समय ठुम गोविन्द गांगुलीको पहचानोगे इस बीच तुम्हें बहुत-सी बातें सुन ॒पंड्ेगी---लोग जाने क्या क्‍या लगा ुफा जायेंगे लेकिन तुम चाचाकों तो पहचानते हो 2 मन ही मन समझ लो.। अभी भे और कुछ प्रकाशित नहीं करता चेणी-में रमाके पास गया था योवि०--हाँ, मुझे मालूम है। उसने क्या कहा वेणी--वेे लोग तो नहीं ही जायेगी, लेकिन उनके सम्बन्धके जो और ब्लोग हें, उनमेंसे भी कोई जायगा

र्मा दिसरए गोवि०--बस बस अब ओर कुछ नहीं ठखना है। बेणी--लेकित तुम लोग तो . . - गोवि०---अरे भइया, तुम घबराते क्‍यों हो ' पहल मुझे शुसने तो दो पहले सब तैयारियाँ तो खूब अच्छी तरह करा लें तभी तों--फिर श्राद्धमें क्या क्या होता है, सो तुम वाहर खड़े खड़ ठखना रेणी--लेकिन में सतता हैँ कि-- योवि०--अरे भद्रया ऐसी तो चहुत-्सी बाते

आकर जहुत तरहकी बाते लगावेग लक्किन योविन्द बस |

ग। बहुतसे' साले” चाको तो पहचानते हो

( ठोनोका प्रस्थान )

ब्खराःं इश्यं र्मिशके सकानका बाहरी साथ | चेडी-संडपवाले वरामढम एक ओर भरव आचाय॑ वेठ हुए थान फाड़ फाड़ कर ओर उनकी तह लगाकर एकपर एक रख रहे है। चडी संडपके अंदर बैठे हुए गोविन्द ग। गुली तम्बाकू पी रहे हैं और तिरड्ा नजरसे कपड़ोकी संख्या गिनते जाते हैं। चारो ओर श्राद्धक्ा आयोज॑न हो रहा है और जगह जगह उसकी सामग्री बिखरी पडी है। बहुतसे लो तरह तरहके कामोमें लगे हुए है समय तीसरा ग्रहर ] | रमेशका प्रवेश। रमेश--( गोविन्द गागुलीसे विनयपूरवेंक ) अच्छा आप गये! गोविन्द---भइ्या, आवेगे क्यो वही ! यह तो अपना ही काम ठहरा रमेश ! [ नेपथ्यमें क्रिसीके खॉसनेका शब्द | चार पॉच लड़को और लड़कियों को लिये हुए खाँसते खाँसते घर्मदास चटर्जीका प्रवेश उनके कंथ्ेपर मैला" दुपच्च पड़ा है नाकके ऊपर एक जोड़ी बैंगनकी तरह बड़ा-सा चश्मा लगा है

जो पीछेकी तरफ डोरीसे वैंधा है। सिरके बाल बिलकुल सफेद हैं मोछोके

सफेद बाल तम्बाकूके धुएँसे ताबेके रंगके हो गये है आगे बढ़कर थोड़ी देर. तक रमेशके मुँंहकी ओर डेखते हैं और तव बिना कुछ कहे सने रोने लगते हैं ।* रमेश पहचानता ही नहीं है कि ये कौन हैं लेकिन जो हो

वह घबराकर उनका हाथ पकड लेता है उनके हाथ पकढ़ते ही--]

द्श्य ] पहला अंक धरमंदात्--( रोकर ) नहीं बेटा रमेश, मुझे स्वप्नमें मी इस बातका ध्यान नहीं था कि तारिणी इस तरह हम लोगोको घोखा देकर निकल जायगा लेकिन मेरा सी ऐसे चटर्जी वंशर्में जन्म नहीं हुआ है जो किसीके डरसे अपने मुंहसे कोई भूठी वात निकालें तुम जानते हो कि जब मे यहाँ रहा था तब रास्तेमें तुम्हारे सगे तायाके लड़के और तुम्हारे भाई वेशी घोयालके मुँहपर में क्या कह आया : मेंने कहा कि रमेश जैसे थ्राद्धका इन्तजाम कर रहा है वसा श्राद्ध करना तो बड़ी बात है, इस तरफ उस तरहका श्राद्ध आज तक किसीन अँखसे भी ढेखा होगा भइया, मेरे वारेमें वहुत-से साल आकर तुमसे जाने कितने तरहकी बाते कहेंगे लेक्रिन तुम यह बात निश्चय समझ रखना कि यह घमेदास केवल घर्मका ही दास है, और किसी-

का नहीं [ इतना कहकर वे गोविन्दके हाथसे हुक्‍का लेकर एक कश

खीचते हैं और तरन्त ही जोरसे खॉसने लगते हैं ।] रमेश--नहीं नहीं, भला आप कैसी बाते करते है---

[ उत्तरमं घर्मदास वड़बडाते हुए जाने क्या क्या कह जाते हैं लेकिन खेसीके मारे उसका एक अक्षर भी किसीकी समझे नहीं आता सबसे पहले गोविन्द गागुली ही इस घरमें आये थे, इसलिए नये जमीदारकी अच्छी अच्छी बाते सममाने-वुकानेका सुयोग सबसे पहले उनन्‍्हींको प्राप्त होना चाहिए था लेकिन जब उन्होंने देखा कि मेरा यह सुयोग नष्ट होना चाहता है, तब वे जल्दीसे उठकर खड़े हो जाते हैं |

गोविन्द--कल सबेरे, समझे घर्मदास भडया, जब में यहाँ आनेके लिए घरस चला, तब घरसे निकल चुकने पर भी यहाँ सेंका ।वेणी लगा आपाज देने : गोविन्द चाचा, तम्बाकू तो पी जाओ पहले तो मेने सोचा कि तम्बाकू पीकर क्या होगा | लेकिन फिर खयाल आया कि जरा यह भी तो समझ हैँ कि वेणीके मनमें क्या है ।--भश्या रमेश, तुम जानते हो कि उसने क्या कहा ? उसने कहा कि चाचा, में देखता हूँ कि तुम लोग रमेशके बहुत बड़े जुभमचिन्तक बन गये हो लेकिन यह तो वतलाओ कि उनके यहाँ” लोग जायें-बार्येगे भी या यो ही? में भी भला उसे क्यो छोड़ने छूगा ! अरे तुम बड़े आदमी हो, तो हुआ करो हमारा रमेश भी तो किसीसे कम नहीं है। तुम्हारे घरसे तो किसीको स॒ट्ठी भर चिड़॒वा भी मिलनेकी आशा नहीं है मैंने कहा--वेणी वाबू, आखिर यही तो रास्ता है. जरा खड़े खड़े चलकर:

१० श्सा [ दूसरा 'डेख लो कि क्गालोओो क्रिस तरह शोजन डाटा जा रहा दे स्नेश अभी

ऋलका लड़का है तो क्या हुआ, लेकिन ऋलेजा इसको कहते हूँ /--लेकिन

सच्या घदास, में यह फिर सी कहता है दि आखिर हम लोग कर ही क्या

सकते दे ' जिनका काम है, चस वहीं उस पारसे यह सब करा रहे हू।

तारिणी भद्या एक शापत्रए्ट वेस्‍्पाल थे

[ थर्मद!सकी खोंसी किसी तरह रुकती ही थी। वे देखते कि मरे

सामने ही यह गोविन्द ऐसी अच्छी-अच्छी बातें इस अपरिपक्व नवयुवक जसीदारसे कट रहा छह इ्सा त्त प्‌ ओर भी अच्छी तरह कहनेके धयत्नमें न्ने

ओर सी तडफड़ाने लगे |

गोविन्द --लेकिन सइया, तुम तो मेरे लिए छोई पराए नहीं हो, विलकुल अपने ही हो | तुम्हारी माँ थीं नेरी खास फुफेरी बहनकी सगी भावनजी राधानगरके बनर्जीके परिवारकी यह सब तारिणी भइझया ही जानते थे। इसलिए जब कोई काम-घन्वरा होता, छोई मामला-सुछठमा करना होता, कोई गवाही-साखी ढेनी होती तो बस बुलाओं गोविन्द ! धरम०--अरे गोविन्द, क्‍यों व्यथ वक्रवाद ऋर रहे हो ' ख--ख---ख -- ख--में कोई आजका नहीं हूँ मे क्या नहीं जानता 2 उस साल उन्होंने गवाही देनेके लिए चुलाया तो कहा, सेरे पास जूते नहीं हैं नंगे पेर केसे जाऊँ (--खक खक्--खक तारिणीने उसी समय ढाई रुपये खर्चे ऋरके नया जूता दिलवा दिया और तुम वही जूता पहनकर वेणीकी तरफसे गवाही ढे आये ' खक्‌ू-- खक--खक खूकू---- गोवि०--( लाल लाल आँखे करके ) से गवाही धम०--नहीं दे आये थे ? गोवि०---चल नऋछूठा कहींका ! धस०--कूूठा होगा तेरा बाप ! गोवि०--( हृटा हुआ छाता लेकर उछल पडता है ) अबे साले धसमं०--(त्रॉंसकी लाठी तानकर ) इस सालेका में---खक्‌-खकऋ खक-खक्‌-- रिश्तेम बडा भाई होता हूँ कि नहीं, इसीलिए इस सालेकी जरा अकिल तो

2 ( फिर खोँसता है। ) गोदि

आया था

ह2०५। > हे हुँ यह साला मेरा बढ़ा साई है '

द्श्य ] पहला अंक श्र

(चारों ओरसे लोग दोडे आये। छोटे छोटे लड़के और लड़कियों चकित होकर देखने लगी। रमेश' जल्दीसे आकर उन दोनोके वीचमे खड़ा हो जाता है।) रमेश--हैं हैं, यह क्या ' आप दोनो ही बढ़े है, व्राह्मण हैं, भला यह केसा झगड़ा है

भरव--( पास आकर रमेशते ) कोई चार सो घोतियों तो हो गईं। क्या कुछ ओर चाहिए हैं ?

[ रमेश कोई उत्तर नहीं देता ]

भरव--छी गाग्रुलीजी, वावूजी तो छुम लोगोकी बाते सुनकर विलकुल अवाक हो गये हैं। बावूजी, आप कुछ खयाल मत कीजिएगा। ऐसा तो हुआ ही करता है जिस घरमें कोई बड़ी काम-काज होता है, उसमें मार-पीट खून-खच्चर तककी नौबत जाती है और फिर सब ठीक हो नाता है; लीजिए चटर्जी, पहले जरा यह तो बतलाइए कि कण अभी और भी धोतियों फाइनी होगी .

गोवि०---अरे हॉ, यह तो होता ही रहता है, बहुत होता है। नहीं तो इसे हत्‌ कम और कहा किस लिए गया है ' उस साल तुम्हे याद है भेरव यदु मुकर्जीकी लड़की रमाके तिलकके दिन सिफे एक सीवेके वारेमें राघव भद्ठा- चाय और हारान चटर्जीमे सिर-फुडीअल तक हो गई थी लेकिन भेरव भइया

कहता हैँ. कि भइया रमेशका यह काम ठीक नहीं हो रह्दा है छोटी जातके लोगोको इस तरह धोतियों और कपडे ढेना और राखसे घी डालना दोनो बराबर हैं इसके बजाय अगर व्राह्मययोंको एक-एक जोड़ा और लड़कोंक्रो एक एक थोती दे दी जाती तो नाम हो जाता | में तो कहता हूँ भइया, वस तुस यही तरकीव करो क्यों धर्मदास भइया, तुम्हारी क्या राय है £

धर्म--( रमेशसे ) भइया, गोविन्दने कोई बुरी तरकीव नही बतलाई। इन लोगोंको देना व्यर्थ है नही तो शास्त्रोंमें इन लोगोंको नीच और किस- लिए कहा गया है क्यो भइया रमेश, समझ गये

रमेश--हाँ हाँ, समझता क्‍यों नहीं हूँ

सेरव---तो फिर क्या इतने ही कपड़ोसे काम हो जायगा :

रमेश--मैं तो समझता हैँ कि नही होगा | असी यह नहीं कहा जा सकता कि कितने कंगाल आवेंगे। इस लिए अच्छा तो यही है कि आप और भी दो सी घोतियोका इंतजाम कर रक्‍्खे।

शा [ दस

थान फाडोसन | चला, से भी चलता टू [ इतना कहकर गोविन्द घोतियोके ढेरके पास पहुच जाते हैं और देखकर धोतियों तरतीवसे रखने लगते हैँ। इसी वीचमें घमेटास अवसर डे खकर_ स्मेशकों -एक ओर खींच ले जाते हैं और धीरे धीरे उसके कानमे कुछ रद्दत्ते हैं। उधरसे गोविन्द भी सिर उठाकर क्नखियोसे इन लोगो की तरफ देखने हैँ ] घर ०--भदया, यह ठेश वढा खराब हैं| सेडास-बंटार क्रिसीकों सेपि- कर उसका विश्वास कर वेठना | तेल, नमक, थी, आटा, सब आधा-तिहाई खिसका देंगे ! अभी जाकर तुम्हारी बुआक्ो भेजे देता हू तुम्हारा एक कण भी नष्ट होने पावेगा रस्ेश--जो आज्ञा [ दाढी-मोछ सुड़ाये डुबले-पतले ब्रृद्ध दीनानाथ भशद्ञाचायक्रा प्रवेश उनके साथ दो-तीन लड़के-लड़कियों हैँ। लडकी डन सबसे बडी है डोस्थिकी ऐसी थोती पहने है जो जगह जगहसे फटी है ] दीनानाथ--अरे सइयाजी कहो हैं £ गोविन्द--( खडे होकर ) आओ दीनू सब्या, वैठो हम लोगोके बड़े भाग्य है जो आज यहां आपके चरणोकी धूल पड़ी है बेचारा लड़का अकेला मरा जा रहा है, सो तुम लोग तो ...

[ धरंदास आंखे तरेरकर उसकी तरफ ठेखते हैं ] गोवि०--सो तुम लोग तो कोई इधर आओबपगे नहीं भइया ! दीना०--भश्या, मैं तो यहाँ था ही नहीं। तुम्हारी बच्चो लानेके लिए उसके

बापके घर गया था। भशयाजी कहांहें : सुना है, वहुत ग्ड़ी त्यारी हो रही है। रास्तेम उस गेंविकी हाटमे सुनता रहा हूँ कि खिलाने-पिलानेके वाद बच्चे- “बूढे सबके हाथम सोलह-सोलह पूरियों ओर आठ आठ सन्देश दिये जायेंगे गोवि०--( गला धीमा करके ) इसके सिवा शायद सबको एक एक धोती भी दी जायगी दीनू भश्या, यही हमारे रमेश हैं तुम चार आदसमियोंके और बाप-संकि आशीर्वादसे जैसे तैसे में सब इन्तजाम कर ही रहा हैँ, लेकिन वेणी तो एक दमसे हाथ धोकर पीछे पड़ गया उसने दो बार आदमी भेजा साथ मेरा रक्तका सम्बन्ध है

अरे मेरे ही पास खर, मेरी वात तो छोड़ दो, क्योकि रमेशके लेकिन ये दीनू भश्या तो रास्तेसे ही खबर

ब्श्य ] पफ्दला अंक १३

सुनकर दौड़े हुए पहुँचे हैं। अन्रे पष्टीचरण, तम्गक लेशान।॥ भद्या रमेश, जरा इधर आओ जरा तुमसे एक बात कह लें

[ नौकर आकर दीनूके हाथमे हक्क़ा ढे जाता हैं) ब्रोविन्द रमेशकोः

खीचकर दूसरीं तरफ ले जाते हैं और घीरेसे कहते हैं। ] गोवि०--शायद अदर घर्मदासकी स्त्री रही है खबरदार भइया, स्वृब होशियार रहना वह धूत्त ब्राह्मण चाहे कितना ही क्‍यों फुसलाबे, लेकिन संडार वंडार कभी उसकी ओऔरतके हाथमें देना वह हरामजांदी आधा तिहाई माल खिसका देगी मे तो कदह्दता हूँ कि भइया, आखिर तुम्हें चिन्ता किस बातकी है £ छुद तुम्हारी मामी मौजूद है में अभी जाते ही उस- मेज देता हूँ वह जिस तरह अपना घर सममकर चीजोंकी देखभाल करेगी, उस तरह क्या और कोई कर सकेगा या कसी कर सकता है ? | दो बच्चे आकर दीनूके कन्वेपर मल जति हैं ] बच्चे--बाबा, सन्देश खायगे। दीनू---( एक चार रमेशकी ओर और एक बार गोविन्दफी ओर देखकर) सब्ेश कहाँसे लाऊँ रे, संदेश [ दीनूकी लड़की उँगलीसे भीतरकी ओर इशारा करती है ] दीनूकी सड़की--वाबा वह डेखो, बह जो हैं ... [ और सब वच्चे सी धर्मदासको घेर लेते हैं ॥]

सब बच्चे--हमें भी--

स्मेश--[ आगे बढ़कर ) अच्छा अच्छा आचारयजी, सब लड़के तीसरे पहरके घरसे निकले हुए हैं कोई घरसे खाकर तो आया ही नहों है ( अन्दर खड़े हुए हलवाईसे ) अरे क्या नाम है तुम्हारा जाओ, संदेशका एक 'थाल इचघर ले आओ आचायेजी, ठेखिए देर होने पावे।

[ भैरव आचाय अदर चले जाते हैं और थोड़ी ही देर बाद हलवाई सन्ठेशका थाल ले आता है। उसके आते ही सव लड़के उस थालपर टूट पड़ते है और इतना व्यस्त कर डालते हैं कि किपीको संदेश वॉटनेका अवसर ही नहीं देते लड़कोंकी खाते देखकर दीनानाथकी शुप्क दृष्टि थी सजल और तीत्र हो जाती है।]

दीनू---अरे खेंदी, संदेश ख| तो खूब रही है लिकिव जरा बतला तो सही कि कैसे बने हैं १”

ब्ब्मै

य्मा [ दूसरा

5 कद लि लगती -न्‍+ हर खेदी--बहुत बढ़िया बने हैं बाबा। ( स्सने लूबती £ ) कह कः

दीनू--( कुछ दँसकर और मिर दिलाकर ) अरे तुम नोगोंकी 088 क्या कहता है! बस मीठी हुई कि चीज़ बढ़िया हों नार्त ह।हांजी हलवाई, ठुमने यह कब.ही कय

घूप है. तुम्हे नहीं मालूम होती ! हलवाई--जी हों. है क्यो नहीं अन्ती बहुत दिन बडी अभि सम्ध्या पूजाका --- :... दीनू-अच्छा एक संठश जरा गोविन्द भरयाओं तो दो, जरा चरकृर देखें कि तुम लोग कलकमेके केते कारीयर हो-- [ हलवाई गोविन्द और दीन दोनोकों सन्देश देने लगठा हैं दीनू--अरे नहीं नहीं, सुके क्यो रहे हो अच्छा आधा हई आधेसे ज्यादा नहीं ! ( हुका रखकर ) अरे पट्ठटीचरण , जरा जल हो ला सइया हाथ घो लूँ रमेश---( अदरकी ओर देखकर ) पष्ठी, जरा अदरसे चार-पोच तश्त रियो तो ले आ। गोवि०--सन्देश देखनेसे ही मालूम होठे हैं कि अ् हलवाई, सालूम होता है कि पाक कुछ नरम ही रखा है ? हलवाई--जी हों, इस घानका पाक कुछ नरम ही रखा है। योवि ०- हँसकर ] अरे हम लोग जानते है न। आँखसे ठेखते ही बतला सकते हैं कि कौन-सी चीज केसी बनी है हलवाई---जी, आप लोग नहीं समझेगे तो और कीन सममेगा ! | षष्ठीचरण और उसके साथ एक दूसरा नौकर तरतरियों और पादीके: गिलास आदि लाकर रखता है हलवाई सन्देशका थाल ले शआआता है और आ्राह्मणोकी तश्तरियोमे परोसने लगता है। सब चुप है, किसीके मेंहसे कोई बात नहीं निकलती लड़के-लड़क्यों, धमदास, दीनू, गोविन्द सब निगलद्ने लगते हैं देखते ठेखते सारा थाल साफ हो जाता है |] दीनू---हॉ, बेशक कलकत्तेका कारीगर है क्यो धर्मदास भइया, क्या चहते हो 0 32220 77070 ; दीनूसे उनका मत-मेद नही है ॥]

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ह्य्य | पहला अंक १७

गोविन्द--( साँस लेकर ) हॉ, यह जरूर उस्तादोंका हाथ है !

हलवाई--महाराज, आप लोगोंने जब कष्ट ही किया है तब जरा मोती- चुरके लडडुओकी भी इसी तरह परख कर दीजिए

दीनू--मोतीचूर ! कहाँ हैं, ले आओ भला।

हलवाई--लीजिए, अभी लाता हूँ

[ पलक मारते ही हलवाई मोतीचूरके छड्डुओका एक थाल ले आता है और व्ाह्मणोकी तश्तरियोमें परोस देता है मोतीचूरके लड्डुओके खतम होनेमं भी देर नही लगती ]

दीनू--( अपनी लड़कीकी ओर हाथ बढ़ाकर ) अरे खेंदी, ले बेटी ये दो लडड़ तो ले ले

खेदी--नही बाबूजी, अब मुझसे नहीं खाये जायेंगे

दीनू--अरे खा जायगी जरा एक घूँट पानी पीकर गला तर कर ले, मुँह बंध गया होगा मिठाईके मारे! खाया जाय तो ऑचलमें बॉध ले ! कल सबेरे उठकर खा लीजियो

[ जबरदस्ती लड़कीके हाथमें लड्डू दे देता है। ]

दीन--( हलवाईसे ) हो भइया, इसको कहते हैं खिलाना ! बिलकुछ अमरूत हैं खूब बढ़िया बने हैं। (रमेशसे) क्यो भइयाजी, दो तरहकी मिठा- इयॉ बनवाई

हलवाई---जी नहीं, रस-गुल्ला, खीरमोहन

दीन--हैं ! खीरमांहन सी ? अरे कहाँ, वह तो तुमने निकाला ही नहीं। ( विस्मित होकर और रमेशकी तरफ देखकर ) हाँ एक वार खाया था राघा- नगरके बोसके यहाँ आज भी सानों जवानपर लगा हुआ है। भइया, में कहूँगा तो तुम विद्वाप् नहीं करोगे, लेविन खीरमोहन मुके बहुत अच्छा

लगता है रमेश--( हँंसकर ) जी नहीं, भला इसमें अविश्वास करनेकी झौन सी बात है अरे पष्ठी, ठेख, अद्र शायद आचाये महाराज है, जाकर उनसे कह दे कि थोड़ा खीरमोहन लेते आवे [ षष्टीचरणका प्रस्थान ] गोवि०-- कुछ उद्दिग्न स्वस्से ) हैं ? क्या सिठाइयों सब यो ही बाहर पड़ी हैं ? नहीं, नहीं, यह बात तो ठीक नहीं है

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श्सा | दूसर। धरम०--वाबी, चात्री ! मंदारकी चाबी फिसके पास दे गोवि०--अरे कहीं उस भेरव आचायके द्वा्थर्म तो नर है [ पष्ठीचरणरा प्रवेश | पष्ठी ०--बावूजी, अब इस वक्त भंडार नहीं छुलेगा खीरमोहन नहीं मिल सकेगा रमेश--अरे जाकर कह दे कि हमने मोगा दे गोवि०--देखी घरमंदास, इस आचायेकी अक्किल | मंसि ज्यादा दरद सौसीकी हो रहा है ! इसीलिए तो मे कहता हैँ कि . . . पप्ठी ०--इसमें आचायेका क्‍या दोप दे | उस घरसे माजीने आकर संडार बंद कर दिया है यह उन्हीका हुक्म है धममदास और गोविन्द--क्ीन आई हैं, वेणी वाबूकी माँ? उस घरकी सालिकिन * हि रमेश --क्या ताईजी आई हैँ ; षप्ठी ०--जी हॉ, उन्होंने आते ही छोटे बडे दोनों मेडारोंका ताला बंद कर दिया है। चाबी उनन्‍्हीके ऑचलमें है गोवि०--देखा धर्मदास भरया, क्या हो रहा है ? मे पूछता हूँ मतलब समम रहे हो £ दीनू--अरे भाई, इसका मतलब समभना कौन वहुत मुश्किल है। ताला वंद करके चावी ले गई हैँ, इसका सतलव यही है कि भरडार और किसीके हाथमें पढ़ने पावे। वे सभी कुछ तो जानती हैं गोवि०--तुम जब कुछ सममते बूकते नहीं, तब बोला क्यों करते हो £ नुम इन सब बातोको क्या जानो, जो जल्दीते माने-मतलब् निकालने बैठ जाते हो £ दीत्‌--अरे अरे, आखिर इसमें समझने वूकनेकी है ही कौन-सी वात: सुन तो रहे हो कि मालिकिनने खुद आकर ताला वंद कर दिया है। इससमें ओर कौन क्‍या कह सकता है £ गोवि०--भद्टाचाय, अब घर जाओ न। जिस कामके “लिए घर-भर मिलकर दौड़े आये थे, वह तो हो गया। सब लोगोंने मिलकर खाया भी और बॉवा भी हम लोगोंको बहुतसे काम हैं

रमेश०--गांगुलीजी, आपको हो क्या गया है ? चाहि [, है ! आप खामख्वाह चा जिसका अपमान क्यो करते है है चाह

| च्श्य ] पहला अड्ड १७ डॉट खाकर गोविन्द कुछ लज्जित हो जाते हैं फिर सूखी हँसी हँसकर ] ... गोवि०-अरे भशया, अपमान भैंने किसका किया * अच्छा, जरा उन्हींसे पूछ लो कि में जो कुछ कह रहा हूँ, वह ठीक है- या नहीं अगर कह डाल डाल घूम तो में पात-पात चलनेवाला हूँ। ढेखा धर्मदास, दस दीनू आह्यणका हौसला अच्छा.... ५् _स्मेश-- अच्छा क्या दीनू--( रमेशसे ) नहीं भश्या, गोविन्द ठीक ही कह रहे हैं यह तो सभी जानते हैं कि मे बहुत गरीब हूँ। मेरे पास इन लोगोकी तरह जमीन- जायदाद और खेती-बारी तो कुछ है नहीं। इधर उधरसे मॉग जॉचकर किसी तरह दिन बिताता दूँ। भगवानने इतनी शक्ति तो मुझे दी ही नहीं कि मं छड़के-बालोंकी अच्छी अच्छी चीजें खिला सकेँ। इसी लिए जब बड़े आदमियोंके घर कोई काम-काज होता है, तब वहीं खा पीकर ये सन्तुष्ट हो ते हैं भइया, तुम अपने मनमे कुछ खयाल मत करना जब तारिणी भइया जीते थे, तब हम लोगोंको बड़े चावसे खिलाते-पिलाते थे [सब लोगोके दे खते देखते दीनूकी आँखोसे दो बूँद ऑसू निकलकर जमीन- खर गिर पढ़ते हैं दीनू उन्हें अपने मैले और फटे दुपट्नेसे पोछ्ठ लेता है ] गोवि०--वाह क्या कहना है ! तारिणी भइया खाली तम्हींको बड़े व्वाबसे खिलाते-पिलाते थे ! धर्मदास भश्या, सुनते हो इनकी बाते दौनू--अरे गोविन्द, मै क्‍या कह रहा हूँ? मेरे कहनेका मतलब तो यह है कि मेरे जैसे गरीब और दुखी लोग कभी तारिणी भशयाके यहँसे खाली हाथ नहीं लौटते थे '... रमेश--भद्गाचायेजी, दो दिन आप मुझपर झुता रखिएगा और ख्रगर खेदीकी मेंके पेरोकी धूल इस मकानओ त्राप्त हो तो में अपना चह्म भाग्य समभूँगा है दीनू--भश्या रमेश, में बहुत ही गरीब दूँ, बहुत ही दुखी हूँ। ट्म तो डूस तरहसे कहते 'हो कि मे मारे लज्जाके मरा जाता हूँ

[ नौकर आता है। ] नौकर--वाबूजी, मेंजी आपको अन्दर इस्ता रही हैं समेश--अच्छा आता हूँ दीनू--अच्छा महया, तो अब इस समय हम लोग जाते हें।

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२८ श्म्ा [ दूसरा रमेश--अच्छी बात है लेकिन मेरी प्रार्थना भूल मत जाइयेगा दीनू--नही भइया, प्राथना क्यों कहते हो, यह तो तुम्हारी दया

( लड़के-लडकियोकी साथ लेकर दीन प्रस्थान ) गोवि०--भदया रमेश तो फिर अब मे सी चलता हैं। सम्ध्या-पूज ठाकुरजीकी आरती... रमेश--लेकिन गागलीजी -. मु गोवि०--अरे भद्या, तम्हें कुछ कहनेकी जरर॒त नहीं यह ते हपारा अपना काम है तम भी बुलाते, तो भी हमें ही आकर सब करना पड़ता कल सवेरे जब में तम्हारी मामीकों यहा भेज्ञ ढेंगा निश्चिन्त होऊँगा धर्म ०--गोविन्द, तुम व्यर्थकी बाते बहुत करते हो गोवि०--कोई चिन्ता नहीं रमेश भंडार वंडार जो कुछ है घर ०--भला भडारके लिए तुम्हे इतनी चिन्ता क्यो हो रही है बह सब तो मैं पहलेसे ही ठीक कर चुका हैँ गोवि०--अरे भइया, यह तो हम लोगोका अपना काम ठटरा। मेने ओर भइया धमंदासने, हम दोनोने तुम्हारे वुलानेकी राह नहीं देखी---आप ही बिना बुलाए पहुँचे है पहुँचे हे कि नहीं £ धम०--छुनो रमेश, हम लोग कोई वेणी घोपाल नहीं हैं।

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हम लोगोकी असलियत ठीक है

रमेश--अरे आप लोग यह क्या कह रहे है £

[ रमेशकी ताई आइमेसे जरा-सा सुंह बाहर निकालकर कहती है--- ]

ताई--समेश ये लोग इसी तरह बोलते है तो पढ़ें-लिखे हे अच्छी सगत है, इसलिए जानते भी नही कि ये क्या बक गये

[ गोविन्द और घमंदासका प्रस्थान ] रमेश---ताईजी

ताई--हों भइया, में हैं मुझे पहचानते तो हो

[ कहती हुईं ताइंजी सामने खड्ड़ा होती हैं। उनकी अवस्था पचाससे कम्त नही है, लेकिन ठेखनेमें वे किसी तरह चाडीससे अधिककी नहीं जान, पड़ती उनके सिरके बाल छोटे छोटे और कटे हुए हैं और थोड़ेसे बाल बल- खाकर माथेपर पड़े हैं। किसी समय जिस रूपकी इस प्रदेशमें बहुत अधिक

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च्श्य | पहला अह्जभ २९ अतलिद्धि थी, आज भी वह अनिन्ध रूप उनके सुडौल और भरे हुए शरीरको छोड़कर कहीं जा नहीं सका हैं आज सी ऐसा जान पड़ता है कि उनके अवयवब किसी अच्छे शिल्पीकी साधनाके सुन्दर फल हैं ] रेश--जिस लड़केको किसी समय तमने पाल-पोसकर बड़ा किया था ताईजी, क्या उसीके सम्बन्ध यह समकती हो कि वह जब घडा होकर घर लौटेगा, तब तुम्हे पहचान भी सकेगा ? ताई--नही रमेश, मेने यह आशंका नही की थी। लेकिन फिर भी भइया, खिना तुम्हारे मुँहसे यह छुने नही रहा गया कि तुम अपनी ताईको भूले नही हो रमेश--नही ताईजी, खूब याद है और वड्टी इज्जतके साथ याद है लेकिन में जो कुछ कर सकता, स्वयं ही कर छेता तुमने क्यों इस घरमें आनेका कष्ट किया : ताई--बेगा, तुम तो मुझे बुलाकर लाये नहीं, जो में तुम्हें इसकी कैफियर' * ! रमेश--बुला केसे लाता ताई * सबसे पहले तो में माँ समझकर नुम्हारी ही गोदमें दौड़ा गया था ! लेकिन ताई, तुमने तो ऋहला दिया कि घरपर नहीं हैं और मुझसे सेठ तक नहीं की ताई--सालूम होता है रमेश, इसीलिए तुम रूठ गये हो और इसीलिए आज मझे अपने घरसे विदा कर देना चाहते हो ! रमेश--मेरे रूडनेकी वात कहती दो जिसके में। नहीं, वाप नहीं, जो स्वयं नी ही जन्म-भूमिमे निराश्षय और विढेशी है और बिना किसी कसूरके ही जिसे पास-पड़ोसके और परिवारके लोग घरसे दूर कर रहे हैं, भला तुम्ही तलाओ ताईजी, उसके रूठनेका क्या मूल्य हो सकता है ताईं---क्यों रमेश, क्‍या मेरे निकट भी उसका कोई मूल्य नहीं है ? रमेश --नही, नहीं है | आज तुमने अपने लड़केकी ही केवल लड़का समझ लिया है और यह बात भूल गई हो कि एक दिन था जब तुमने एक ऐसे लड़केकों भी, जिसकी माँ सर गई थी, ठीक उसी तरह अपना लड़का

समझ कर पाला-पोसा था है ताई---क्यों स्मेश, क्या तम इसी तरह शूल वेध वेधकर वातें करोगे

क्या मैंने तम दोनोकी इसीलिए पालछा-पोसा था कि तुम लोगोंके लिए में

चरमें भी और बाहर सी इस तरह दंड भोगेंगी बस रमेश --घरमें भी और बाहर भी यही तो जान पढ़ता है ! ( हठान्‌ पैर

२० र्मा [ दूख पास घुटनोके बल बेठरूर ) ताईजी, तुम मुझे क्षमा करो मेरे अन्दर जो आग लगी हुई है, उसके कारण से तुम्हारी इस बाजूको नहीं देख सका।

[ ताई स्मेशको उठाकर दाहिने हाथसे उसकी ठोढ़ी' छूती है

ताई--होँ बेटा, मैं जानती हूँ

रमेश--लेकिन अब तुम इस सक्रानपर सत आना ।में ओर सब कुछ सह लूँगा, लेकिन ताई, मुझसे यह नहीं सहा जायगा कि तुम मेरे लिए दुख पाओ ताई--रमेश, यह ठीक नहीं है। यदि दुख सहना ही कतंव्य हो तो फिर वह तुम भी सहोगे और में सी सहूँगी। यदि कॉसा देकर आरास पानेकी चेष्टा की. जायगी तो उसके छिद्रमेंसे केवल आराम ही निकल जायया, चल्कि और भी अधिक दुख उसमे घुस पडेंगा बेटा तुम मुझे रोकनेका विचार मत करो अगर मना भी करोगे तो उसे मे सुनने ही क्यो लगी - रमेश---ताईजी, में तुम्हे भूल गया इसी लिए मना करनेकी गुश्ताखी की थी अब तुम मेरी बात मत सुनो और जो अच्छा जान पड़े, वही करो ताई--हॉ, वही तो में करूँगी '

_ रेश--हाँ हॉ, करो जाने कितनी ओधियों, कितने तृषान और कितने कष्टपूण समय तुम्हारे ऊपरसे होवर निकल गये है। बीच-बीचमे दूरसे ही उनकी खबर मिलती रही है लेकिन कोई तुम्हें बदल नहीं संका तेजकी कभी वुझनेबाली आग तुम्हारे अन्दर उसी तरह घक्र्‌ू धक््‌ जल रही है

..ताई--बस बस, चुप रहो छोटे मुंह बडी बात सत कहो अच्छा यह वतलाओ कि अपने बड़े सइयाके पास भी गये थे £ ( रमेश सिर कुकाकर चुप रहता है। ) ताई---घरपर नहीं है, कहकर ही शायद उसने भेट नहीं की ? [ रमेश फिर भी उसी तरह चुप रहता है ।]_ « ताई---न करने दो, फिर सी एक बार और--( थोड़ी देर तक चुप रहकर ) में जानती हूँ कि वह तुमसे खुश नहीं है, लेकिन अपना काम तो तुम्हें ; करना ही चाहिए। वह बड़ा भाई है। उसके सामने झुकनेमें कोई लजाकी बात नही है। इसके सिवा बेटा, मनुष्यके लिए यह ऐसा कठिन समय है कि ऐरे मैरेके भी हाथ-पैर जोड़कर सब अगड़ा मिटा लेता ही सनुष्यत्व है मेरे राजा बेठा, एक वार फिर उसके पास जाओ इस ससय शायद वह सकानपर ही होगा ; रमेश--ताईजी, अगर तुम्हारा हुक्म होगा तो जरूर जाऊँगा।

ह्श्य | पहला अंक ताई--ओर ढेखी, एक बार जरा रमाके यहाँ सी चल्ते जाना रमेश--गया था ताई--गये थे 2 उसने तुम्हे पहिचान तो लिया था £ रमेश--हों, मे सममता दूँ कि पहचान लिया था नहीं तो अपमान करके सुमे घरसे क्यों निकाल देती £ ताई--अपमान करके निकाल दिया रमाने , रमेश--और मालूम होता है कि उतने अपसानसे भी मन नही भरा, इसी लिए यह मी कह दिया कि अगर फिर यहाँ आओगे तो दरवानसे धक्का देकर निकलवा दूँगी ताई---स्वयं 'रमाने कहा था ? रमेश, स्वयं अपने कानोंसे सुनने पर भी मुझे इस बातपर विश्वास नहीं होगा रमेश--ताईजी, बड़े भश्या भी तो वहाँ मौजूद थे उन्हीसे पूछ लेना ताई--वेणी भी था? तब तो हो सकता है ( कुछ ठहरकर ) रमेश, क्या तुम ठीक कहँ रहे हो कि रमाने कहा था कि फिर घरमें आओगे तो दरवान- से निकलवा देँगी ? बेटा, मुझे धोखेमें डालना, ठीक ठीक बतलाना रमेश--हों ताईजी, कहा था | लेकिन उसने स्वयू कहकर, उसकी जाने कौन मौसी जो है, उससे कहलाया था

: ताई--( ठण्डी साँस लेकर ) ओह ! ऐसा कहो और नही तो फिर रमेश, रात भी झूठी हो जायगी और दिन भी क्रूठा हो जायगा अगर कोई उसके गलेपर छुरी भी रख देता तो भी वह इतनी बुरी बात तुमसे कह सकती तो यह उसकी मौसीने कहा, उसने नही

समेश--तो क्या तुम उसके भी यहा जानेकी मुक्के आज्ञा देती हो ताईजी रमाको तुम इतना जानती हो

ताई--हॉं जानती तो हैं, छेकिन अब मे जानेके लिए नहीं कहूँगी तुम्दारे पिताके साथ बहुत दिन तक उसके मामले-मुकदमे चलते रहे है। अगर उसे ठुश्मन कहा जाय तो भी इसमे कुछ झूठ नहीं है तो भी मे जानती हूँ कि वह बात रमा नहीं कह सकती। बेठा, वह तो ऐसी लडकी हे. कि लाखो करोड़ोमें भी ढेंढने पर मिलेगी। वह है, इसीलिए इस गेँवमें

थोड़ा-बहुत घमम वचा हुआ है। रमेश-- लेकिन उसे देखकर तो यह वात मेरी समझें नही आई।

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२२३ ण्मसा [ दूसरा ताई---सहस। सी नहों सकती। तो भी रमेश, है यह वात विलकुल ठीक पर, जब वहाँ जाना हो ही नहीं सकता, तच फिर उसकी चिन्ता करनेसे कोई लास नहीं। लेकिन बेठा, अब तक जो लोग यहाँ मौजूद ये और जो येरे आते ही यहंसि खिसक गये, उन लोगोंका तुम कसी विश्वास नही करना में उन्हें पहिचानती हूँ। रमेश--केकिन ताईजी, इस विपत्तिके समय वही लोग तो मेरे सबसे ज्यादा अपने हैं। में उत लोगोका विश्वास कहूँ तो फिर और किनका करू-£ ताई--बेठा, यही तो सोच रही हैं कि आखिर इस चातका क्ष्या जवाद दे? अच्छा तो बतलाओ निमन्त्रणकी फरद तैयार हो गई है £ रमेश---नही, असी तो नही ताई--देखो रमेश, उसे जरा सोच-समझकर तैयार करना। इस गाव- में, चल्कि यही क्यो सभी गॉवोमें, यही हाल है यह उसके साथ बैठकर नहीं खाता, वह इसके साथ वात नहीं करता जब किसीके यहाँ कोई काज पड़ता हैं, तव उसकी चिन्ताओंका कोई अंत नहीं रह जाता॥ यह चिश्चय

करनेसे कठिन और कोई काम नही है कि किसे वाद किया जाय और किसे रखा जाय

रमेश--लेकिन आखिर ताईजी, ऐसा क्यों होता है

ताई--बेटा, इसमें बहुत-सी बातें हैं। अगर यहा रहोगे तो आप ही सक मालूम हो जायया किसीका तो चमच ही कोई दोष या अपराध है, और किद्चीकी छूठ मूठकी ही वदनामी है। और फिर मामलो-सुकदसों और मूठी गवाही-साखियोंके कारण सी लोगोके दल बन गये हैं स्मेश, अगर में और दो दिन पहले आई होती, तो कमी तुम्हे इतनी तैयारियाँ करने ढेती तो केवल यही सोच रही हूँ कि आखिर उस दिन कया होगा

[ इतना कहकर ताईजी ठएडी सॉस लेती हैं

रमेश--ताईजी, तुम्हारी इस ठंडी सासका सतलव समझना कठिन है लेकिन मेरे साथ तो इसका कोई सरोकार नहीं है मुझे तो परदेसी ही समझना चाहिए तो किसीके साथ मेरी दुश्मनी हैं और मैं किध्ी दलसे ही कोई मतलब रखता हूँ। मुकसे किसीका सी अपमान हो सकेगा। से तो सबको इज्जत और खातिरसे चुला लाऊगा

नाई--..हा, उचित तो यही है लेकिन जो हो

१५

अंच

» उठी सब लंगोकी राय

डश्य ] पहला अक २३ लेकर ही यह काम करना नहीं नो बहुत गड़बड़ी हो जायगी। माता विपद्तारिणी !

- स्मेश--तो क्या तुम अभी चली जा रही हो £ ताई--नहीं, अभी-नही अभी एक दो काम पढ़े हुए हैं। उन सबको निबट लैँगी तब जाऊँगी लेकिन रमेश, ताली मेरे पास रहेगी कल सबेरे अं आप ही आकर मंडार खोलूँगी (प्रस्थान ) [ धर्मदास, गोविन्द और परान हालदारका प्रवेश ] गोविन्द--( रमेशसे ) भइया, ढेखो में इत परान मामाकी किसी तरह चर पकड़कर ले आया हूँ यह क्या आना चाहते थे £ लेकिन में भी तो छोड़ने वाला नही हूँ मैंने कहा कि क्‍या खाली वेणी ही जमीदार है और हमारा भानजा रमेश जमीदार नहीं है ( ऊपरकी तरफ देखकर )--तारिणी भइया, तुम स्वगगमें चैठे हुए सच छुछ देख-सुन रहे हो लेकिन मैं तुम्हारे सामने ज़तिज्ञा करता हूँ कि अगर में इसी ऑगनमें वेणीको बुलाकर उससे नाक रगड़चाऊँ तो मेरा नाम गांगुली नही धर्मदास--अरे गोविन्द, तुम जरा सबर तो करो ( खोंसते हुए ) यह सब मैं ठीक कर लगा [ अकस्मात्‌ वेणी घोपालका प्रवेश ।] वेणी--यह तो रमेश है ! में एक बहुत जरूरी कामसे आया हूँ। माँ आई हैं क्या * गोविन्द--आर्येगी क्‍यों नही भइया, सौ बार आयेँगी। अरे यह तो तुम्हारा ही घर है इसीलिए तो मे रमेश भइयासे सबेरेसे कह रहा हूँ कि रमेश, सारे लड़ाई-झगड़े तारिणी भइयाक्े साथ गये,---उन्हें जाने दो अब थे क्यों रहें तुम दोनो भाई एक हो जाओ, हम लोग भी देखकर अपनी आँखें ठंडी करे। इंसके सिवा जब बड़ी मालकिन खुद ही यहाँ गई हैं, तब... चवेणी-- मो आई हैं गोवि०--सिफ आना ही कैसा, भंडार-वंडार और काम-धन्धा जो कुछ है, सब वही तो कर रही हैं। और अगर थे नही करेगी, तो और कौन करेगा ? ( सब लोग चुप रहते हैं ) गोवि०--६ ठंडी सॉस लेकर ) इस गाँवसें बड़ी मालक्षिनके ऐसा और कौन

२४ य्सा [ दूसरा है, या कभी होगा? ना वेणी बावू, तुम्हारे सामने कददनेसे तो यह श्ममका जायगा कि खुशासढ करता है, लेकिन कोई कुछ मी कहे अगर गंवि-भरमें कोई छद्ष्मी है, तो वह तुम्हारी माँ है। ऐसी मा सला किसको मिलती है [ इतवा कहकर फिर एक ठंडी सास लेसे हैं ] वेणी---अच्छा . . | हर | गोवि>--सिर्फ अच्छा नही, वेणी वावू, तुम्हे आना पड़ेगा, ऋरना: पडेगा, सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। अच्छा, आप सब तो 'यहाँ मौजूद ही है क्यो अब उन लोगोकी फरद तैयार कर ली जाय जिन लोगोंको न्योता द्वेनाहै कया कहते हो रमेश सइया ? क्यों हालदार मामा, ठीक है न? घरमेदास भइया, इस समय चुप रहनेसे काम नहीं चलेगा | तुम तो सर्वे जानते हो कि किसे न्योता देना होगा और किसे वाद करना होगा रमेश---बड़े भइया, अगर एक बार आप अपने चरणोंकी घूल दे सके-- वेशी--जब्र माँ गई हैं, तव मेरा आना और आना... क्यों, गोविन्द चाचा, क्या कहते हो १, 5५७ रमेश--बड़े भश्या,म आपको परेशान नही करना चाहता, लेकिन अगर असुविधा हो, तो एक बार आकर देख-सुन जरूर जाइएगा वेशी--हों, यह तो ठीक है जब मां गई हैं, तब सेरा आना और आना क्या कहते हो हालदार मामा * हों तो रमेश, जर। माँस्ते जल्दी

आनेको कह देना | बहुत जरूरी काम है ।इस समय ठदहरनेका मौका नहीं. है सब रिआया .. |

ल्‍ ( कहते कहते वेणीका जल्दीसे प्रस्थान |). :

7 शोवि०--( नेपथ्यकी ओर गला चढाकर और अच्छी तरह देख लेने : पर ) अरे वेणी घोषाल, अगर तुम पत्ते पत्तेपर चलते हो तो में पत्तोकी नस नसपर चलता हूँ मेरा नाम गोविन्द गागुली है। अपनी आँखसे देखनेके लिए आये थे कि माँ आई है या नही। मे जैसे कुछ समझता ही नही ! (रमेशसे) और देखा भइया रमेश, मैंने कैसी बढ़िया, मीठी और मुलायम बातें सना दीं बिलकुल मिसरीकी छुरी | अब यह नहीं कह सकते कि हमारी खातिर नही हुईं। नही तो लॉगोसे कहता फिरता कि रमेशके बारेमें तो, खैर मानः लिया कि वह लड़का है, लेकिन उसके सामा गोविन्द गांगुली तो वहों मौजूद थे | भइया, बड़े काम-कौजमें मालिक होकर बैठना कोई सहज ' काम-

द्श्य ] पहला अ्रक २५ - नही है। एक एक चाल सोचते सोचते सिस्‍्में चक्कर आने लगता है ' घमं०--गोविन्द, तुम बहुत बकवाद करते हो अब चुप रहो ! [ एक तरफसे सुकुमारी और उसकी माँ क्षान्‍्त आकर घरके अन्दर चली जाती हैँ परान हालदार बहुत तेज निमाहसे उनकी तरफ देखते हैं | थोड़ी देरमे नौकर घष्टीचरण आता है। ] परानं--अन्दर ये कौन गई हैं रे ? पष्टी-वही तज्ञान्त वाम्हनी ओर उसकी लड़की ! परान--में जो सोचता था, वही हुआ। आखिर उन लोगोकों घरमें घुसने किसने दिया पष्ठी ०--आयचायजी बुला लाये है दो दिनसे वे ही तो सब काम-काज कर रही हैं ! परान--अगर वे खाने पीनकी चीजे छऐ्ंगी तो कोई त्राह्यण यहाँ पानी तक-न पीएगा [ ज्ञान्त शायद आदमें खड़ी सुन रही थी, इसलिए वह तुरन्त बाहर निकल आती है ।], च्ान्त--आखिर मे भी सुनें हालदार महाराज कि ऐसा क्‍यों होगा? ( रमेशसे ) हाँ भइया, तुम मी तो आखिर गॉवके एक जमीदार हो। क्या सारा ठोष इसी क्षान्त बाम्हनीकी लड़कीका ही है हम लोगोके सिरपर कोई नहीं है तो क्या इसके लिए जितनी बार जी चाहे उतनी ही बार दड दोगे? जब मुकर्जके यहाँ पीपलकी पूजा-प्रतिष्ठा हुईं थी तब ( गोविन्दकी ओर: उँगली दिखाकर ) क्या इन्होने दस रुपया जुरमाना अदा नहीं कर लिया था * सारे गावकी मानस-पूंजाके नामसे क्या इन्होंने हमसे चार बकरोका दाम नहीं रखवा लिया था 2 तब फिर एक ही वातके लिए आखिर ये के बार न्याय करना चाहते हैं / गोबि०--क्षान्त मौसी, अगर तुमने मेरा नाम लिया है तो भाई, में तो सच वात ही कर्ंगा। यह तो देश भरके लोग जानते हैं क्रि सिफ किसीकी- खातिरसे कोई वात कहनेवाले गोविन्द गागुली नहीं हैं | तम्हारी लडकीका प्रायश्चित्त भी हो गया है और हमने उसे सांमाजिक दंड भी दे दिया है, यह मानता हूँ। लेकिन यज्ञमें लकड़ी देनेका हुक्म तो हम लोगोने दिया नहीं”

$3। डा

ण्सा [ दूसरा है। अयर वह मर जायगी तो उसे जलानेक्रे लिए हम लोग अपना कन्धा ढेंगे, किन्तु-- ज्ञान्त--मरने पर तुम अपनी सडकीको कन्वेपर उठाकर जलानेके लिए ले जाना बेटा, मेरी लडकीकी तुम्हे फिकर करनेकी जरूग्त नहीं ओर क्यों गोविन्द, तुम अपनी छातीपर हाथ रखकर क्यो नहीं कहते ? तुम्हें अपनी छोटी भौजाईके काशीवासकी याद नहीं आती? और ये जो हालदारजी हैं, इसकी समधिनकी जुलाहेके साथ वदनामी नहीं फैली थी ये सब्र शायद बढ़े आदमियोकी बडी बातें हैं, क्यो गोवि०--क्यो री हरामजादी .. ज्ञान्त--( आगे बढ़कर ) मारोगे क्या ? अगर क्षान्त वाम्हनीको छेड़ोगे तो सारे गॉवका सेडा फूट जायगा बस इतनेसे ही काम चल जायगा या असी कुछ और वतलाऊँ * [भैरव आचायेका जत्दीसे प्रवेश ] सैरव--घस-ब मौसी, इतनेसे ही चल जायगा। और कुछ कहनेकी जरूरत नही ( अन्द्रकी ओर देखकर ) चलो वहन सुकुमारी, और आओ मौसी, तुम भी अन्दर चलकर बेठो [ भैरव और ज्ञान्तका प्रस्थान ] गोवि०--ठेखते हो परान सामा, हम लोगोका अपमान कराके इस लोगोको अन्दर बेठानेके लिए ले गया है | देखी मेरवकी हिसमाकत ? अच्छा... परान--अ्रत्र रमेश इस वातकी कैफियत दें कि बिना हम लोगोंके हुक्म- के इन दोनो दुष्टा स्नियोको क्यो इन्होंने घरके अन्दर घुसने दिया नही तो - हम लोगोमेसे कोई यहाँ पानी पीएगा ताई--( दरवाजेके पास आकर ) रमेश ! रमेश--ताईजी, तुम अभी तक यही हो £ ताई--ॉ, हैं तो गोविन्द गायुलीसे कह दो कि क्षान्त और सुकुमारी- को आदरके साथ में बुला लाई हूँ, आचार्यनो नही। खाइमख्वाह उनका अपमान करनेकी कोई जरूरत नही थी। परान--लेकिन जब तक वे यहाँसे निक्राल दी जोयेंगी, तब तक हम : लोगमेंसे कोई यहाँ पानी पीएगा , ताई--यह बात तो परसों होगी। मे मंना कर देती हूँ कि आज मेरे घरमें

हि

दृश्य]... पहला अंक इल्ला-गुल्ला और लदाई-फगश करनेकी जरूरत नहीं से सबको ही न्यौता देंगी, किसीको वाद नहीं कर सकूँगी है परान--लेकित फिर हम लोगोमेंसे को३ यहाँ पानी तक पी सकेगा ताई--रमेश, इनसे कह दो कि मुझे यह डर दिखलाबे यहाँ अनाथों, भूखों और कंगरालोकी कमी नहीं है हमारी इतनी तैयारी व्यर्थ नहीं जायगी, बल्कि उलटे साथक ही होगी मेश--( आकुल स्व॒ससे ) लेकिन ये स० लोग तो खडमंडल कर देना चाहते हैं ताईजी, इन खब बातोकी जिम्मेदारी तुमपर पड़ेगी ताई--रमेश, यह तुम्हारी नासमझी है। हमारे घरके काम-काजकी जिम्मेदारी हमारे सिर नहीं पडेगी, तो क्या किसी दूसरेके सिर पडेगी * इस समय इन लोगोस जानेके लिए कह दो अभी वहुतसे काम पड़े हैं मेरे पास व्यर्थ नष्ठ करनेके छिए समय नहीं है ( ताई अन्दर चली जाती है सदर दरवाजेसे गोविन्द, धर्मदास और परान हालदार धीरेसे वाहर निकल जाते हैं ) रसमेश--में समझता था कि भेरा कोई नही है। लेकिन ताईजी, जिसकी तुम हो, उसके सभी हे

धर

तीसरा दृश्य गाँवका रास्ता [ थ्राद्धवाले घरसे न्योता खाकर दीनू भद्टाचाये लौट रहे हैं उनके साथ पटल, न्याड़ा, वूढ्टी आदि लडके लडकियों हैं सवोके हाथमें एक एक पोटली है और दूसरे हाथमें पुरवोमें रायता और खीर आदि ] खेदी--( डरकर ) वाबूजी, भजुआ रह। है ...

( सुनते ही सब लोग चौक पड़ते हैं रमेशका नौकर भज्जू आता है। ) दीनू---अरे यह तो भज्जू बाबू हैं | कहों जाना हो रहा है * भज्जू--अरे भद्धचायें महाराज, यह सब क्या लिये जा रहे हैं ? दीनू---कुछ नही भशया, यही जरा-सा जूठा मीठा है। महल्लेमें छोटी

जातिके गरीब और दुखिया लडकी लड़के हैं न। जाते ही सब लोग हाथे फैलाकर खडे हो जायेंगे उन लोगोंको ही देनेके लिए..

ले (६

श्सा [ तीसरा

भज्जू--अरे कर्मी किस चीजकी है ' क्रितने गरीब दुखिया वहों बेठ- कर पूरी-मिठाई खा रहे हैं दीनू--अरे हॉ, खा क्यो नहीं रहे हैं सइण, सभी तो खा रहे हँ राजा- का सरडार ठहरा | यहाँ कमी क्रिस वातकी हे ' लेकिन फिर भी तो नहीं - सकते उन्हीके लिए जरा-सा... सज्जू--हाँ हाँ ठीक है भद्चाचाजजी, यह बड़ा खराब गोंद है। कितना गोलमाल होता है * यह उठता है, तो वह वेठता है यह भागता है तो वह खीचदर लाता है। हा. हा. हाः दीट--अरे भइया, सब ऐसे ही होता है। बडे काम-काज्जोंमें ऐसा ही होता है बूढ़ी, ढेख जरा पठलक्रा हाथ बदल ले इसारा गॉव तो फिर भी बहुत कुछ ठिकानेसे हैं --अरे रास्ता देखकर चल | ठोकर लगेगी तो दहीकी हँड़िया गिर जायगी ।--अरे भडया, मे जो हाल खेदीके मामाके यहां देख आया हूँ, वह तुमसे क्या कहूँ। वहों त्रद्मण और कायस्थोंके सव मिलाकर बीप तो घर नही होगे, लेकिन दप्त तड़ें हैं ।--क्यों रे पटल, ऊपर आसमानकी तरफ मेड करके चलता है १--तो भी भइया, एक वात मैं कह सकता हूँ। भिक्षाके लिए वहुतन्सी जगहोंपर जान" पड़ता हैं। बहुतसे लोग मुकपर कृपा भी रखते है मेंने खूब देखा कि जो या माया है, वह सब तुम्हारे बावू साहब जेसे लड़कोंम ही है अगर नही है तो खाली बुड्ढे सालोंमें नही है मौका पाते ही ये दूसरेके गलेपर - पैर रखकर खड़े हो जाते हैं और जीम बाहर निऋलवाकर ही छोड़ते हैं ( इतना कहकर अपनी जीम वाहर निक्रालकर दिखलाता है ) भज्जू--हा हा हाः दीत--और यह गोविन्द गागुल्ली ' अगर इस सालेके पापकी वात समैंह से कही जाय तो ग्रायरिचत्त करना पड़े जालसाजी करनेमे, कठी गवाही आर झूठा सुकमा लड़नेम इसका कोई सानी नहीं हैं सभी डरते हैं और कर चृगी वात्नू श्सके मददगार है »+ व्सलिए फिसीछो ससे कुछ कहने का सी साहस नहीं होता। चाहे जिश्नकी जात मारता हुआ घूमता हैं

5) |

भज्ज्से कं

सज्ज--भद्राचा जेजी सब जग: कब जु ज्ज्-- जजी, सब जगह ऐसा ही होता हैं हमारे यॉवम मी

नहुत भालमाल हूं। ...मगर हमारे वावूजीकी कोई नही पा सकता

ब्द्द्य |. पहला अड्ढ २९ _ दीनू--हाँ भइया, हम भी कहते हैं कि कोई नहीं पा सकता ।---अरे ऑेंदी, जरा पेर बढ़ाये चल तू तो भज्जू--अरे हमारे बावू क्या आदसी हैं : वह तो देवता हैं

,. दीन--हों, भशया रमेश देवता ही हैं ।---अरे पठल, फिर मुंह वाये खड़ा ज्ै [हों तो भज्जू बावू, कहाँ जा रहे हो ?

भज्जू--आचाजजीके घर

दीन---अच्छा, जाओ, जरा जल्दी जाओ अब हम लोग भी चलते हैँ

( सबका प्रस्थान )

चोथा दृश्य [ मु पाल मोदीकी दूकान बिक्री-भरद्मा हो रहा है ] पहला गाहक--एक पैसेका तेल देनेमें क्या सन्ध्या कर दोगे £ मधु--अरे भाई, देता हूँ दूसरा गाहक--अरे पाल भइयः, एक पैसेकी हलदी देनेमें इतनी देरी मधु--अरे भाई, देता तो हूँ। अकेला आदमी... तीसरा गाहक--दो पैसेकी मसूरकी दालके लिए मालूम होता है कि ज्ञाज हमारे यहाँ रसोई चढने पावेगी। मधु--अरे चाचा, रसोई क्यो नहीं होगी ? लो | रमेशका प्रवेश ] मधु--( गरदन आगे बढ़ाकर और ठेखकर ) अरे यह तो हमारे छोटे बाबू हैं प्रशाम वावूजी ! ( इतना कहकर और हाथमें एक मोढा लेकर

“दूकानके नीचे उतर आता हैं। ) हमारे सात पुरखोंके बंढे भाग्य जो दूका- जपर आपके चरण पड़े वेठिए

न्‍ँ

रमेश--श्रादके हिसावमे तुम्दारे दस रुपये बाकी थे तुम सी लेने

नही आये ओर में भी नहीं भेज सका आज सोचा कि चलो खुद ही चलकर आरऊँ | यह लो

मधु--( दाथ वढ़ाकर ओर रुपये छेकुर ) वाबूजी, यह तो हमारे बाप-

दादाने सी कसी नद्दी सुना कि आदमी घर आकर रुपये दे जाय !

रसेश--( मोढ़ेपर वैठकर ) क्यों मधु, दूकान कैसी चलती

कै? कु जे

डे रु

|

मा [ चौथा सधु--जवूजी, दूद्ान कहोंसे चले ? दो आना, चार आना, एक रुपया सबा रुपया ऐसे ही दरते वरते साठ सत्तर रुपग्रे लोगोके यहां वाकी पढ़ गये ह। लोग कह जाते हैं कि सम्भ्याकों दे जायेगे और फिर छ' महीने तक देनेका नास नहीं लेते ।--ररे ये तो बनर्जी सहाराज है प्रणाम कहिए, कब आये [ वरर्जीके बाएँ टावसे एक झारी है, पेरोपर कीचडके दाग हैं कानपर जनेऊ चढ़ा है ओर दाहिने दहाथमे अरुईके पत्तेमें लपेटी हुई चार छोटी छोटी चिगड़ी मछलियों है। ] वर्नजी---ऊल रात ही तो आया हैूँ। मथु, जरा तमाकू पिलाओ | [इतना कहकर मारी रख देते है ओर हाथसे मछलियों भी ] वनर्जी---इस सेरुवी धीवरिनकी अक्किल तो देखो मधु, चटसे कंचख्तने सेरा हाथ पकड़ लिया | सला वतलाओ तो सही कि केसा जमाना गया है ! ये कया एक पैसेकी चिगड़ी है? ब्राह्मणकों ठगकर के दिन खायगी हराम- जादी | उसका सत्यानाश हो जायगा ! सधु--अरे उसने आपका हाथ पकड़ लिया ! बनर्जी--उसके सिर्फ ढाई पेसे बाकी थे, लेकिन क्या इतनेके लि. हे हाट्सें सब लोगोके सामने मेरा हाथ पकड लेना चाहिए? यह किसने नहीं देखा ? मन्ते सैद्यनमें निबटकर, भारी मॉजकर और नदीमें हाथ-पेर धोकर सोचा कि जरा हाटसे भी होता चलूँ। हरामजादी एक दौरीमें मछलियों रखकर बैठी थी। मुफ्रे, देखकर आप ही बोली कि महाराज, आज अब कुछ नही है; जो थी सब बिक गई। पर मेरी ओंखमे वह कही धूल कोक सकती है? ज्यो ही मैंने उसकी दौरीमें हाथ डाला त्यो ही कटसे उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ।--घशरे तेरे पहलेके डाई पैसे बाकी हैं ओर आजका एक पैसा हुआ क्या ये साढ़े तीन पैसे लेकर में गाव छोडकर भांग जाऊँगा # क्यो सधु, क्या कहते हो ? घु--भला ऐसा भी कही हो सकता हैं ! बनर्जी--तब फिर कहते क्यो नहीं * गॉवमे क्‍या किसीपर किसीका कोई शासन रह गया हैं £ नही तो षष्ठी धीवरके धोबी और नाऊ बंद कश्के और -कोपडी उजाडकर उसे दुरुस्त कर दिया जाता |--( अचानक रमेशकी ओर देखकर ) अरे सधु, ये बावूजी कौन हैं ?

मंधु--ये हमारे छोटे वाबवूजी हैं श्राद्धके-हिसाबमें दस बाकी रह गये थे, वही देनेके लिए आये हैं “हि कह

दृश्य | पहला अंक ३५ बनर्जी--अच्छा, रमेश भइया है ! जीते रहो वेठा यहाँ आकर झुना के तुमने जैसा चाहिए, बसा ही काज किया है ऐसा खाना-पीना इस तरफ़ आज तक कभी हुआ ही नहीं लेकिन दु है कि में अपनी आँखोंसे - नहीं देख सका कुछ दरामजादोंके फेरमें पडकर नौकरी करने कलकते चला गया था; सो वहाँ इतनी इुर्दशा हुई कि पूछी मत ! अरें राम, वहाँ क्‍या कोई आदमी रह सकता है * मधु-- तम्बाकू भरकर और हुक्का वरनर्जकि हाथमें देकर ) फिर, कुक नौकरी दौकरी सिल तो गई थी बनर्जी--क्यों, मिलती क्यो नहीं / कया मैने कोठों देकर लिखना-पढ़ना सीखा था £ लकित नौकरी सिलनेसे ही कया होता ऐै £ जैसा धुआ- वैसी ही चहाँ कीचड़ घरसे वाहर निकलो और अगर बिना किसी गाड़ीके नीचे दे सही सलामत लोटकर घर जाओ, तो समझो कि तुम्हारे बापने बंड़े पुरय किये थे। तुम कभी गये हो वहाँ से मधु--जी नहीं, एक वार भेदिनीपुर शहर देखा है। बनर्जी--अरे गैंबेया भूत, कहाँ कलकत्ता ओर कहाँ मेदिनीपुर | जरा अपने रमेश वावूसे पछ कि मे सच कहता हूँ या झूठ अरे मछु, अगर खानेको सिलेगा तो लड़के-वच्चोंका हाथ पकड़कर भीख मॉग लेगा, व्राह्मयण ठहरा,भीख माँगनेमें कोई लज्जा नहीं | लेंकिव अब परदेश जानेका मेरे सामने कोई नाम भी ले। कहूँगा तो तुम शायद विश्वास नहीं करोगे कि वह सोआ, करेमू चलता और केलेके फूल तथा डठल तक खरीदकर खाने पड़ते है | तुम खा सकोगे £ बिना खाये में तो इधर महीने-भरमें ही रोगी चूहेकी तरह हो गया दे [ इतना कहकर बनर्जी मधुके हाथमें हुक्ा दे उेते हैं और उठकर मधुके तेलके वरतनमेसे थोड़ा-सा तेल हथेलीम लेकर कुछ नाक ओर कानोंमें डालते हें और वाकी सिरपर डालकर रगड़ने लगते हें ॥॥ बनर्जी--बहुत दिन चढ़ आया। #। जरा गोता लगाकर घर चलूँ। भछु, एक पैसेका नमक तो द्वे टो। पैसा सन्ध्वाको दे जाऊँगा। मधु--फिर वही सन्ध्याकी ! [ मधु कुछ डुःखित होकर उठता है और दकानम जाकर कागजकी पुद्धि- भागे नमक देता है |] | बनर्जी--( नमक हाथमें लेकर

)झरे मश्ठु,तुम सत्र लोगोको भला हो क्या | ]

+ पं

समा [ चीथा गया है ? गालपर थप्पड़ मारकर पैसा छीन लेना चा | ( इतना कई- कर और अपने हाथते दी एक पसर नमक उठाकर पुटियार्मे रख लता और रमेशकी ओर देखते हुए छुस्कराकर कहता ए--)--वही तो रास्ता है; चलो भश्या, रास्तम वातडीत करते चले रसेश--अभी से कुछ देर है ही वरनर्जी--अच्छा तो रहने दो ( कारी उठाकर चलना चाहता है ।) मध--क्यो उ्नर्जी महाराज, वह आठेछा दाम पाँच आने स्यायों ही. वरनर्जी--क्यों रे सु, क्या लज्जा शरम तुम लोगोंकी कँखोंके चमदढ़े तकको थी नहीं गई है ? उन हरामजादोंके फेरमें पढ़कर ऋलकते जाने जानेसे मेरे पॉच-छुद रुपये सिठ गये। कया यही तुम्दारे खिए तगादा करनेका समय है? किसीका स्वेनाश और किसीका पीप मास ! सइया रमेश, जरा इन लोगोका व्यवहार देखा ? मधु--( लज्जित होकर )बहुत दिलोंका .. वनर्जी--अरे हुआ करे वहुत दिन |! अगर सब लोग मिलकर इसी तरह मेरे पीछे पड़ जाओगे, तब तो गॉँवमें रहना ही मुश्किल हो जायगा ( बनर्जी कुछ नाराजसे होकर अपनी सब चीजें उठाकर चल देते हैं इसके बाद तुरन्त ही वनमाली धीरे धीरे आकर प्रणाम करके रमेशके पेरोंके धास खड़े हो जाते हैं )) रेश--आप कौन हैं ?

यही बात है ? देखा

वन ०--आपका सेवक वनसाली इस गॉँवके माइनर स्कूलका प्रधान अध्यापक हैँ

रमेश--(कुछ सकपकाकर और खड़े होकर) आप ही स्कूलके हैडमास्टर हैं £ वत्त०--जी हाँ, से ही आपका सेवक हूँ में दो वार आपके यहाँ अणाम करने गया, लेकित आपसे भेट नहीं हुई रपेश---आपके स्कूलमें कितने लड़के पढ़ते हैं वन०--बयालीस लड़के | हर साल दो लड़के मिडिलमें पास होते हैं एक वार नारायण बनर्जीके तीसरे हुड़केने छात्रवृत्ति सी पाई थी रमेश--अच्छा ?

चवत्त०--जी होँ। लेकिन इस वार अगर स्कूलका छुप्पर ठीक कराया गया तो वरसातका पानी स्कूलके वाहर पड़ेगा

' शड्य ] पहला अंक स्मेश--सारा ही आप लोगोंके सिरपर गिरेगा वन०--जी हाँ लेकिन उसमें अभी देर है इस समय तो हम लोगों-

मैंसे किसीको इधर तीन महीनेसे तनख्वाह नहीं मिली है। मास्टर लोग कहते

# कि अपने घरका खाकर अब जेगलके मच्छर नही उडाये जायेंगे सेश---आपकी तनख्वाद कितनी है वन०--तनख्वाह तो छब्वीस रुपये है, लेकिन पाता हूँ तेरह रुपये

पद्रह आने . रमेश--तनख्वाह तो छच्वीस रुपये है, और मिलते हैं तेरह रुपये पद्रह

आने : आखिर इसका मतनतत वन०--गवर्नमेंटका हुक्म है कि नहीं। इसीलिए छुब्बीस रुपयेकी रसीद

अलिखकर डिप्टी इन्स्पेक्टरको दिखलानी पड़ती है |ओऔर नहीं तो सरकारी

सहायता बन्द हो जाय

रेश--इससे लड़कीके सामने आपके सम्मानकी हानि नहीं होती

वन०---जी नहीं, यह तो देशाचार है इनके सिवा लड़के हमसे उसी तरह डरते हैं. जिस तरह बाघसे वेतोंसे उनकी पीठ लाल कर देते हैं !

_रमेश--होँ, कर देनेकी वात ही है और सब मास्टरोंकी ,तनख्वाह कितनी है !

चन०--तेईस रुपये।

रमेश--तेईस ? एक आदमीकी या तीन आदमियोकी

बन ०--तीन आदमियोकी नौ रुपये, आठ रुपये और छः रुपये पर पघ्रेणी बाबू इतना भी नहीं देना चाहते। कहते हैं कि आठ रुपये, सात रुपये, छुह रुपये हो जायें तो शअ्रच्छा

स्मेश--ठीक है मालूम होता है कि मालिक वही हैं

वृन०--जी हॉ, वही सेक्रेटरी हैं लेकिन कभी अपने पाससे एक पैसा भी.नही देते। हॉ, यदु मुकुर्जीकी कन्या रमा पूरी सती लक्ष्मी हैं। अगर उनकी दया होती तो यह स्कूल कमीका बंद हो गया होता

रसेश---यह आप क्या कह रहे हैं ? मेने तो यह नहीं सुना

वन०---जी हॉ, छोटे बाबू , केवल उन्हीकी दयासे स्कूल चल रहा है और किसीकी दयासे नहीं। उनका एक भाई भी स्कूलमें पढ़ता हे।इस साल

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३४ स्भा ' चौप

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उन्हीने कहा था कि छेपर टलवा देगी लेकिन, में यह नहीं कद सकता कि कफ छ्प्प हि ! आल नर गय शाय छू गजी समा है ब् उन्होने क्‍यों अब तक छप्पर नहीं उलवाया शायद किसीने नौनी मार की है स्मेश--क्या यह भी होता हे ! अच्छा, आज आप जाय, क्‍यों आपको दर हो रही है। कल से आपको रकुल देसनेके लिए आऊँगा। एत्त०--जो हक्म आपकी दया है, तो फिर दम लोगोंको चिन्ता दी दिल्त वातकी £ है [ इतना कहकर बनसाली फिर एक वार झक्कर प्रणाम करते हैं और चले जात हैं | दूसरे रास्तसे गोपाल और सज्जूका प्रवेश ] स्सेश--क्यों सुमार्ताजी, श्राप अचानक इस तरद घबराये हुए क्यों चले जा रहे हैं 3 गोपाल--वबैणी वाबूने तो बहुत अत्याचार करना शुरू कर टिया है छोटे वावू, रोज रोज तो यह नहीं सहा जाता। रमेश--क्यो, गत क्‍या है : गोपाल--कपासडॉगेम बाईस बीघेका जो बन्द हैं- उसका अभी तक बेंट- वारा नहीं हुआ है दह अभी तक मुक्रीके साथ चीरमें जोता जाता है एक हिस्सा उनका हैं, एक हिस्सा वेणी गवूका हे और एक हिस्सा हम लोगोंका है। उस दिन उन्हींने इतना बड़ा इमलीका पेड काट+र आपससे दो हिस्सोंमें चॉट लिया और हम लोगोको एक ठुकडा तक नहीं दिया। जब आपके मैंने कहा तब आपने कह दिया कि जरा सी सकडीके लिए ऋगणड़ा नहों किया जा सकता। रमेश--ठीक ही है ग्रुमारताजी, कया एक मामूली-सी चौजके लिए बड़े भाईके साथ झगडा किया जा सकता है? गोपाल-- वेस, इसी भरोसे वेणी वाबू आज जबरदस्ती यड़ तालाबकी सछुलियोँ पकड ले गये हैं | म॒ समझता हूँ. इस समय सुकर्जीके यहाँ उनका, हिस्सा बॉट हो रहा होगा रमेश-लेकिन यह आप ठीक तरहसे जानते हैं कि उसमे हम लोगोंका १००५ हिस्सा है गोपाल--और नही तौ क्या छोटे बाबू, मेंने क्‍या यो ही इस काममें: सिरके बाल पकाये हैं है स्मेश--लेकिन सब लोग तो कहते हैं कि रमा बहुत ही धर्मनिष्ठ लड़की. है। उसीसे क्‍यों एक बार पुछवा लिया ?

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पहला छावा ३४. सापाल--सुनता है कि उन्होंने हेंसकर कह दिया कि छोटे वावूसे जाकर ऋढह दो कि वह सारी सम्पत्ति हमें सॉप दें ओर अपना महीना वॉघकर जहाँसे आये हैं, वहीं चले जोॉय जमीदारीकी रक्षा करना डरपोक आद- सियाक्ता काम नहीं दे

समेश--तो मालूम होता है कि चोरी करनेको ही उन्होंने साहसका काम समम रखा है | भज्ज़, तुम्हारे साथ लाठी है? उन्न--( लाठी उठाकर ) हाँ हुज॒र ( भज्ज़ू बहोंसे जाना चाहता है ) पाल---( अचानक बहुत ही भयभीत होकर ) लेक्रिन छोटे बाबू, इससे तो सच्म्मुच फाजदारी हो जायगी ' मेश--तो फिर और उपाय ही क्या है / गोपाल--छोठे बाबू , इस तरह एकदमसे कोई काम कर बैठना ठीक होगा रमेश--तो फिर आप क्या करनेको कहते है गोपाल--कहता हूँ मे कद्दता हूँ कि पहले थानेमें रिपोट कर दी जाय। आर नहीं ता एक बार उससे अच्छी तरह पूछकर . .. रसेश--तो फिर ग्रमाश्ताजी, बद्दी कीजिए हमारे जैसे डरपोक आदमीको इससे कुछ और अधिक करना उचित भी नहीं है भज्ज, तम उस घरकी मंजीकोी पहचानते हो पहचानते हो अच्छा, जाकर उनसे पूछ आओ कि गढ़ तालाबकी मछलियोंमें हमारा हिस्सा हे या नही | अगर बे कहें, है, मछलियों छेते आना अगर कहें कि नहीं है तो चुप्चाप चले आना. अुमे प्रा विश्वात्र है सुमाव्ताजी, कि मामूली दो-चार मछलियोके लिए रमा अूठ नहीं बोलेगी ; ( भज्जूका जल्दीसे प्रस्थान )

9:24 पाचवा द्श्यं बेणी घोषालके अन्त-पुरमें विश्वेश्वरीका कमरा रमा आती है ओर सामने दासीको ढेखती है ] रमा--नन्दकी माँ, ताईजी कहाँ हैँ दासी--अभी वह पूजाके कमरेसे बाहर नहीं निकली हैँं। क्‍यों वहन, जाऊँ, उन्हें बुला लाफऊँ

सदमे

३६ श्प्मा हु पासता के 0 4]

टी भें बठती |। जब के

दासी--इहुत अच्छा बहन :

[ आगे बढ कर रमासे लिपट ज्यता हू ] रश--करसा दुट्ट लडका है यदीर्ऋ--आज तो हम लोगोंकी छुट्टी है जीडी रा--छट्टी किस वातकी £ यतीरऋ--हुआ करे बुधवार बुध, बृहस्पति, छुक्त, शनि, ओर रहि एकदससे पाँच दिनकी छुट्टी हें रमा--छुट्टी किस वातकी £ यतीन्द्र--हमारे स्कूलपर नया छप्पर जो डाला जा रह। हैं उसके बाद चूनेका काम होगा ब्हुत-सी किताबे आवेंगी | चार-पॉच कुर्तियोँ और टेवुले आई है। एक आलमारी और एक वड़ी घडी आई हैं | किसी दिन तुम भी चलकर देख आओ जीज्जी ! रसा--अरे कहता क्‍या है रे £ यतीन्द्र--में विल्कुल ठीऋ कहता हूँ जीजी ' स्मेश चावू आये हैं न। ये ही सव करा रहे हैं उन्होने कहा है कि असी और सी जाने क्‍या क्या करा देंगे वह रोज एक घराटे आकर हम लोगोंको पढ़ा भी जाते हैं रसा--क्ष्यो यतीन्द्र, वे तुके पहचानते है यतीन्द्र--हों | रसा--तू उन्हे क्‍या कहकर पुकारता है £ यतीन्द्र--हम लोग उन्हे छोटे वावू' कहते हैं

रमा--( भाईको खीचकर और गले लगाकर ) छोटे चादू कैसे रे ! देः तो तेरे बड़े सइया हैं। यतीन्द्र--घत्‌ . ३० हक जश

गा

रमा--धत्‌ क्या तू जिस तरह वेणी बावूको बडे भइया' कहकर

(

7९

इृश्य ] पहला अंक रे पुकारता है, उसी तरह इन्हें छोटे भइया कहकर नहीं पुकार सकता: यतीख--क्या ने भेरे बड़े साई हैं ? सच कहती हो जीजी रसा--हों हाँ, सच कहती हूं, ने तेरे बढ़े भाई हैं यतीन्द्र--नों में घर जाऊँ जीजी, और जाकर नरू, हारा, समता सह लोगंसे कह आऊे £ ( रसा गरदन हिलाकर मना करती है ) यर्तीस्व--क्यों जीजी, इतने दिनातक ने कहों थे ? रमा--वे इतने दिनो तक पढ़नेके लिए परदेस गये हुए थे यतीनद्र, जरू तू बड़ा हो जायगा तब नुझे भी इसी तरह परद्वेस जाकर रहता पड़ेंगा। सुमे छोड़कर अकेला रह सकेगा यतीन्द्र--( दो तीन वार अनिश्चित भावसे सिर दिलाकर ) क्यों जीजी, छोटे भइयाकी सत्र पढ़ाई खतम हो गई : रमा-- हॉ, उनकी सब पढ़ाई खतस हो चुकी है यतीन्द्र--तुमने केसे जाना ? रमा--[ थोड़ी ढेर तक चुप रहकर ) जब तक कोई अपनी पढ़ाई खतम कर ले, तब तक वह दूसरोंके लड़कोंके लिए इतना रुपया दे सकता है इतनी-सी बात त्‌ नहीं समझ पाता यतीन्द्र-- ( सिर हिलाकर जतलाता है कि हो, समझता हैँ ) अच्छा जीजी, छोटे भइया हमारे यहाँ क्यो नहीं आते £ बड़े भइया तो रोज आते हैं। रमा--तू उन्हे बुछाकर नहीं ला सकता £ यतीन्द्र--अभी जाऊँ जीजी ? रमा--( भय व्याकुल हो दोनो हाथोंसे गले लगाकर ) तू भी कैसा पागल लड़का है रे ! खबरदार यतीख, कमी ऐसा काम मत करना, कसी करना यतीन्द्र--जीजी, ठुम्हारी आखोंमें पानी क्यो भर आया जिम कामके लिए तुम मना कर देती हो, वह काम तो में कमी नहीं करता स्मा--( आँखें पोंछकर ) हाँ, जानती हैँ कि नहीं करता तूमेरा राजा- भइया है न; इसीलिए _/+ * यतीन्द्र--अब घर चलो जीजी [ रमा--तू जा। मैं थोड़ी देर बाद आर्ेगी * ( यतीन्द्र चला जाता है )

नि + नल है. अब मी मेने यो प्रनय आए साय मा कप >ड्ई डा स्स्म [शुभ कप डरा आए सीडद 5 ग्ध्राश लत आय सेहत $ का

220 लक हज रँ, अफेललसफ फ्रे # | 5 छह के ककय.. शपू घिदम०-+ समा, तेसने रपट बट जे मे हाय 74, का क्या सह: पउ+

शब ऊुछ झग नहीं हु

नयी शा 8 ४, 5 या 6० पड का की

समा-- िल साडणी, में झगा का | छुप खमस चार 2० उस हैं न. था। जब शाजज लाठी दान तिप 7ए परठ अगर जा गर गएदों भेगया, तब सहालयाोकाी टस्सालाट 3 ला शा। 2 भागा जाना रिश्यी छवर नछे गये थे। सुदल्लेटोलिजे दस मच आदगी सी एप दो दी मुखिया लेगर अपने शपने घर जा रहे थे

विश्वे०--लिेक्रिन रमा, असलर्म वह मदलिया बगश बर्मे* दिए नहीं यया था। रमेश सास मछठी छदा तर नहीं, रसलिए उसे सब सौझरी जरूरत भी नहीं | उसने तो सज्जूका तुम्हार पास सिफ का जानभेके लिए ज्ञेजा था कवि कपासडोगाके गठ तानाब्ने उसझा सी दिस्सा दे या नी सन

तुम्दीं चतलाओं बेटी, किय रे महसे फंसे निकल गया कि उसमे उसाया कोई हिस्सा नहीं है ! ॥॒ (€ रमा सिर क्ुकाकर चुप रहती हे )

विश्वे०--तुम तो नहीं जानती कि तुम्हारे प्रति उसके मनर्भे फझितनी भद्धा आर कितना विश्वास है, लेकिन सम अच्छी तरह जानती हूँ उस दिन इम- लीका पेड ऋटकर तुम दोनोंने आपसभमें बस्वारा कर लिया। गोपाल शुमा- इतेकी वातोकी ओर सी रमेशने कोई यान नहीं दिया आओऔर कहद्ा कवि प्रगर हमारा हिस्सा होगा, तो हमें मिल ही ज्ययगा | रमा ऊमसी सुझे। नहीं ठगेगी। लेकिन बेटी, कल जो किया है, उंससे . ..: सर एक बात तुमसे कह्ठे देती हूँ। धन सम्पत्तिका मुल्य चाहे कितना ही अधिक क्‍यों हो, लेकिन फिर भी इस मनुष्यके प्राणोक्रा सूल्य उससे कहीं अधिक देखो रमा. तुम कसी किसीकी बातोंमे आकर या किसी तरहके लोभभे पडकर उसे चारों

ओरसे आघात करके नष्ट कर देना इसमें जो कुछ गंवा चेंठोगी, वह फिर कभी मिलेगा

रसेश--( नेपथ्यसे ) ताईजी !

ज्हुश्म | पहला अंक 53

[ स्मेशके अन्दर आते ही रमा सिर कुकछाकर तिरछी होकर वेठ जाती है ।]

विश्ये०--इस दोपहरके समय एकाएक केसे चले आये बेटा ?

रमेश--विना दोपहरको आये तुम्हारे पास बेठनेका समय जो नहीं मिलता ताई तुम्हे वह तसे काम रहते हे | क्यो, हँसी क्यो ? अच्छा ताई जी, तुम्हे याद हे कि ठीक ऐसे ही दोपहरके समय लडकपनमें एक दिन ओँखों- में जल भर कर में तुमसे विदा हुआ था $ आज सी में उसी तरह बिदा होनेके लिए आया हूँ। लेकिन ताईजी, ऐसा मालूम होता हैं कि यह मेरी आखिरी विदाई होगी।

विश्वे०---गम रास बेटा, यह तुम क्‍या कहते हो आओ, भेरे पास आकर बेठो

[ स्मेश उसके पास बैठकर कुछ हँसता हे, लेकिन कोई उत्तर नहीं देता विश्वेश्वरी बहुत ही रनेहपूर्वक उसके सिर और पीठपर हाथ फेरने लगती है ।]

विश्वें ०--क्यों बेटा, क्या यहाँ तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती

रसमेश--ताईनी, मेरा पद्चोहमें पछा हुआ दाल-रोटीका शरीर है यह क्‍या इतनी जत्दी खराब हो सकता है ? नहीं लेकिन फिर सी मे यहा एऋ% दिन सी नहीं ठहर सकता यहाँ तो मानो मेरा दम ही घुटा जाता है

विश्वे०--तुम्दारा शरीर अस्वस्थ नहीं है, यह सुनकर मेरी जानमें जान आई त्रेटा, लेकिन यह तो तुम्हारी जन्म-भूमि है आखिर यहाँ तुम क्यों नहीं ठहर सकते *

रमश--यह में नहीं वतलाऊँगा | मे खूब अच्छी तरह समभता हैं. कि तुम सब जानती हो

विश्वे०--सव नहीं, तो कुछ जरूर जानती हूँ। लेकिन रमेश, सिफ इसीलिए ही में तुम्हें कहीं जाने दूँगी।

रमेश--.लेकिन ताईजी, मुश्किल तो यह है कि यहाँ कोई भी मुक्रे -नहीं चाहता !

विंश्वे०--सिर्फ लोगोंके चाहनेके कारण ही भागनेसे तो काम चलेगा “नहीं अभी जो तुम अपने दाल-रोटीवाले शरीरकी इतनी बड़ाई कर रहे थे, सो क्या खाली भागनेके कामका है ? हॉ, यट्ट तो बतलाओ, गोपाल गरुमाश्ता कहता था कि किसी रास्तेकी मरम्मतके लिए तुम चन्दा कर रहे थे। उसका चनया हुआ

रमेश---अच्छा, यही एक बात तुम्हें बतलाये देता हूँ ठुम जानती हो

हु० श्सा [ पाँच #* कि वह कौन-सा राह्ता हैं? वही जो डाक-खानेके सामनेसे होकर सीधा स्टेशन तक गया है। कोई पॉच वरस पहले वहुत जोरोंका पानी वरसनेस्ते बिगड़ गया था और अब बीचमें एक वहुत' वडा यड्ढा हो गया हैं। लोग देर फिसलनेसे गिर-गिरकर अपने हाथ पैर तोड़ लेते हैँ, लेकिन उसकी मरम्मत नहीं करते | सिफ वीसेक रुपयोका खरच हैं, लेकिन इसके लिए लगातार आउ-ठस दिनों तक घूमने पर धुझे आठ दस पेसे सी नहीं मिल कल रातको मे मधुकी दृकानके सामनेसे होकर रहा था। सुना कि कोई सब लोगोंको सना कर रहा है कि तुम लोग एक पेसा भी मत देना जो चरे-मर बढ़िया जूते पहनकर चलते हैं और दो पहियोवाली गाड़ीपर घूसते हैं, उन्हींको तो इसकी गरज है किसीके कुछ देने पर भी वे अपनी गरजसे आप वनवा-- देगे बस, खाली बाबू बाबू” कहकर उनकी पीठपर हाथ फेरते रहना चाहिए! विश्वे०--( हँसकर ) वे लोग ऐसा कहते है तो भश्या, करा दो सर-- स्मत दादाजीके ढेर रुपये तो तुम्हें मिले है , रमेश--( कुछ बिगडढकर ) लेकिन मे क्यो देने लगा £ अब तो सुझे. इसी बातका बहुत अधिक ढु.ख हो रहा है कि मैंने बिता समझे बूमके इतने रुपये स्कूलके लिए क्‍यों खरच कर दिये इस गॉवके किसी भी आदमीके: लिए कुछ भीं नहीं करना चाहिए। ये लोग इतने नीच हैं कि अगर इन्हे कुछ दान दिया जाय तो बेवकूफ समभझते हैं और अगर इनका सला किया' जाय तो समझते हैं कि अपनी गरजसे कर रहा है। इन्हे तो क्षमा करना भी अपराध है | समभते हैं कि इसने डरकर छोड दिया। ( विश्वेश्वरी हँसने लगती है ) रमेश--तुम हँसती हो ताईजी? - विश्वे ०--बेटा, से हँसू तो और क्या करूँ १--तो अब तुम नाराज होकर इन लोगोंको छोड़कर चले जाना चाहते हो रमेश अगर तुम यह, जानते होते कि ये लोग कितने दु खी, कितने दुबेल और कितने अज्ञान हैं तो इन लोगोंपर नाराज होनेमें तुम्हे आप ही लज्जा आती ( रमासे ) क्यों: चेसी, तुम तो तसीसे सिर क्ुकाये बैठी हो क्यो रमेश, क्या भाई-बहनमें: बोल-चाल मी नहीं है ह॒ |

रमा--( उसी प्रकार सिर कुकाये हुए ) ताईजी, में तो विरोध नहं# रखना चाहती रमेश

द्श्य ] पहला अंक ४१,२ रमेश--( चौककर ) हैं, क्या रमा हैं ! अकेली ही आई हो या अपनी मौसीकों सी साथ लाई हो विश्वे०--रमेश, यह तुम क्या कहते हो ! तुम लोगोंकी अच्छी तरह जान पहचान नहीं है, इसीलिए रसेश--बस ताईजी, साफ करो, इससे अधिक और जानने-पहचाननेका आशीर्वाद मत ढो छ»गर ये घर जाकर अपनी भोसीको यहाँ भैज दें' तो वह तुम्हें और मक्के दोनोक्ों चता जाय और तव घर जाय बाप रे बाप, भागता हैँ. विश्वे>--रमेश, जाओ मत पहले बात सुन लो रमेश_...( रुककर ) नहीं ताईजी, में सव सुन चुका हूँ। जो लोग मारे अहँ- कारक तुम्हे भी ठकराकर चलना चाहते हैँ, उन लोगोकी तरफसे तुम एक वात्त भी मत कहो | अगर तुम्हारा अपमान होगा, तो वह मु कसे नहीं सहा जायगा ' ( जल्‍्दीसे प्रस्थान ) र्मा--( विश्वेश्वरीकी ओर देखकर ओर रोकर ) क्यो ताईनी, यहे कलक सुकपर क्यों ठगाया जा रहा है कि मे तुम्हारा अपसान करनेके लिए - मौसीकी भेज देंगी ? विश्वे०--( रमाकी अपने पास खीवकर ) वेटी, उसने तुम्हें गलत समझा ; है | लेकिन जो सत्य है, उसे वह एक एक दिन अवश्य जान छेगा

4

वि

फ्ह्ला दम तारकेग्बरका रास्ता सर्य सिकछे असी थीडी ही ढर हुई है रसा पासके [ तारकंग्बरका रास्ता सूचक अभी थाडा हा दर हुई है | रसा पासके , 2 मल पु 5९ 5. कक ष््‌ >्प 5 हि झ्ः चानकऋ _++%--मम किसी तालसे स्तान करके गीले ऋपड़ पहने हुए काट रहा हूं। अचानक

स्मेशते उसका सामना हो जाता 6। वह एक बार निरा आचिल जाने खीज्लेकी चेष्ठा मरती है, लेकिव गीला कण्डा खींचा नहीं जाता तब वह जलल्‍्दीसे शाध्का भरा हुआ घडा जमीनपर रखकर गीली धोतीके नीचे दोनों हाथ छातीक्ते ऊपर रतकर कुछ कुककर खड़ी हो जाती ] रमा-आएप यहाँ केसे गये? रसेश--( एक ओर हटकर ) क्या आप सुझे पहचानती हे रमा-हों, पहचानती हूँ आप तारकेश्वर कब आये ? सेश--वस, अभी असी गाड़ीसे उतरा ढूँ। मेरे मामाके यहोंदी औरतें आनेको थी, लेकिन कोई आई नहीं रमा--यहाँ कहो ठहरे हैं ? रमेश-कहीं नहीं पहले कमी यहाँ आया नहीं हूँ। आजका दिन किसी तरह कहीं कहीं बिता ढेना होगा रहनेकी कोई जगह देँढ दूँगा रमा--साथसे भज्जू हे: रमेश--नहीं, में अक्वेला ही आया हैँ रसा--अच्छी बात है। (इतना कहकर ओर कुछ हँसकर रमा जब जरा मुँह उठाती है तब अचानक फिर दोनोकी चार ओखें हो जाती हैं। बह मेंह नीचा करके मन ही सन कुछ संकुचित होकर कहती है--) अच्छा तो आप मेरे ही साथ आइए [इत्तना कहकर वह जसीनपरसे घड़ा उठा लेती है और अग्रसर होना चाहती है ] रमेश--में चल तो सकता हूँ, क्योकि अगर चलनेमें दोष होता तो आप कमी घुलाती | यह बात भी नहीं है कि में आपको - पहचानता होऊँ, लेकिन किसी सी तरह याद नहीं कर पाता यही खयाल होता है कि कसी स्वप्नमें आपको देखा है। आप अपना परिचय तो दें

टेश्य | दूसरा अंक डे रमा--मेरें साथ आइए | मे रास्ता चलते चलते अपना परिचय दूँगी कुछ यह भी याद है कि स्वप्न कब देखा था ?

रमेश--नहीं क्या आपके साथ कोई अपना आदमी नहीं है £

रमा--नही, एक दासी है, मगर वह डेरेपर काम कर रही है और नौकर बाजार गया है। और फिर मैं तो प्रायः ही यहाँ आया करती हैँ यहॉकी राह गलो सब पहचानती हैँ

रमेश--लेकिन आप मुझे अपने साथ क्यो ले चल रही हैं £

रमा--न ले चढ़े तो आपको खाने पीनेक्रा बहुत कष्ट होगा रमेश--हआा करे इससे आपको क्‍या? रमा-- पुरुषोंकी और सब बाते तो सममकाई जा सकती हैं, सिर्फ यही बात नहीं सममाई जा सकती में रमा हैँ रमेश--रसा £ रमा--हाँ जिसके साथ परिचय होना भी आप घ्रणाकी वात समझते हैं, वही रमेश-- लेकिन मुझे! कहों ले जा रही हो £

रमा--डेस्पर वहाँ मौसी नहीं है आप दरिए नहीं, चलिए

[ दोनोका प्रस्थान इसके वाद तुरंत ही नीच लिखे व्यक्षियोका प्रवेश---- एक हज्जाम आता है और उसके पीछे जल्दी जल्दी एक और आदमी आता है जिसकी ढाढ़ी और मोछ वहुत बढ़ी हुई और सिरपर वाल भी बड़े चढ़े हैं थोड़ी-सी दाढ़ी छुरेसे वनी हुई हे | यह आदमी मन्नत पूरी करनेके लिए ठाकरजीके यहा अपने सिरके बाल और दादी ढेने आया है ।]

यात्री--( कुछ घवराहटसें ) हज्जास, हज्जाम ! तुम हज्जाम हो ? लो भइया, जरा मरी दाढ़ी तो बना दो जिससे जल्दी जाकर गोता लगाकर पूजा कर आऊँ यह वाबाका स्थान है, नहीं तो दो पैसेका भी काम नहीं है लो यह चबवनन्‍नी लो और जल्दीसे हजामत बना दो साढ़े वारहकी गाडीसे मुझे जाना है | घरमे लड़केक्ो फिर दो'दिनसे बुखार आने लगा है बनाओ, जल्दी बनाश्रो यहीं चेठ जाऊँ *

ज्ञाम--( हाथमें चवन्‍नी लेकर, खूब अच्छी तरह देखकर, कमरफमें खोंसकर और दो वार उस आदमीकी तरफ सिरसे पेरतक ठेखकर ) अरे : तुम्हारी दाढ़ी तो जूठी हो गई है !

हि.

[ पहला र॒ सिरके बाल

*2॥॥ यात्री--जूठों केसे ? ठेखते तर हो दाके लए दादा बढ़ाये हैं ! ये क्या हमारे हैं ? ये जठ केसे हो हज्जाम--( हाथसे दिखलाकर ) यह देखो, दाढ़ी बनाई हुई हू यह तो जूठी हो गई है यात्री--जूदी हो गई एक साले हृज़्जामने चबन्‍्नी हाथ्र्से ले ली और जरासा छरा फेकर कहा कि सालिककी चवन्‍नी ओर लाओं | मने पूछा कि मालिक कीन दे : तो असी अभी गहीमें सदा रपये जमा करके हुकम लिये रहा हूँ तब वह वोला कि अच्छा, तो फिर और कहीं चले जाओ। इरा तरह वह चबन्नी तो चली ही गई में व्रिगडकर चला आया। लों भश्या, जल्दीसे वना दो तुम्हारे मों वापका भला होगा हज्जाम--असी आठ आने पेसे ओर निकालो चार आने उसके और चार आता सालिकके यात्री--चार आने उसके और चार आने मालिकक्ेे ? तुम लोग क्या आदमीको पागल कर दोगे £ ल्ञाओ मेरी चवन्नी लोटा दो में जाकर उसीसे लनवा रूगा। हज्जाम--जाते हो तो जाओ मने क्या तुम्हे पकड़ रक्‍्खा है ? यात्री---( विगड़कर ) में कहता हैं मेरी चवन्नी फेर दो हज्ञाम--कैसी चवन्नी | इतनी देर तक दर-दस्तूर क्या यों ही हो गया ? यात्री-- फिर वही तू-तुकार करता है | हज्जाम--आया है वड़ा भारी पंडित कहींका ! समझ रख, थह तारकेश्वरका स्थान है। आंखे दिखलायगा तो गरदनियों खायगा | ठेखें तो सही कि कौन तेरी दाढ़ी बनाता है ! हि [ लड़कैका हाथ पकड़े हुए एक प्रौढ़ श्री आती हैं। उसका ऑचल पकड़े हुए सन्दिरके दो कमंचारी सी जल्दी जल्दी आते है ] पहला कम ०--हैं, वाबाको ठगना ! अरी अमागिन तुझे और कोई ठगनेकी नहीं सिला ? खाली सवा रुपया मनोतीका ?

: औढा.-( कातर खरसे ) नहीं भश्या, से किसीको यती नहीं हें मैने

“सवा रुपयेकी ही मन्नत मानी थी, सो सवा रुपया दे द्यि।

3 है “भला बतला तो कि कब मन्नत सानी थी ? सडा--तोन बरस हुए, उसी वाढ़के समय गे भजया हुए, उसी वाढ़के समय।से सच कहती हूँ भश्या...

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्ह्श्य ] दूसरा अंक अप दूसरा कर्म०--सच कहती है झूठी कहींकी ! इधर तीन बरसमें घरमें और कोई बीमार ऊमार नहीं पड़ा ? फिर कमी मन्नत माननेकी जरूरत नहीं पड़ी ? शेसा कभी नहीं हो सकता रख तो अपनी छातीपर हाथ अच्छी तरह याद सर वाल-बच्चेवाली है यह कोई और देवता नहीं हैं स्वयं बावा तारकनाथ हैं प्रौद्धा--( बहुत डरकर ) भइया, शाप-वाप सत देना लो यह और

इक रुपया ... पहला कमें०--( हाथ बढ़ाकर और रुपया लेकर ) बश्च एक रुपयां £

कमसे कम और भी पॉच रुपयेकी मन्नत तूने मानी थी अच्छी तरह याद कर चचावाकी दयासे हम लोग सर बातें जान छेते हैँ हमें कोई ठग नही सकता दूसरा कमें०--दे दे पॉच रुपये ! वाल-बच्चेवाली ठहरी; क्यों बाबा- के कोपमें पड़ती है तेरे बच्चेका कल्याण हो दे, जल्दी दे डाल प्रौद्दा--( कुछ रोनी-सी होकर ) नहीं भइया, अब मेरे पास रुपये - नहीं हैं ।और रुपये कहोँसे लाऊँ? पहला कर्म०--अरे यह गलेमें सोनेका जन्तर जो है। इसे सराफके यहाँ : रखनेसे क्या पॉच रुपये भी नही मिलेंगे ! कहे तो आदमी साथ कर दें वह चुकान दिखला देगा | फिर किसी दिन आकर छुड़ाकर ले जाइयो [ एक स्लरीको घेरे हुए पॉच-सात मिखारिनोंका प्रवेश ] पहली सिखा०--े मां, तेरे बेटे-बेटियोका कल्याण हो दूसरी मिखा०--दे माँ तेरी लड़की और जेंवाईका कल्याण हो तीसरी मिखा०--दे माँ, तेरे बाप-मॉका, , , चौथी मिख[०--दे माँ, तेरे स्वामी और सुत्रका . [_ सब मिलकर धक्कम्रथक्का और खीचातानी करने लगती हैं | दाढ्वाला यात्री--वैं दाढ़ी और वाल नहीं देना चाहता और सनौती ज्सी नही उतारना चाहता मन्नतवाली प्रौढ़ा--अरे भइया, यह तो मेरे इश्देवका जन्तर है इसे . है कैसे बंधक रकक्‍खें मिखारियेंसे बिरी हुई कृ्व--अरे में तो छुट गई किसीने मेरी नगाँद ऋटके रुपये ही ले लिये ! भिखारिनिया--तेरे स्वामी और पुत्रका ऋम्याणु हो, दे दे मां, एक पैसा हे, एक अधेला दे

ड्द्‌ र्मा 5

सा को.

पहला ऋर्त ०--अरी साई, तू बाल-व चचेवाली हैं और यह वागका स्थान है

हझास--ठांडी वनवाओगगे :

कप 5 किक» हर यात्री--मै ठाढ़ी ब्नवाऊंगा : रहने दो, यह तारकदाथके लिर रहे घर जाता हैं ( अस्थाल

खारिनोंसे

हु लय ५-3 05- की जा ऊँगी दी हु अिद्ठीमे सिखारिनोसे घिरी हुईं ख्री--अरे अब से घर कैसे जाऊँगी . लिस सेरी गॉठ ही काट छी है ;

सिचखारच

( लड़केका हाथ पकड़े हुए जत्दीसे प्रस्थान ) पहला कमं०--एक रुण्येसे ज्यादा वसूल नहीं हो सका दूसरा कमे--अरे उस अभासिनीके पास और छुछ था ही नहीं। (प्रस्थान ) हजान---चलो, चार ही आने सही कही सिर

पठकनेपर सी तो चअआरः जाते नहीं मिलते ( अस्थान ).

ञ]

90,

कनिजजल खिल लक

इसरा दृह्य

आु

रसा--आप भी छूब है में जरा उधर रसोई

सानक लिए गह कि आप उठकर हाथ-चह घोकर

र्‌ तरह विछ्ोनेपर वेठे | ग्तलाइए, आफ उठ क्यो वें रमंशध--डरसे

रमा--डरसे ? किसके डरसे £ मेरे

उसपर रमेश वेठा है रमा घवराई हुई आती है | |

#

| इतना कहकर रमा पास ही वेठ जाती है ॥]

रसमंश--तुम्हारा मय तो था ही, पर साथ ही एक डर और भी था आज कुछ बुखार-सा मालूम हो रहा हे

रमा--उखार-सा सालूम हो रहा है ? आपने यह पहले ही क्यों नहीं कहा आप स्नान करके खानेके लिए क्या सममकर बैठ गये ये !

ईश्य | दूसरा अंक डक ' रमेश---विलकुल मामूली वात समझकर जो इतनी तैयारी करके और

इतने यत्नसे खिलावे, उसे यह कहकर निराश करना कहाँ तक सुनासिब हो सकता है कि में नहीं खार्ँगा ! सोचा कि बुखार आता है तो आने दो, दवा खानेप्ते अच्छा हो जायगा। तुम्हारी बनाई रसोई खाकर अगर यों ही रह जता, तो फिर उसकी पूर्ति इस जीवनमें हो सकती |

रमा--बस बस, रहने दीजिए इस परदढेसमें अगर सचमुच बुखार आए जाय तो भला आप ही बतलाइए कि कितना बुरा हो

रमेश--बुरा तो है ही, लेकिन जिस रानीको इतना-सा देख पाया हूँ, उसके हाथका भोजन करना भी क्या कम वुरा होता

रमा--इतने पर ही यह कहते हैं ! इस परदेसमें तो में कोई तैयारी कर ही नहीं सकी

रमेश--तैसारीकी वात सोचता ही कौन है सोचता हैँ केवल आदर ओर यत्नकी बात, भला यह में कहाँ पाता रमा--( लज्जित होकर ) क्या आपके यहाँ यत्न करनेवालोंकी कोई

ध्ृ

कमी है रमेश--भ ला, तुम्हीं वतलाओ कि इतना यत्न कहों पाता ! छुटपनमें

ही माँ मर गई इसके बाद ताईजीके पास कुछ दिन ही रहा और तब अपने मामाके घर वहुत दूर चला गया। मामी तो मर ही चुकी थी, इसलिए सारा घर होटलकी तरह था। वहोँसे पढ़नेके लिए इलाहाबाद गया वहाँ सी ' होटल ही नसीब हुआ इसके वाद गया इंजीनिअरिग कालेजमें वहाँ बहु दिनो तक रहना पड़ा, लेक्नि लड़कपनसे होटलमें रहनेका जो ढु भोगता रहा था, उसका फिर भी अन्त हुआ | अगर खाना हो तो खा लो। तो बाधा देनेवाला कोई शत्रु ही था और आगे बढ़ा देनेवाला कोई मिन्र। 4008 ( रमा चुप रहती है ) रमेश--शरीर ठीक नहीं है, इसलिए जी भरकर खा सका। तो सी ऐसा मालूम होता है कि मानों मेरे जीवनका यह पहला सुप्रभात है। इस जीवनकी सारी धारा मानो एक ही बारमें एकदम वदल गई रमा--( सिर नीचा किये हुए ) आप सव वातोंको इतना बढ़ा बढ़ाकर क्यों कह रहे हैं ! रमेश--अगर वढ़ानेकी शक्ति होती तो जरूर बढ़ाता। लेकिन वह नहीं है। - रमा--चलो, मेरे बड़े भाग्य हैं कि वह नहीं है, अन्यथा अधिक शक्ति होती ्ं

ड्ट८ श्मा | दूस्धरा तो शायद सुझे यहोँसे भाग जाना पड़ता और फिर यह भी मेरा बढ़ा भाग्य है कि घर लौटकर आप मेरी निन्दा करेंगे चारों तरफ लोगोंसे यद्द तो

- नहीं कहते फिरेंगे कि रमाने बुलाकर पेट-सर खानेको भी दिया

* स्ेश--वहीं, रानी, निन्‍्दा नहीं कर्रूगा और प्रशंसा भी नहीं करता फिलँँगा मेरा आजका दिन निन्‍्दा और प्रशंसा दोनोंके बाहर है। वास्तवर्मे खाने पीनेमे पेट भरने के सिवा और भी कुछ है, आजसे पहले यह मानो में जानता ही था

-... रसा--आज ही-पहले-पहल सालूध हुआ है

स्मेश--हाँ, आज ही मालूम हुआ है रमा--अम्ली इससे भी अधिक जाननेको बाकी है लेकिन उस दिन आप भुझे खबर भेज दीजिएया। रसेश---इसका मतलब : रसा--सब चातोका सतलब जानना ही होगा, इसका भी भला क्या मत- लब है ? अच्छा, सच तो कहिए कि आप मुझे बिलकुल हीं नहीं पहचान सके थे रेश---भला, तुम्हीं बतलाओ कि केसे पहचानता ? वही लड़कपनमें देखा 'था। उसके बाद लोटकर आनेपर तो मे तुम्हारा मुंह देख ही नहीं पाया जब जब देखनेकी चेष्टा की तब तब या तो तुमने भुंह फेर लिया और या फिर दूसरी तरफ देखने लगी तभी तो आज हठात्‌ जान पड़ा कि शायद यह मुख मैंने कभी स्वप्तमे देखा है ऐसा स्वप्न तो... रमा--अच्छा आप रातको क्या खाते हैं रमेश---जो कुछ मिल जाता है, वही। रमा---और यह तो बतलाइए कि आप इतने ला-परवाह ऊल-जलूल 'क्यो है सुनती हैँ कि इस वातका कोई ठिकाना नहीं रहता कि कब कौन-सी चीज कहाँ रहती है और कहाँ जाती है | मानो किसी चीजपर कोई साया- ममता है ही नहीं मानो सभी कुछ शत्यमें हृचता-उतराता रहता है - रमेश--मेरी इतनी निनन्‍्दा किससे सुनी £ रमा--यह जानकर आप क्‍या करेंगे क्‍या घर लौथकर उसके साय मगठा करेगे 2 रमश--क्या मे लोगाके साथ खाली झगड़ा ही करता फ़िरता हैं 2

न्श्य ] इसरः अक ६२ रमा>-यहीं तो करते हैँ जबसे आये हैं, तबसे मेरे साथ तो बराबर भआगड़ा ही कर रहे हैं| क्या मौसी ही घरकी मालिक हैं था मेंने उन्हें उंसखला दिया था कि जिससे उनके मना कर देने पर आपने मेरा मुँह तक डेखना बंद कर दिया ? तालकी मछलियों क्‍या मेने चुराई थी जो मेरे पास ब्ञापनें उसकी कफियत मॉगनेके किए आदमी भेज दिया £ रमेश--फेफियत तो नहीं माँगी थी, सिर्फ जवाब चाहा था। लेकिन उस ज्ववाबकी तो कोई अमर्यादा नहीं हुई, रानी रमा--नहीं हुईं केकिन अमर्यादा नहीं हुई इसीसे तो उसकी सारी अमर्यादाका भार मेरे सिर पड़ा है। क्या इसका भार में अनुभव नहीं करती या इस दरणडको नहीं समझती गॉव-भरमें अगर आपके खिलाफ कोई आदमी कुछ करेगा, तो क्या उसके लिए जवाबदेह में ही होऊँगी 2 क्‍या न्आंपकी सारी नाराजगी आकर मेरे ही सिर पड़ेगी ? मालूम होता छै कि आप 'परंडेससे यही न्याय सीखकर आये हैं। [ दासीका प्रवेश ] दासी--क्यों बहन, नठवर सब सामान बाँघे £ नहीं तो छः बजेकी साड़ी नहीं सिछेगी रमा--कुमुदा, इसके लिए आखिर इतनी जल्‍दी क्यों है ? दासी--बादल घिर आये हैं। मालूम होता है रातको बहुत पानी बरसेगा। रमा--बरसा करे। तुम लोग मेंदानमें थोड़े ही वैठी हो ।.,.., दासी---नहीं, उससे कह देती हूँ। [ प्रस्थान य] रमेश--शायद संभ्याकी गाड़ीसे तुम लोगोंका जानेका विचार है रमा--हाँ, और आपका ? रमेश--मेरा * मुझे तो जेसे-तेसे कलका दिन यहाँ बिताना ही पड़ेगा + रमा--एक तो आपका शरीर अच्छा नहीं है, तिसपर वरसातके दिन हैं। , , आखिर आप रहेंगे कहाँ १. ' रमेश--कहीं सी रह जाऊँगा। इतने लोग जो यहाँ पूजाके लिए आदे हैँ; आखिर वे भी तो कहीं ठहरते हैं ? रमा--उन लोगोके लिए तो जगह है। आप तो पूजा करने. आये नहीं है, तब आपको कोई क्यो ठहरने ढेगा

स्० श्मा [ दूसरए रमेश-...( हँंसकर ) क्या उनके चेहरेपर नाम लिखा रहता हे * रमा--[ हँसकर ) हाँ, लिखा रहता है भक्त लोग वावा तारकनाथकीः कृपासे उसे पढ़ सकते हैं और अ-भक्तोको दूर कर देते हैं आप विछीना- उछौना भी तो अपने साथ नहीं लाये हैं £ रमेश--नहीं विछोना उन लोगोंने लानेके लिए कहा था रसा--बहुत बढ़िया इन्तजास हैं! शरीर अच्छा नहीं हैं; आकाशम धादल छाते हुए हैं. साथम नौकर-चाकर नहीं दे. ओढ़ना है विछोना है, खाने-पीनेका कोई वन्दोवस्त है फिर भी किसी वातकी चिन्ताका जाम तक नहीं है | कौन, कव, कहोंसे आवेगा, उसीपर निभेर हैं बिलकुल परमहंसोंवाली अवस्था है आखिर आपकी यह हालत हुई केसे रसेश--जिसका कहीं कोई हो, उसकी अपने आप ही द्वो जाती है ।. रसा*-यही तो देख रहीं हूँ हो तो आज इसी सकानमें रह जाइए! रेश--लेकिन जिनका सकान है... रमा--उन्हे कोई उजर होगा वे ऐसे नाचीजोंपर बहुत दया करते हैं और ठहरने भी देते हैं रमेश---लेकिन रमा, तुम्हे यह विछीोना रख जाना होगा है रमा--हों+ टैख जाऊँगी लेकिन देखिए, लौटा दीजिएगा; कहीं खोः सत दीजिएगा रेश--विछौना केसे खोझँगा ? तुम मुझे जाने क्या समझती हो ! किसीने मेरे बारेमें तुम्हारा खयाल बिलकुल विगाड़ दिया है है रमा--( हँसकर ) और कौन खयाल 'विगाड़ेगा ? शायद मौसीने ही विगाड़ दिया है लेकिन वे यहाँ नहीं हैं, आप निभय होकर विश्राम कीजि- एगा तब तक में कुछ और काम-काज निवटा लेँ। [ जानेके लिए उठकर खड़ी होती है ।] रमेश--जिनका मकान हैं उनके साथ अगर परिचय होगा तो--- रमा--उनके साथ तो आपका वहुत छोटी अवस्थासे परिचय है चिन्ता

करनेकी कोई जरूरत नहीं है। लड़कपनमें जिसे रानी कहकर पुकारा करते थे. उसीका यह मकान है |

रमेश--यह तुम्हारा मकान है ? यहाँ सकात किस लिए :

डश्य | दुखरा अंक हो रमा--कहा तो कि यह जगह सुके बहुत अच्छी लगती है, इसीलिए में आयः यहोँ आया करती हैं स्मेश--ठाकुरजीपर तुम्हारी बहुत भक्ति है? रमा--इसे सक्कि नहीं कहते लेकिन जब तक जीती हूँ, तब पक कुछ चेप्ठा तो करनी द्वी होगी [ दासीका प्रवेश | दासी--बहन, पानी वरसना छ6 हो गया है, आज चलनेमें कष्ट होगा। स्मा--तो आज नहीं जायें नव्वरसे कह दो कि कल चलेंगे ढदासी--तब तो जान बची | लेकिन वात तो आज ही जानेकी थी। घरपर वे लोग फिकर करेंगे : रमा--कुसुढा, बीच बीचमें थोडी चिन्ता करना अच्छा होता हैं चल में आती हूँ। न्‍ ( दासीका प्रस्थान ) स्मेश--केवल मेरे ही कारण आज तुम्हारा जाना हो सका रमा--आपके कारण नहीं, आपकी बीमारीके कारण। मुंह देखनेसे ही अच्छी तरह मालूम हो रहा दे कि शायद इुखार आविगा इस अवस्थामें छोड़कर में जाऊँ भी कसे र्मेश--में तो तुम्द्वारा कोई नहीं हूँ रमा, बल्कि रास्तेका कट हैं. फिर भी एक गॉवके आदमीकी हैसियतले आज जो आदर यत्न तुम्हारे निकट याया दे, वह मुँहसे कहनेका नहीं है | रमा--तो फिर मत ही कहिए और दो दिन बाद यदि आप इसे भूल भी जायेंगे तो मैं इसकी शिकायत नहीं करूँगी। [समा फिर चलनेको तैयार होती हे ] रमेश--आशीर्वाद देता हूँ रमा, तुम सुखी रहो, दीश्ेजीवी हो रमा--( सहसा लौठकर और खदी होकर ) रमेश भइया, अब में सचमुच तुमसे नाराज हो जाऊँगी। मे हिन्दू विधवा हूँ मुझे दीवेजीवी द्वोनेके लिए ऋटना मानो मुझे शाप देना है हम लोगोंका कोई भी झभाकांक्षी कमी इस लरहका आशीर्वाद नहीं देता अब में जाती दूँ २. ## ( जल्दीसे प्रस्थान )

ज्र स्प्रा [ तीसरा: लीसरा दृश्य ; [ मादा रारता समय प्राय तीसरा पहर लगातार तीन दिन पानी बरसते रहनेके कारण ताल तलैयों और नाले आदि जलसे विलकुल'भरे हुए हैं रास्तेमें बहुत अधिक कीचड है। असी थोदी ही देर पहले वर्षा सकी है हाथमें छड्ी और छाता लिये हुए बेणी और गोविन्दका प्र्रेश ॥: दुर्गम रास्तेफे चिंह उसके सारे शरीरपर मौजूद हैं ।] योविन्द--( आइयसेंसे जोरसे ) में कहता हूँ कि आखिर इतना मुलाहजा किस वबातका ! बडे रिश्तेदार वनकर आये हैं कहनेके लिए कि बॉध काट दो आर पानी निकाल दो: नही तो खेत ड्रब जायेंगे छूबते हो तो डूब जायें गवू, समकमें ही नही आता कि इन नीच जातके लोगोका यह हौसला देखकर मे हेंसूँ या रोऊँ। वेणी---हों ठेखो तो चाचा ! इन किसान सालोंके सो बीघेके खेत डूब इसलिए कहते हैं पानी निकाल दो ! सामनेके तालका सालाना दो

से। रुपया जल-कर देना पढ़ता है पानी निकाल देनेपर क्‍या फ़िर उसमें एक भी मछली रह जायगी

गोवि०--मछली भला रह सकती है १-छुम साले नीच जातके लोग: हो कभ्नी एक साथ दो रुपयोंका भी तो मुँह नही देखा होगा जानते हो कि दो दो सौ रुपयोंका एक साथ चुकसान किसे कहते हैं? आदमी ते सब तैनात कर रकखे हैं लुक-छिपकर ये साले कहीसे कुछ काट-कूट तो नहीं: देंगे £ बड़े बावू, कुछ कहा नही जा सकता जानपर पड़नेपर ये साले सब कुछ कर सकते हैं वेणी--दरबान और गोपालको पहरा देनेके लिए मेज दिया है। उधर रमाके पीरपुरमें जो अकबर लठैत रहता है उसे और उसके दोनो लड़को; के पास सी खबर भेज दी है वे लोग सौ आदमियोंसे मोरचा ले सकते हैं। गोवि०--भश्या, तुमने यह ठीक किया | में तो चिलमपर तमाखू रख कर फूँक ही रहा था कि तुम्हारा नौकर जा पहुँचा। मैंने पूछा कि इस तरह पानीम भीगते हुए कैसे आया हरी £ उसने कहा कि बढ़े बावू आपको बुलातेः हैं। भइया, में क्ूठ नही कहूँगा, हाथका हुक्‍्का हाथमें ही रह गया, एक कश तक खीचनेका समय नही मिला तुरन्त छाता और छड़ी हाथमें लेकर जिकल पंढ़ा। तुम्हारी चाचीने कहा कि इस आँधी-पानीमें कहो जाते हो * मैने कहा-

ट्री

2

री

हश्य | दस्त अक जप

चुप, भी रहो। लगी फिर पीछेसे बुलाने |--देखती नहीं हो कि बड़े वाबूने घुलवा भेजा है.? फिर इसमें ऑधी कैसी और पानी केसा ?

वेणी---वाचा, ठुम तो जानते' ही हो कि में बिना तुमसे पूछे एक पेर भी आगे नहीं रखता जब मेरे पास रोने-बोनेसे कुछ नहीं हुआ तब सब साले गये छोटे बावूके यहाँ दरबारदारी करने | वह तो है बिलकुल बेल गँवार उसका क्या, कहीं कह बैठे कि हमारा नुकसान होता है तो होने दो, तुम लोग काट दो नँध !

सोवि०--कह सकता है| बढे बावू, वह हरामजादा सब कुछ कह सकता है ( कुछ धीमे स्वरसे ) में कहता हूँ कि स्माके पास तो ख़बर मेज , दी है न£ उस छोकरीका भी मिजाज सदा ठीक नहीं रहता गरीब दुखि: योंका रोना-धोना देखकर कहीं वह भी सम्मति दे बेठे !

घेणी--नहीं चाचा, उसका डर नहीं है उसे मैंने सबेरे ही समभका- कर दवा दिया हैं। कल रातसे ही कुछ कुछ काना-फूसी सन रहा था ! देखो, फिर कई साले इसी तरफ रहे हैं

[ कई कृपकॉका प्रवेश वे लोग सिरसे पैर तक पानी और ओर कीचड़मे लथपथ हैं ]

कुषकगण-- एक स्वससे ) दोहाई बड़े बावूकी ! गरीबोंकों बचाइए 4 अगर यह फसल सढ़ गई तो हमारे बाल-बच्चे भूखो मर जायेंगे

गोवि०--क्यों जी सनातन, तुम लोग छोटे बाबूके पास दौड़े गये थे £ अब बचाचे वे !

सनातन--गागुली महाराज, जो गये हैं वे गये हैं हम लोग तो इन्हीं चरखणोॉको जानते हैं और इन्हें ही पकढ़े रहेंगे हु

[ बेणी बाबूके पैरों पढ़कर रोने लगता है ।]

दूसरा कृषक--(वेणी बाबूके पेरों पढ़कर ) हम लोगोको बचाना चाहें तो बचावें और मारना चाहें तो मार ढाले हम आपके चरण नहीं छोड़ेंगे।

वेणी --[ जोरसे अपने पेर छुडाकर ) जाओ जाओ, हम अपने जलू-करके दो सौ रुपयोंका नुकसान नहीं कर सकेगे। चलो चाचा, हम, चलें। हमको

और भी काम हें [ वेणी और गोविन्द चलनेके लिए तैयार होते हैं |

'कृषकगण---बढ़े बाबू, गांगुली महाराज, तो क्‍या सचमुच हम लोग मारे जायेंगे ही

के

हि य्मा [ चौथा

गोविन्द--(लौटकर खड़े होकर कुछ भेद बनाकर) हम क्या बारे कि मारे जाओगे या बचोगे ( दोनोंका प्रस्थान )

कषकगण--हे सगवाव्‌ : क्या सचमुच ही दुखियोंक्रों मार उ'लोगे? तुम ऊपर बैठे हुए सब कुछ देख रहे हो, फिर भी कुछ उपाय नहीं करोगे ?

( सबका जल्दीसे प्रस्थान ) 5९७ चाथा द्ह्द्य्‌

[ रमाके सक्ानका बाहरी हिस्सा। समय सन्व्या। ऑगनरमें एक ओर चंडी- मंडपका कुछ हिस्सा दिखाई ढेता है और दूसरी ओर तुलसीका छोटा-सा चौरा है। रसा सन्ध्याक्ा दीपक हाथमे लेकर धीरे धीरे आती है और तुलसीके चौरेके पास दीपक रखकर और गलेसे अचल डालकर प्रणाम करती है। उसी समय स्मेश हौलेसे आते है और उसके झुके हुए सिरके पास खड़े हो जाते हैं ।]

रमा--सिर उठाकर और अचानक रमेशको सामने देखकर आश्चर्यप्रवेक) हैं | आप कहोंसे ?

रसेश--रमा, मुझे एक बहुत जरूरी कामसे आना पड़ा है

रमा--( कुछ सुस्कराकर ) यह तो खूब आना है अगर कोई देख ले तो यही समझे कि सै दीपक जलाकर इतनी देर तक आपको ही प्रणाम कर रही थी ! भला, इस तरह आकर खड़े होना होता है ?

रमेश--रमा, मैं केवल तुम्हारे पास आया हूं

समा हँसकर ) यह तो मैं जानती हैँ और नहीं तो से कब्र कहती हूँ के आप मौसीके पास आये हें?

| इतना कहकर और दीपक हाथमें लेकर रमा खडी हो जाती है ]

रमा--कहिए, क्या आज्ञा है ... मेश--निश्चय ही तुम सब बातें सुन छुकी हो। पानी निकाल देनेके लिए में तुम्हारी राय लेने आया हैँ

रमा--मेरी राय ?

रमेश--हों, तुम्हारी राय- लेनेके लिए यहाँतक दौड़ा आया हूँ। रमा,

है च्य्न्च् जे हि... दुखियो हे हैं ०, मे अच्छी तरह जानता हूँ कि की इतनी बढ़ी विपृत्तिके समय तुम केभी ना' करोगी

न्ड्श्य ] दुसरा अक्ल ण्णु

रमा--पानी निकाल देना तो अवश्य उचिद है। लेकेन रमेश भइया,

यह काम होगा किस तरह : बड़े मइयाकी तो राय नहीं है। [ बेणी और गोविन्दका प्रवेश |

श्वेणी--नहीं, मेरी राय नहीं है और क्यों होने लगी ? तुम्हें यह सी खबर दे कि दो तीन.सौं रुपयोकी मछलियों निकल जायेगी ? यह रूपया क्‍या , किसान लोग दे दंगे * ;

स्मेश--किसान तो गरीब हैं, वे इतना रुपया कहोसे लावेंगे ? बढ़े भड्या, जरा आप इस मामलेको अच्छी तरह समझ देखे

ब्लेणी--सो ठेख लिया हे। लेकिन रमेश,यह बात तो सममम नहीं आती कि हम लोग आखिर अपने इतने रुपयोंका सुकसान क्यो करें ( गोविन्दसे ) चाचा, द्वेखा, हमारे भाई साहव इसी तरह जमीदारी करेंगे ! अरे रमेश भश्या, सबेरेसे -अब तक वे सब हरामजादे मेरे यहाँ ही पड़े हुए रो-गा रहे थे मे सब जानता हूँ में पूछता हैँ. कि क्या तुम्हारे यहाँ दरबान नहीं है! उसके पेरोंमें चमरौधा जूते नहीं हैं ? जाओ, अपने घर जाकर यही इन्तजाम करो! पानी आपसे आप निकल जायगा। (इतना कहकर गोविन्दके साथ मिलकर ही ही हवा हवा करके हँसने लगते हैं।)

रमेश--लेकिन बढ़े भइया, यह समम्त लीजिए कि अगर हमे तीनो आदमी अपने दो सौ रुपयोंका लुकसान बचानेके फेरमें रहेंगे तो उन शरीबोंका साल-भसरका अन्न मारा जायगा। चाहे जेसे हो उनका पॉँच-सात हुज्ञार रुपयोका चुकसान हो जायगा

बरणी--हो जायगा, तो हो जाने दो उनका चाह्दे पॉच हजा रका नुकसान हो और चाहे पचास हजारका, यहाँ' तो सारा सदर खोद डालनेपर भी “मंच पैसे बाहर नहीं निकलेंगे भइया, इस सालोंके लिए दो दो सी रुपये बिगाड़ डाले जायें |

रमेश--तो फिर ये लोग साल-भर खाययेंगे क्‍या £

चेणी--( हँसकर, सिर हिलाकर, शक्कर आर. अन्तमें स्थिर होकर ) खायेंगे क्‍या ? तुम देखना ये साले जमीन वन्धक्र रखकर हम ही लोगोके श्वास रुपये उधार, लेनेके लिए दौड़े आवेंगे। भइया, जरा अपना ' मिजाज :डुंढा रखकर काम करो | अपने जेठे किसी तरह जोड-जाइकर यह जो. थोड़ी- सी जूठन छोड़ गये हैं, सो हम लोगोको भी हाथ-पैर हिलाकर, जोड़-जाइकर खा-पीकर फिर अपने लद़के-बालोंके लिए रख जाना हैं वे लोग खँँयेगे

जद ण्सा [चौथा क्या ? उधार कऊू लक खार्येग | नहीं तो, इन सालाको फिर छोटी जात ज्यों कद्ा जाता हे £

सयोधि०--सइयाजी, यह तो ऋषियो-सुनिर्योका और शाह्नोका वाक्य है + यह कोई हसारी तुम्हारी वात तो नही हैं

रमेश---बडे सइया, जब आप निश्चय कर चुके हैं कि कुछ भी करेंगे तो फिर व्यथ बहस करनेमें कोई लास नहीं है

वेणी--नही, बिल्कुल नहीं। (रमासे ) रमा, ठुम्दारे पीरपुरवाले अकवरअली और उसके लड़कोंके पास खबर मेज दी गई है ( गोविन्दसे 9 चलो चाचा, जरा हम लोग उबर सी चलकर देख सुन आवे। सन्ध्या हो रही है।

गोविन्द--चलो सदइया, चलें

[ दोनोंका अस्थान ]

रेश--रमा, तुम अपनी सम्मति दे दो खाली उनके मंजूर करनेसे” ही इतना अन्याय नहीं हो सकता में असी जाकर बॉघ काटे देता हूँ।

रमा--लेकिन मछलियोंके रोक रखनेका क्‍या वंदोबस्त करेंगे?

रमेश--जल इतना अधिक है कि मछलियोंको रोकनेका -कोई बंदोवस्तः हो ही तही सकता यह हानि हम लोगोंकी वरदाश्त करनी ही पढ़ेंगी, नहों- तो सारा गाव मारा जायगा।

[ समा छुप रह जाती है।]

रमेश--तो फिर तुम्हारी अनुमति है ! हैं

रसा--नही, में इतने रुपयोका नुकसान नही उठा सकेगी इसके सिवा यह सम्पति मेरे भाईकी है। में तो उसकी असिभाविका मात्र हैं

रमेश--नही, में जानता हैं, इसमें आधी-सी सम्पत्ति तुम्हारी भी है।

रसा--सिफ नासके लिए पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि सारी सम्पत्ति यतीन्द्रको ही मिलेगी इसीलिए वे आधी सम्पत्ति मेरे नाम छिख-गये हैं

रमेश-- ( विनयपूरी स्व॒समें ) रमा, यह कितनेसे रुपयोंकी बात है? फिर तुम्हारी अवस्था और सबसे अच्छी है। ठुम्हारे लिए यह नुकसान नुकसान नही है। मैं श्राथना करता हैँ कि इसके लिए तुम इतने लोगोंको भूखों-

भत सारा में सच कहता हूँ कि मेने यह- स्वप्रमें सी नहीं सोचा था. कि तुम्ठा इतनी निष्ठुर हो सकोगी। - '

ह्श्य ] दूसरा अक ण्छ - रमा--अगर अपना हुकसान कर सकनेके कारण मैं निष्ठुर ठहरूँ, तो खेर, निष्ठुर ही सही और फिर अगर आपको इतनी ही दया है, तो आप स्वय ही इस हानिकी पूर्ति क्यो नहीं कर देते £ | . रमेश--रमा, मनुप्यकी परख तभी होती है जब रुपयोका मामला आकर पढ़ता है इसी जगह धोखा-घड़ी नहीं चलती यहीं मनुष्यका सच्चा स्वरूप दिखाई दे जाता है आज तुम्हारा भी वही सच्चा स्वरूप दिखाई पढ़ गया। लेकिन मेने कभी नहीं सोचा था कि तुम ऐसी हो. में समझता था कि तुम इनसे कही बढकर हो,--इनसे बहुत ऊपर हो | लेकिन तुम वैसी नहीं हो तुम्हे निष्ठुर कहना भी मूल है। तुम बहुत ही नीच, बहुत ही छोटी हो रमा--क्या कहा ? क्या हूँ ? रमेश--तुम वहुत ही हीन और नीच हो | तुमने यह बात अच्छी तरह समझ ली है कि 'इस समय में कितना अधिक व्याकुल हो रहा हूँ, और” इसीलिए तुम इस समय दुखियोंकी भूखके अज्ञको दाम मुझसे वसूल करना चाहती हो यह बात तो बड़े भइया भी अपने मुंहसे नहीं कह सके थे पुरुष होनेपर भी जो बात उनके सेंहसे नहीं निकल सकी, स्त्री होनेपर भी“ वह तुम्हारे मुंहसे अच्छी तरह निकल पडी श्रच्छा रमा, में आज तुमसे” एक बात कहे जाता हूँ कि इससे भी अधिक हानिकी पूर्ति म॒ कर सकता हूँ, लेकिन संसारमें जितने पाप हैं उन सबसे बढ़कर पाप है मलुष्यकी दयाके” ऊपर अत्याचार करना आज तुमने वही अत्याचार करके मुझसे रुपये वसूल करनेका जाल रचा है [ रमा विहल और हत-बुद्धिकी तरह चुपचाप देखती रहती है ] रमेश--यह ठीक है कि तुम लोग यह बात अच्छी तरह जानते हो कि : री दुबलता कहों है; लेकिन वहाँ निचोडनेसे आज एक बूँद भी रस नहीं : निकलेगा छेकिन में क्‍या करूँगा, सो भी तुम्हे बतलाये जाता हूँ। में अभी जाकर जबरदस्ती बॉघ काटे देता हूँ अगर तुम लोग मुझे रोक सको तो रोकनेकी चेष्टा कर देखो। [ रमेश चलने लगता है ।'रमा उसे पुकारती है ] : श्मा--जेरा सुनिए मेरे घरमें खड़े होकर आपने जो मेरा मनमाना अपमान किया, उसका तो कोई जवाब सें नहीं दूँगी। लेकिन यह काम, करनेकी आप कदापि चेष्टा करें

हर समा [ चौथा रसेश--क्यो ता करण, इतने अपमानके बाद सी आपके साथ कगड़ा करनेकी मेरी इच्छा नहीं होती और--- रसेश--और क्या : रसा--और--और शायद वहों अकवर सरदारका दल भी जा पहुँचा है। रमेश--मैं नहीं जानता कि तुम्हारे अकबर सरदारके दलमे कौन कौन हे और जानना सी-नहीं चाहता लडाई-फगढ़ा करना मैं पसन्द नहीं करता, लेकिन अब तुम्हारे सद्भावका सी मेरे निकट कोई मूल्य नहीं रह यया है | ( जल्दीसे प्रस्थान ) [ मौसीका प्रवेश ] भौसी--यहाँ जोर जोरसे कौन वोल रहा था गला तो कुछ पहचाना हुआ मालूम होता है। रमा--कोई नहीं सौसी--तो मैं क्‍या बिना किसीके वोले ही सुन रही थी सन्ध्याका दीपक जलाकर पूजा करने बैठी थी ऐसा मालूम हुआ कि कोई सॉड़ दहाड़ रहा है। सुझे पूजा छोड़कर आना पडा रमा--वह चला गया तुम फिर जाकर पूजामें बेठ जाओ ( नेपथ्यकी ओर ) छम्रदा ! [ दासीका प्रवेश ] ऊमुदा--क्या है बहन रमा--मैं जरा ताईजीके यहें जाऊँगी। मेरे साथ चलो भौसी---इस समय वहाँ किस लिए जाती हो ? ५. भा>“देखों मौसी, सभी कुछ ठम्हें जानना-होगा इसका कुछ अर्थ नहीं हैं चलो कुमुदा दुमुदा--चलो बहन। ( दोनोंका श्रस्थान-) मौसी--अरे बाप रे| जैसे मार ही बैठेगी। गर लोगोने तारकेश्वरका हाल * सुना होता |--और से इसीके लिए लोयोके साथ कगड़ाकर करके मरती हैं ! - अस्थान ) [ बैणी, गोविन्द, घायल अकबर और उसके दोनों लड़के यौहर और डउसमान जअचेश करते हैं ]

द्श्य ] दुखसरा अंक है

अकवर --( सँटीके सहारे वठ जाता है। उसम्रका सारा मुँह खनसे तर है )-या अल्लाह !

गौहर-- अपने सिरका खून हाथसे पोंछिकर ) क्‍यों अब्बा, क्‍या ज्यादा दरद मालुम होता है ?

अकबर या अल्लाह !

वेणी--मरी बात सुनो अकबर, थाने चली अगर सात बरसके

ले भेज दिया तो मे घोपाल-वंशका लड़का नहीं

, [ रमाक्रा प्रवेश

रसमा--हैं | तुम लोगोंका यह हाल किसने किया अकवर £ ( पास ही बैठ जाती है )

अकवर--६ शआाक्राशकी ओर हाथ उठाकर ) अल्लाहने |

चेणी--अल्लाह ! अल्लाह ! यहाँ बठकर अब्लाह अल्लाह ? करनेसे क्या होगा ? में कइता हैं कि थाने चलों। अगर में इसके बढलेमें दस बरसके लिए उसे जेल भेज दूँ तो--रमा, तुम छुप क्यो हो * इससे कहो कि मेरे साथ थाने चले

रमा--अकबर, तुम्दें किसने इस तरह जख्मी किया £

अकवर--छोटे वावृन बिटिया

रमा--यह भी कहीं हो सकता है अकवर * क्या अकेले छोटे बाबूने तुम तीनों बाप-वेटो को घायल कर दिया £ यह तो तीन सी आदमी भी नहीं कर सकते !

अकचर--यही तो हुआ तविटिया +--शावाश बावू | सचमुच तुमने अपनी मॉका दथ पिया हें ! लाठी चलाना इसे कहते

गोवि०--अरे यही वात तो थानेमें चलकर कह ढेनेके लिए कहता हूँ तम किसकी लाठीसे घायल हुए ? छोटे वाबूकी या उस हरामजादे भजुआकी लाठीसे £

अकबर---उस ठिगने हिन्दुस्तानीकी लाठीसे ? वह लाठी चलाना क्या जाने ? क्यो रे गौहर, तेरी पहलीं ही चोटसे वह बेठ गया था £ गौहरने मुँइस कुछ नही कहा सिर्फ सिर हिला कर हॉ कर दिया। ] ऋबर---अगर मेरे हाथकी चोट वैठती तो वह वचता भी नहीं गौहरकी . ही वह ' बाप रे कहके बेंठ गया विटिया [ गौहर फिर सिर हिलाता है।] अकबर--विटियां, इसके वाद जब छोटे बाबू उसके हाथकी लाठी लेकर

मर समा [ चौथा चाँवपर जाकर अड़ गये तब हम तीनो बाप चेटे भीं उन्हें बहसि नहीं हटा यके ऑधेरेमें उनकी ओखें दाघकी ओखोंकी तरह चमकने लगीं उन्होंने कहा--अकपर, तू बूढ़ा आदउयी हे इसलिए खलनम हट जा ॥। असर बाँध नहीं काठा जायगा तो गॉव-भरके लोग भूखों सर जायेंगे, इसलिए इसे त्तो काटना ही होगा। आखिर तू सी तो खेती-बारी करता है, तेरे पास भी तो तेरे गाँव जमीन जायदाद है। जरा समझ देख कि अयर वह सब बरबाद इोने लगे तो तुझे कैसा मालूम हो मैंने सलाम करके कहा कि अल्लाहकी कसम छोटे बाबू, नुझ एक बार रास्ता छोड़ दो बिटिया रानीने हमें मेजा है और हम लोग अपनी जान लड़ा देना कबूल करके आये हैं तब उन्होंने चोक- कर पूछा कि क्या ठुम लोगोंको रमाने मेजा है; मुझे मारनेके लिए अकबर : मैने कहा कि छोटे बाबू, बोध काटना बन्द कर दो और घर जाओ, जिससे तुम्हारी आइमें जो ये लोग घडाधड़ कुदाल चला रहे हैं, में उन सबके सिर 'फोड़कर चला जाऊँ। देणी--बेई्मान साले उसे सलाम वजाकर यहाँ शेखी मार रहे हैं [ अकबर और उसके दोनो लड़के प्रतिवाद करनेके लिए हाथ उठाते हैं ] अकवर---खबरदार बंड़े बाबू ! 'बेईमान' मत कहना हम मुसलमानके लड़के और सब सह सकते हैं, मगर यह नहीं सह सकते ( हाथसे मुँहपरका खून पोंछकर ) देखती हो विटिया, ये हमें बेईंमान कहते हैं ! घरके भीतर चेठे हुए बेई्मान कह रहे हो बड़े बाबू, यदि अपनी आँखों देखते तो मालूम हो जाता कि छोटे बाबू क्या हैं वेणी--( मुँह चिढ़ाकर ) छोटे बावू क्या हैं “--यही चलकर थानेमें क्यो नहीं बतला आते £ कह ढेना कि हम लोग बॉधपर पहरा ढे रहे थे इतनेमे छोटे बाबू चढ आये और हम लोगोंको मारा अकवर--( जीभ काटकर )--तोवा तोबा ! क्‍या दिनको रात कहनेके “ईलए कहते हो बडे बावू १- हे तो है कछ कह देना आज रातको थानेमें चलकर दैखला आओ ऋल वारठ निकलवाकर एकदम हाजतमें

है कर देगा ।-रमा, जरा तुम सी इसे समकाओ न। फिर ऐसा सौका” और कमी नहीं मिलेगा

| रमा ुप रहती है और अकबरके मुंहकी ओर देखती है ]

7]

छद्य ] दूसरा अंक हैं अकबर--( सिर हिलाकर ) नहीं विटिया, यह मुझसे नहीं होगा। * ।.. बेणी-न कड़ककर ) क्यों, होगा क्‍्यी नहीं भला अकवर--( कुछ स्वस्से ) आप भी कैसी वाते करते हैं वड़े बादू ! क्या 'झुभम शरम-हया नहीं है $ क्या चार गॉवके आदमी सुमे सरदार नहीं कहते ! -बिटिया रानी, हुक्म दो तो में अपराधी चनकर जेल जा सकता हूँ, लेकिन -फरियाद करनेके लिए कौन-सा काला मुँह लेकर जाऊँ रमा--कक्‍्या तुम सचमुच थाने जा सकोगे अकबर : अकवर--नहीं बिटिया, मे ओर सब कुछ कर सकता हूं लेकिन थानेमे जाऋर अपनी चोट नहीं दिखला सकता उठो गौहर, चलो घर चलें हम ज्लोग नालिश-फरियाद नहीं कर सकेंगे। [ तीनों उठकर खड़े दो जाते हैं ओर चलना चाहते हैं | . - शोविन्द--बढ़े बाबू, ये लोग तो सचमुच ही चले जा रहे हैं। यह तो कुछ भी नही हुआ ! ब्रेणी--र्मा, इन्हें रोको | अगर यह अवसर द्वाथसे गंवा दिया तो “फिर नहीं मिलनेका [ रमा चुप रहकर सिर झुका लेती है। अकबर और उसके दोनों लड़के लाठी टेकते हुए किसी तरह बाहर चले जाते हैं घेणी-- ओह, मेने सब समझ लिया! गोबि०---हैं. जो खुना गया था, मालूम होता है वह मूठ नहीं है ( दोनोंका जल्दीसे प्रस्थान ) रमा--स्मेश भइया, मेने तो स्वप्समें सी नही सोचा था कि ठुम यह कर सकते हो और तुममें इतनी शक्ति हे ! पी ५८४ 944 पाचवा ध्श्य [ गॉवका एक हिस्सा कई टूटे-फूटे मंदिरोंके भग्नावशेष दिखलाई झते हैं। सारा स्थान इच्तों, लताओ और गुल्मोंसे सरा हुआ है ऐसा मालूम व्लेता है कि इस तरफ कदाचित्‌ ही कोई आता जाता है ] हः : बेणी और गोविन्दका प्रवेश | ४. 9३ मोविं०---( चौकज्ञा होकर और इधर-उधर देखकर ) कोई साला यहाँ

६९ समा [ पॉचिर्वो भी कही छिपा हुआ सुनता हो। भइया, में तो जाल फेलारर श्रौर उसकी डोरी हाथ्में लेकर वेठा था, जरा-सा खींचा कि धड़ामसे गिर पढ़ा। ब्रेणी--काम तो हो गया £ गोबि०---और नहीं तो क्या भइया, भे तुम्दें यों ही हस जंगल घुला लाया हूँ (--अबे साले भेरव आचाये, तरी एक कोड्रीकी तो ताकत नहीं ओर तू जाता है हम लोगोके खिलाफ ? तचला है दूसरोंको बचाने अब पहले अपने वाप-टादाक़ी जमीन तो वचा ले ! जरा से भी ठेसें कि क्रिस तरह तू अपनी लठकीका व्याह करता है ! वेणी--तो क्या डटिंगरी हो गई? ' गोवि०--६ दोनों हाथोकी दर्सो डेगलियों ऊपर उठाकर ) एक हजारकी। लेकिन भशया, अब खाली वातोते काम चलेगा ,--आवो-आध होगा! वेणी--( बहुत ग्रसन्‍न होकर ) अरे चाचा, आधो-आध क्यों, वल्कि' दस आने और छ.- आने गोवि०--शावाश मेरे सइया, जोते रहो ! और -सिफे यही नहीं भइया, दुर्गा-यूजा रही है जरा अबकी वार यह भी देखना होगा कि यु मुकर्जी की लडकी इस वार अपने यहाँ दुर्गाकी स्थापना कैसे करती हैं! और फिर लोगोकी खूब अच्छी तरह यह भी दिखला दूँगा कि अगले फागुन वह अपने भाईका जनेऊ किस तरह करती है '--तब तो मेरा नान गोविंद गागुली वेणी-- तो फिर वह तारकेश्वरवाली घटना सच है ? गोवि०-- सच नही होगी ? वह साला नटवर क्या कुछ बतलाना चाहता था £ इनामका लोभ दिया, पीठपर हाथ फेरा, पुचक्रारा. लेकिन किसी तरह एकसे दो नहीं हुआ तब मैंने अपने पैरोकी धूल उसके सिरिपर लगाकर कहा कि भदया , चाहे तुम रमाके चाकर हो और चाहे जो कुछ हो, लेकिन हो तो श॒द्ध ही ।शूद्रके सिवा तो कुछ हो ही नहीं वाल-बच्चेवाल ठहरे ; ज्राह्मणके पैरोकी धूल तुम्हारे सिरपर है। अब अगर तुम झूठ बोलोंगे तो यद्द रात नही बीतने पायेगी और तुम्हें सॉप उस लेगा। वेणी--तब गोवि०--सालेका मुँह रुआसा हो गया। मैंने साहस दिखलाते हुए कहा- नटवर, अगर यह नौकरी छूट जायगी तो तुम्हें वहुतेरी नौकरियोँ मिल रहेंगी; ख्ेकिन जान चली जायगी तो फिर कम्ती मिलेगी तब उससे शुरूछे

-देश्य | दूसरा अंक ६३ आखिर तक सारा हाल कह दिया ।--शामकी छ: बजेकी गाढ़ीसे मालकिन घर नहीं सकी छोटे बाबू रात-भर वहीं रहे | खाना, पीना, हँसी-मजाक सभी कुछ होता रहा (--जाने दो, दूसरोकी चर्चा और निन्‍्दा करनेकी जरू- रत नहीं लेकिन हॉ, घटना विलकुल सही है

वेणी--देखा चाचा, उस दिन अकवरको किसी तरह थाने नहीं जाने दिया ! |

ग़ोवि०--भला जाने कैसे देती ! अरे भश्या, कहीं जाने दिया जाता हर॒गिज नहीं

वेणी--हैँ देखो, अंधेरा हो रहा है चलो चला जाय

गोवि०--चलो (सहसा वेणीका हाथ पकड़कर ) देखो भशइया, में कंदहे' रखता हैँ कि अगर भतीजा धधी जायदाद निकाल ले जायगा तो ठीक होगा इसके लिए सावधान रहना होगा ेु |

चेणी---चाचा, तुझ्त वेफिक रहो जब तक में जीता हूँ, तब तक ऐसा नहीं हो सकता

*.. शोवि०--इस वार रमाको हाठका हिस्सा छोड़ देनेको रास्ता मिलेगा, सो भी तुमसे कहे रखता हूँ बड़े वाबू छेकिंन अभी ये सव वांते दबाये रखना एकाएक कहीं जाहिर कर बैठना

वेणी--( कुछ सुरकराकर ) देखीं जायगा। ( दोनोंका अस्थान )

ठा दृश्य

[ स्मेशके घरका अन्त पुर बहुत रात वीत जानेपर भी रमेश अपने सोनेके कमरेमे बैठा हुआ छिख-पढ़ रहा है अकस्मात्‌ नेपथ्यमे किसीके रोनेका शब्द सुनाई पड़ता है और थोड़ी ही देर वाद गोपाल गुमाश्तेके गल्लेसे लिपटे हुए भैरव आचार्य खूब जोर जोरसे चिल्लाते हुए आते हैं रमेश घबराकर उठ खड़ा होता है ] मैरव--(रोते हुए) छोटे बाबू, में तो जान और साल दोनोंसे मारा गया।

रमेश--क्यों गुमाइताजी, कया वात है £ गोपाल--बाबूजी, काम खतम करके सोनेके लिए जा रहा था कि अचानक है

दे >क 5] [ छठा आचारयजी जाने कहसे दोड़े हुए आये आर भर गछस लिपट गये। ऊन तो ये गला ही छोठते हैं ओर इनका रोना ही बन्द होता हे रेश--आचायजी, क्या हुआ हैं भैरव--बाबूजी, मे तो विलकुल्त धरवाद हो गया अब तो मुझे लड़कों वच्चोके साथ पेड़-तले ही हऋावःर रहना पड़ेगा समेश--क्‍्यों, पेड-तले क्‍यों / मकान क्या हुआ £ भैरव--सकान कहों है? वह तो नीलाम हो गया उ्मेश--अभी सबेरे तक तो था, इसी बीच क्रिसने नीलाम करा लिया 4 सैरव--गोविन्द गांगुलीके चचिया ससुर कोई सनत्‌ मुकर्जी हैं, उन्होंने नीलास करा लिया है। ( जोरते रोने लगते हैं ) गोपाल--भरे, मेरा गला तो छोड़िए गवूजीसे सब बातें समझाकर कहिए,--किसने लिया और क्यों दिया | ख्वाहमख्वाह मुझे इस तरह जकडइकर रखनेसे क्‍या होगा ? छोड़िए भैरव--( गला छोड़कर ) एक हजार सतासी रुपये पाँच आने छः पाई, --बाबूजी, धव भी गया और प्राण भी गोपाल--रुपये उधार लिए थे सैरव--नहीं गुमाश्ताजी, एक पेसा भी नहीं बिलकुल झूठ है, दस्तावेज तक झूठा और जाली है। में तो कुछ सी नहीं जानता कि कब नालिश हुई, कब समनन्‍्स निकला, कब डिगरी हुईं और घर बार नीलाम हो गया कल इधर-उधरसे घुस-फुस सुनकर जब सदर गया तब पता चला कि अब बाल- चोंको लेकर मुझे; पेड़ तले रहना पड़ेगा एक हजार सतासी झुपये पॉनच आने छ. पाई--- रमेश--ऐसी बेढब बात तो कभी नहीं सुनी गुमाइताजों ! गोपाल--बावूजी, गॉव देहानसें ऐसा बहुत हुआ करता है जो लोग गरीब होते हैं उनपर जब बड़े आदमियोका कोप होता है, तब वे इसी तरह माल और जानसे मारे जाते हैं। यह सब वेणी गवू और यगांगलीकी कार- रतानी है आचायेजी शुरूसे ही हम लोगोंकी तरफ हैं, इसीलिए उनपर यह विपत्ति आई है।

पु 8 जमाक्त भरव--हीं छोटे वाबू , यही वात है इसीलिए सुफपर यह विपत्ति आई है। रमेश--लेकिन गुमाइताजी, अब इसका उपाय

च्श्य | दूसरा अक ६५ सोपाल--यह बड़े खर्चेक्रा काम हे। यह कर भी क्ूठ है, सवूतत सी झूठ हैं और इसके गवाद भी मूछे हैँ | मालूम होता है कि और किसीने इनके 'नामसे समन्स ले लिया हे ओर उसीने अदालतमें जाकर यह भी बयान दे दिया हे कि मेने कम लिया है ।जब तक सदरमें जाकर सब बातोंका पुरा पूरा पता लगाया जाय, तब तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता रसेश--तो फिर आप जायें, सब बातोंका पता लगाएं और जितना खच हो, करके इसका प्रतिकार करें ऐसा यत्न करें कि जिसमें आगेसे किसीको इतना बडा अत्याचार करनेका साइस हो भैरब--( अचानक रमेशके पैर पकडकर ) बाबूजी, आप चिरंजीवी हों। श्रन, पुत्र और लक्ष्मी प्राप्त करके आप राजा हों सगवान आपको... रमेश---( पैर छुड़ाकर )आचार्यजी, अब आप घर जायें ।जो कुछ करना मनासित्र होगा, वह में अवइय करूँगा भैरव---भगवान आपको--- रमेश--आचारयजी, रात बहुत हो गई है।न्राज से बहुत थका हुआ हैँ। जअैरव--भगवान आपको दीघजीवी करें। भगवान आपको राजा करें-- ( प्रस्थान ) स्मेश--(ठंढी सॉस लेकर) गुमाश्ताजी, यही है हम लोगोके अभिमानका घन ! यही है हमारे देशका शुद्ध, शान्त और न्यायनिष्ठ आमीग समाज्ञ ! गोपाल---जी हाँ, यही है सभी लोगोकों मालूम हो जायगा कि यह काम चेणी बाबूका है, सभी लोग आपसमें चुपचाप बातें भी करेंगे, लेकिन कोई खुलकर इस अत्याचारका पग्रतिवाद नहीं करेगा | उस बार गागुलीने अपनी 'विश्ववा बड़ी भौजाईको मारकर घरसे वाहर निक्राल दिया, लेकिन चकि चेणी बाबू उनके मददगार हैं, इसलिए सब लोग चुप बेठ रहे वह रो रोकर सब लोगोसे सारा हाल कहती फिरी सब लोगोंने यही जवाब दिया कि हम क्या करें $ अगवानसे कहो; वही इसका न्याय करेंगे रेश--उसके बाद ? गोपाल---उसके वाद वही गागुठी अब लोगोको जातिसे वाहर करते फिरते हैं। इस मरे हुए आमीण समाजसें इतना साहस नहीं कि इस 'बारेसे कुछ भी कह सके लेकिन मेने ही अपने लड़कपनमें देखा हे क्वितव ऐसी हालत नहीं -यी। विधवा वड़ी सौजाईपर हाथ छोड़कर कोई सहजमें छुटकारा नहीं पा

अन्कम्ना घा 0 आई द्‌ प्‌ कह] पड आई बिक आ० "है स्ृ से 9४ जज जनक कक, ह०छ धह ब्ड्ज्क दीया के श्र सकता था | उस समय समाज दड़ ढेता था ओर अपरादीका बह दट सिर ््कऋाकर रवीकिते बरचा पडता था

9856: पिर क्य आक् मांग सम का, हक अकाकक -के ल्‍्ण्-कुद.. पका गया डर स्ेश--ठो पिर क्या अद ग्रामोण समाज कुछ मी नर्टी रह गया £ सापाय--जा ऊल हे सांती अबसे आप यहां ऋाय हा. ता

ख्ही रहे डिलोकी कर 27700 5 07202: 700 हा रहे है जो णाहतादी रक्षा नहीं करता, जा दुच्धचियाग कंबल दुःख मार्यपर अब डा 5० मर हक कि 2 पक साजऊ ऋग्यकां कक कन्या आकमकन्+ जी स्पा हल मार्गपर टकेल देता है, उसीछो हम ल्यय जो समाज ऋटनेका महाणप करते है कुम्०- आई त्त ्ल्प दा ब्का लि नल, कर 8, घंह इस लोगाकों बरयागर ससातलकी ओर ही लिये जा रहा |

स्मेग क्ित गम पय्येसथय छा!

रेत (चकित होकर ) गशनाव्ताजी, थे सच बव्यत आपको मालूम फ़िससे हुई *

हो पल लक शा <>23. डर पा] ्फ भा र्तक »++++]

॥0गल्ू---अपने स्वनाय सालकला। आपने जां इस अमंय तक

2५१

है| उद्धार करने क्ा विचार क्या, सा यह झांक्त आपने कह सि पाई घह उन्हीं हॉकी हक दया हैं छोटे जबू, इस तरह गरीबी और विपन्नोका उदार करते हुए मेने

रमेश--( दोनो हाथोसे अपना मुंह ढेककर ) आह पिताजी '

योपाल--छोटे बाबू , रात प्राय समाप्त हो रही है, आप आराम करें '

रमेश से वोता है। आप भी घर जायें

[ गोपारू चला जाता है। रमेश सोनेकी तैयारी करता ही हे कि अचानकः द्रवाजेके पास किसीको देखकर चौंक पढ़ता है ।]

रमेश--कौन * कौन खड़ा है !

[ यतीद दरवाजेमेसे अन्दर कॉंकता है ]

श्र

यतीरझ--छोटे भइया, में हूँ उसके पास पहुँचकर ) कौन, यतीन्द्र ? इतनी रातको ? मुझे.

बुला रहे हो : यतीन्द्र---जी हॉ, आपहोको रेश--मुझे छोटे भइया' कहनेको तुमसे किसने कहा यर्तीन्द्र--जीजीने रमेश--रमाने ? क्या उन्होने तुम्हें कुछ कहनेके लिए भेजा है ? यतीन्द्र--नहीं जीजीने कहा कि मुझे अपने साथ छोटे सइयाके यहाँ ले चलो। वे सामने ही तो खडी हैं ( द्रवाजेसे बाहरु ठेखता है

्पछ

चश्य] दूसरा अंक ६७ रमेश--( घबराकर और आगे बढकर ) झर्ड मेरा यह कैसा सौसास्य है लेकिन मुझे घुलवाकर इतनी रातको आप ही क्यो चली आई ? आओ, अन्दर आओ हु [ समा बहुत ही संकुचित सावले अन्दर आती है और दरवाजेके पास ही जमीन पर बैठ जाती है। यतीन्द्र अपनी वहनके पास घैठना चाहता है। परन्ठ रमेश एक आराम-कुरसी खीचकर उसे उसपर लेटा ढेते हैं।] स्मा--अब रात वाकी नहीं है। सबेरा होना चाहता है। मैं सिर्फ एक सक्षा माँगने आई हूँ वतलाइए, देंगे स्ेश -मेरे पास भिक्षा मॉगनेके लिए आई हो * आश्रय ! कहो, क्या चाहती हो * रमा--( सिर ऊपर उठाकर और थोड़ी ढेर तक रमेशकी तरफ ढक छग्ा- कर देखनेके बाद ) पहले आप वचन दीजिए रमेश--( सिर दविलाकर ) नहीं, सो नहीं ठे सकता बिना झुछ पूछे चचन देनेकी जो शक्ति मुभमें थ्री रमा, वह तुमने स्वर्य अपने हाथोसे नष्ट कर दी हे। रमा--मैने नष्ट करदी है * रमेंश--हाँ, तुम्दीने तुम्हारे सिवा ससारमें यह शक्ति और किसीमें नही थी आज मे तुमसे एक सत्य वात कहूँगा रमा, इच्छा हो तो विश्वास करना और हो तो नकरता | हछेकिन वह चीज अगर मर गई होती और सदा के लिए विलकुल नष्ट हो गई होती, तो शायद यह बाते तुम्हे किसी दिन भी सुना सकता लेकिन आज हम दोनोमेंसे किसीकी भी लेश-सात्र हानि होनेकी सम्भावना नहीं है, इसीलिए आज प्रकट कर रहा हूँ कि उरू दिन तक भी मेरे पास ऐसा कुछ भी नही था जो तुम्हे हद सकता लेकिन जानती छ्ो कि क्यो £ रमा--( सिर दिलाकर ) नही। रमेश--लेकिन सुनकर नाराज से होना और लज्जित भी होना। समझ लेना कि यह कोई पुराने जमानेकी कहानी छुन रही दो। रमा, मैं तुमसे प्रेम करता था मैं समझता हैं कि जितना में तुम्हे चाहता था, उतना शायद कभी किसीने किसीकी चाह! होगा। लड़कपनमें मेँकि मुंदसे सुना था कि हम स्तोगोका व्याह होगा उसके बाद जिस दिन सब कुछ नष्ट हो गया, उस द्नि

है

छ्ट स्मः छठ ---इतने बरस बीत गये, फिर सी ऐसा मालूम होता हे कि बह ऋलकी बात है। [ रमेशके सुखी ओर देखकर रमा च्ण-सरके लिए सिहिर उठवी दे ओर फिर सिर कुकाकर स्तत्थ श्रौर निश्चल बठी रहती हे | रेश--तुम सोचती हो कि नुम्दें यह सारी कहानी सुनाना अन्याश्र सेरे सनमें यही सन्देंह्र था- और इसीलिए, उस दिन भी, जब तारकेबरस केवल एक दिनके आदर-सत्कारसे मेरे समरत जीवनती घारा चदल दी गईं, चुप ही रहा था यद्यपि उस दिन मेने कछ झरूहा नहीं था: लक्रिन, उस दिन मेरी उस नीखतामें जो व्यथा थी, उसे मापनेका मान-ठंइ शायद क्रेंवल अन्तर्थामी- के ही हाथमें है रमा-- असहिष्णु होकर ) जो उसके हाथमें हे, वह उसीके हाथमें रहने दो रमेश भइया रमेश--सो तो हैं ही रसा रमा--तो---तो---आज अपन ही मकानमे इस प्रकर मरा अपनान क्यो कर रहे हैं रेश---अपमान £ विलक॒ल नहीं। इसमे मान-अपमानकी कोई बात ही नही है जिन लोगोकी यह कहानी सुन रही हो वह रमा भी तुम पहले कभी नहीं थी और वह रमेश मी अब मे नही हे रमा--रमेश भइया, आप अपनी ही वात कहें रमाका हाल भे आपसे अधिक जानती हूँ रमेश---जो हो, मेरी वात सुनो। नहीं जानता कि क्यो, लेक्रिन उस दिना सेरा हृढ़ विश्वास हो गया था कि तुम चाहे जो कहो और चाहे जो करो. लेकिन मेरा अमंगल किसी तरह सहन कर सकोगी। शायद सोचा था कि वह जो लड़कपनमे तुमने एक दिन मुमसे प्रेम किया था और वह जो अपने हाथसे सेसी आंखे पोंछ दी थी, सो शायद आज भी तुम एकदमसे भूल नहीं सकी हो। इसी लिए निश्चय किया था कि बिना तुम्हे कोई बात जतलाये, केवल तुम्हारी छायामे वेठकर, अपने जीवनके समस्त कारये धीरे धीरे कर जाऊँगा ! लेकिन उस रातको जब मैंने खुद अकवरके मेहसे सुना कि तुमने स्वयं ही।--++ अरे यह क्या वाहर इतना हल्ला काहेका हो रहा है

[ जल्दीसे मोपालका अवेश ।] ग्रोपाल--छोटे वाबू !

अचानक रमाको देख कर स्तव्ध होकर रुक जाता है )

दर ] दूसरा अंक ६९

रमेश--क्‍्या हुआ है गुमाश्ताजी ? गोपाल---पुलिसवालोने आकर भजुआको गिरफ्तार कर लिया है रमेश--भजुआको किस लिए? गोपाल---उस दिनकी राधापुरकी डकैतीमें वह शामिल बतलाया जाता है रमेश--अच्छा, में आता हूँ आप वाहर चलें ( गोपालका प्रस्थान ) रमेश---यतीन्द्र सो गया है इसे सोने दो लेकिन तुम अब यहों क्षण- भर भी मत ठदरो खिड़कीके रास्तेते निकल जाओ पुलिस बिना तलाशी लिये नही मानेगी रमा---[खर्डी होकर भीत स्वरसे) स्वयं तुम्हारे लिए तो कोई भय नहीं है रमेश--कह नहीं कह सकता र॒सा। यह भी नहीं जानता कि मामला ऋकहों तक बढ गया है रमा--तुम्हें भी तो गिरफ्तार कर सकते हैं रमेश--हों, कर सकते है रसमा--जुल्म भी कर सकते हैं रमेश---यह भी असम्भव नही है। रसा-- सहसा रोकर ) रमेश भइया, में नही जाऊँगी। रमेश--( डरकर ) जाओयणी नही ! रमा--वे लोग तुम्हारा अपमान करेंगे, तुम्हारे ऊपर जुल्म करेंगे नही रमेश भइया, में किसी तरह नही जांऊँगी रमेश--(व्याकुल स्वरसे) छी छीः, तुम्हें यहाँ नही ठहरना चाहिए | क्या तुम पागल हो गई हो रानी (स्मेश हाथ पकड़कर जबरदस्ती उसे बाहर कर देते हैं उधरसे बहुतसे लोगोंके पेरोंकी आहट और हो-हल्ला अधिक स्पष्ट होने लगता है। )

6९ - तर्र आऋक पहला दृश्य [ विश्वेश्वरीका कमरा ताईजी ओर रमेश ] ताई--क्यो स्मेश, क्या अपने उस पीरपुरवाले नये स्कूलमें ही लगे रहते » दमारे स्कूलम पढ़ाने नहीं जाते ?

छः किलिक+ ०४

रेश--नहीं जहाँ परिश्रम व्यथ हो, जहाँ कोई किसीका भला देख

पु

००० जी

सकता हो, वहाँ मेहनत करने और जान लड़ानेमें कोई लाभ नहीं उलदे अण्ने ही शत्रु गढ़ जाते हैं इससे अच्छा तो यही है कि जिन सोगोंछा मंगल करनेकी चेष्टासे ठेशझछा सच्चा संगल हो सकता हे, उन्हीं सुसलमानों और छोटे जातिके हिन्दुओमे ही परिश्रम किया जाय ताई---यह तो कोई नई बात नहीं है रमेश आजतक संसारमें दूसरोंकी भलाई करनेका भार जिस किसीने अपने सिर लिया है, उसके शत्रुओंकी संख्या सदा बढ़ती ही रही है इस सयसे जो लोग पीछे हट जाते हैं उन्हींके दलमें अगर तुम भी मिल जाओगे तो फिर वेठा, केसे काम चलेगा 2 यह भारी ब्रोका भगवानने तुम्हींको उठानेके लिए [दिया है ओर तुम्हें ही इसे उठाकर चलना पढ़ेगा और क्यों रमेश, क्‍या तुस उन लोगोके हाथका पानी पीते हो £ रमेश--( हँसकर ) यह ठेखो, इसी वीच यह वात सी तुम्हारे कानोत्तक पहुँच गई ! लेकिन ताईजी, में तो तुम्हारा यह जाति-मेद सानता नहीं ! ताई---जाति-सेद नहीं मानते £ यह क्या कोई झूठी वात है ? या जाति- मेद कोई चीज़ ही नहीं है जो ठुस नहीं मानोगे रमेश--जाति-मेद है, यह तो मानता हूँ, लेकिन यह नहीं मानता कि कोई अच्छी चीज है इससे जाने कितने वैर-विरोध और कितनी हानियाँ होती हैँ मनुष्यको छोटा मानकर अपमान करनेका फल क्या तुम नहीं देखती ताईजी £ पाससें पेसा होनेके कारण उस दिन दारिका महाराजका प्रायरिचत्त

नहीं हो सक्रा। इसी कारण कोई उनका मत शरीर तक स्तर नहीं करना चाहता था। क्या तुम यह नहीं जानती

पहला दृश्य ] दीसर अक ७१

ताई--ज्ञानती हूँ, सब जानती हैँ | लेकिन इसका असल कारण जाति- “मेद नहीं है। इसका जो सबसे वड़ा कारण है, वह यही है. कि जिसे यथा “अरे कहते हैं और जो किसी समय यहाँ था, वह अब गॉंवोसे एकदम लुप्त हो गया है अब वच रहे हैं सिफे थोड़ेसे अथदीन आचारके कुसस्कार और हींसे उत्पन्न हुई व्यथकी दलवंदी। रमेश--क्या इसका कोई ग्रतिकार नहीं है ? ताई--है क्‍यों नहीं बेणा, इसका प्रतिकार केवल ज्ञान है जिस पथपर / सुमने पेर रक्खा हैं, केवल उसी पथसे इसका प्रतिकार हो सक्रता है इसीलिए सो बेठा, मे तुमसे बारबार कहती हूँ कि अपनी जन्मभूमिका परित्याग करके कहीं मत जाओ तुम्हारी ही तरह जो घरसे बाहर रहकर बड़े हुए हैं, वे यदि तम्हारी ही तरह लौटकर फिर अपने गॉवोंमें रहते और सब प्रकार- के सम्बन्ध तोडकर शहरोमें चले जाते, तो गॉवोकी इतनी.अधिक दुर्गति -न होती वे लोग कभी गोविन्दको सिर चढ़ाकर तुम्हे दूर भगाते। - रमेश--ताईजी, लेकिन दूर जानेमें तो म॒के कोई दुख नहीं है ताई---लेकिन, यही ठुख तो सबसे बढ़कर दु है रमेश परंतु यदि खुम इस तरह बीचमें ही सब कुछ छोड़कर चले जाओगे, त्तो बेठा, तुम्हारी यह जन्मभूमि तुम्दें कभी क्षमा करेगी रसेश--लेकिन ताईजी, जन्म-भूमि मेरी एककी ही तो है नहीं ? : ताई--एक तम्दारी ही क्या बेटा, केवल तुम्हारी ही भा है तुम देखते नहीं हो कि माता कभी अपने मेहसे अपनी सतानसे कुछ भी नहीं मॉगती इसलिए इतने लोगोंके रहते हुए भी किसीके कानोमें रोनेकी आवाज नहीं “बहुँची, लेकिन तुमने तो आते ही सुन ली रमेश--( थोडी देर तक सिर कुकाकर चुप रहनेके बाद ) ताईजी, में सुमसे एक बात पूछूँ ताईजी--कौन-सी बात ? रमेश--में तो तुम्हारा यह जाति-मेद मानता नहीं, लेक्रिन तुम तो मानती हो ताई-...तम नहीं मानते, इसलिए क्या में भी नहीं मार्चेंगी £ रमेश--किन्तु में तो सभीका छूआ खाता हैँ। मेरे हाथका छूआ ज्तो तम खा नही सकोगी ताईजी £

७२ स्पा [ पहला:

ताई--खा क्यों नही सकेगी £ तुम तो मेरे लब क्या ऐसे वैसे ? बहुत बढ लड़के क्या में त्ली होवर बात सुँहपर ला सकती हूँ

रेश--( कुकर ओर ताईके चरणोकी घूल अपने मध््तकपर लगाकर ) ताईजो, ठुम मुझे यही आशीर्वाद दो कि हुम्हें अच्छी तरह पहचान सक्ूँ

ताई--( उसकी ठोढ़ी पकड़कर और चूमकर ) बस बस, हो गया, हो गया। लेकिन अमी तक मेरा पूजा-पाठ नहीं हुआ है बेटा, क्या थोढी देर बैठ सकोगे

रमेश--नहीं ताईजी, मेरा स्कूल जानेका समय हो रहा है

ताई--अच्छा तो फिर जब समय मिले, तब्र आना

( समेश और ताईका प्रस्थान ) [ एक ओरसे रसाका ओर दूसरी ओरसे दासीका प्रवेश ]

स्मा--राधा, ताईजी कहाँ हैं ?

दासी--अभी अभी पूजा करने गई है ज्यादा देर नहीं लगेगी बहन... जरा बेठ जाओ *

[ वेणीका प्रवेश उसके आते ही दासी वहाँसे हट जाती है ]

वेणी --तुम्हें आते देखकर आया हैँ रमा, तुमसे बहुत-सी बाते करनी हैं। मो क्या पूजा करने गई हैं

रमा--हों, राधाने यही तो कहा

वेणी--अनेक दाव-पेंच सोचऋर कास करना होता है वहन, नहीं तो शत्रुकी दुरुस्त नहीं किया जा सकता। उस दिन भजुआ हाथमें लाठी लेकर अपने सालिकके हुक्मसे तुम्हारे घरपर सछलियाँ वसूल करनेके लिए चढ आया था, उसकी रिपोर्ट अगर तुम थानेमें लिखवा देती तो आज उस सालेकी इस तरह हाजतमें बन्द कराया जा सकता था * उसीके साथ अगर बहन, तुम दो-चार वाते और बढ़ाकर रमेशका नाम भी जोड़ देती |--लेकिन उस समय तो तुम लोगोमेंसे किसीने मेरी वात नहीं सुनी नही नहीं, तुम घबराओ नहो, तुम्हे वहों गवाही देनेके लिए नही जाना पड़ेगा और अगर जाना ही पड़े, तो क्या हजे है अगर जमीदारी सुरक्षित रखना है, तो पीछे हटनेसे काम नही चल सकता ।--और फिर रमेशने भी तो कष्ट देनेके लिए” हमारे दादाजीके लाखो रुपये बरबाद किये हैं पीरपुरमें स्कूल खोला है शक तो यों ही मुसलमान प्रजा जमीदारोकों मानना नहीं चाहती, तिसपर-

द्श्य | तीसरा अछ ७१

लिखना-पढ़ना सीख गई ठव तो फिर हम लोगोंका जमीवदारी रखना और - रखना बिलकुल बराबर हो जायगा यह बात में अमीसे कहे रखता हैँ रमा--अच्छा बड़े भशया, यदि धन-सम्पत्ति और जमींदारी नष्ट हो जायगी, तो उससे रवये स्मेश भइयाकी भी तो कम हानि होगी £ वेणी---( कुछ सोचकर ) हों लेकिन र॒मा, तुम नहीं जानती कि ऐसे माम- लोम॑ कोई अपनी हानिका विचार ही नहीं करता हम दोनोंके परेशान होनेसे ढी वह प्रसन्न होगा देख नहीं रही हो कि जबसे यहाँ आया है, तबसे किस तरह रुपये उड्य रहा है ? छोटी जातिके लोगोंम छोटे बाबू छोटे वाबू ' की धूम मच गई है लेकिन यह बहुत दिनोतक नहीं चल सकेगा यह जो तुमने उसे पुलिसकी नजरपर चढा दिया वहन, इसीसे उसका अन्त हो जायगा रमा--क्या रमेश भदयाकों इस बातका पता चलछ गया है कि मैमे- रिपोट लिखाई थी : वेणी--मुमे! ठीक तो नहीं मालूम, लेकिन उसे इसका पता लग तो : जरूर जायगा। भज्जूवाले सामलेम आखिर सब वातें खुलेगी या नहीं रमा--( कुछ देर तक चुप रहकर ) तो क्यो बडे भइया, आज-कल सब जगह सब लोगोके मुँहसे उन्हींका नाम सुनाई देता है £ वेणी--हों, एक तरहसे यह ठीक ही है लेकिन रमा, में सी उसे सहजमें नहीं छोर्डेंगा कोई स्वप्नमें भी इस वातका खयाल करे कि वह तो लिखा : पढ़ाकर सारी ग्रजाको वियाड दे और में जमीदार होकर चुपचाप बठा हुआ सब सहता रहेँ यह साला भेरव आचाये सजुआकी तरफसे गवाही देकर _ अब अपनी लडकीका व्याह केसे करता है, सो भी देखना है रमा--बढ़े भइया, आप कहते क्‍या हैं ? बेणी--क्या एक बार हिला डुलाकर देखना होगा : वह मेरे मुकावलेमे अदालतमें खडा होकर गवाही देगा, और फिर वाल-बच्चोंको लेकर इस गाँवमें रहेगा इसकी खबर मुक्के लेनी होगी ? और यह आचार्य तो कीगा मछली है बड़े बढे रोहू मच्छ भी तो है अब देखना है कि गोविन्द चाचा क्या कहते हैं। यहा डकैतियों तो होती ही रहती है अगर इस वार नौकरकों जेल : भेजवा सका, तो फिर सालिकको भेजनेमे सी ज्यादा जोर लगाना पड़ेगा। रमा--( बहुत ही विस्मयसे वेणीके सुृहकी ओर देखकर ) कहते क्या हो : बड़े भद्या, तुम रमेश भइयाको जेल भेजोगे £

हि र्मा | पहला

७5

वेणी--क्‍्यों ? क्या वह कोई पीर-पेगम्बर है हाथमे पाकर क्या उसे "यों ही छोड देना होगा * तुम केसी बातें करती हो ! र॒सा--[ कोमल स्वससे ) रसेण भइया अगर जेल गये, तो क्‍या यह हम लोगोके लिए कलंककी ब्रात होगी : वेणी---क्यो * कलक किस बातका : रजा- हैं तो वे हम ही लोगोके आत्मीय अगर हम लोग बचावेंगे तो सब त्येग हसपर ही थूकेगे वेणी--जो जैसा काम करेगा,वह वैसा फल भोगेगा, इसमें हम लोगोंका क्या रमा--रमेश सइया कोई चोरी-डकेती तो करते नही फिरते हैं वल्कि यह वात तो किसीसे छिपी नहीं है कि दूसरोकी सलाईके लिए वह अपना ही स्वेस्व लगा रह हैं उसके बाद हम लोगोको भी तो गॉवमे मुंह दिखलाना होगा ? वेणी--बहन, आखिर तुम्हे हो क्‍या गया है * रसा--गॉवके लोग चाहे मारे डरके हम लोगोके मेंहपर कुछ कहे, फिर भी पीठ पीछे तो कहेंगे ही त्तम कहोगे कि पीठ पीछे तो लोग राजाकी माको सी डाइन कहा करते हैं लेकिए भगवान तो हैं * अगर निरपराधको मूठ- लूठढ ढड दिलाया, तो भगवान तो किसी तरह नहीं छोड़ेगे ! वेणी--हायरी किस्मत ! अरे वह लौंडा ढेवी-ढेवता या भगवान झुछ मानता सी हैं? शिवाजीका मन्द्रि गिरता जा रहा है। उसकी मरम्मत करानेके लिए जब उसके पास आदमी भेजा, तव उसने उसे यह कहकर घरसे निकाल दिया कि जिन लोगोने तम्हे मेरे पास भेजा है. उनसे जाकर “कह दो कि व्यथेके कामीमे खचे करनेके लिए मेरे पास रुपये नहीं हैं। सुनो उसकी बात ! यह तो हुआ व्यथंका खर्च और कामका खच है छोटी जातके लोगोंके लिए स्कूल खोलना ! फिर व्राह्मणका लड़का होकर सी वह सन्ध्या- प्रजा आदि कुछ सी नहीं करता है और सुनता हैँ कि मुसलमानों तकके हाथका पानी पीता है ! बहन, उसने श्ेग्रेजीके चार पन्ने पढ़ लिये हैं, अब उसका कोई घरम-करमस रह गया है जरा सी नही ढंड उसका गया

[है £ सब लोग एक दिन देखेगे कि उसका सारा दंड जमा किया हुआ रक्खा था

हक |

[ रमा चुप रहती है ] वेणी--अब में जाता हूँ। समय मिला तो फिर एक बार तमसे भेंट करूंगा | बाहर शायद गोविन्द चाचा आकर बैठे होंगे

देश्य ] तीखरा अंक ज्णु रमा--म भी जाती हूँ बड़े भइया ( दोनोका प्रस्थान )

हित हं #5॥ मन नो

रमेश--राघा, राधा ! | दासीका प्रवेश ]

राधा--कण है छोटे वावू ?

रमेश--ताईजी प्रजा करके गई उस समय भें उनसे एक बात कहना भूल गया था

राधा--नहीं, अभी नहीं आईं बुला दूँ *

रमेश--नहीं नहीं, रहने दो उनसे कह देना कि में तीसरे पहर आऊँगा।

राघा--अच्छा |

[ जल्दीसे गोपालका प्रवेश |

रमेश--आप यहाँ केसे £

गोपाल --छोटे वाबू, राह देखनेका समय नहीं है। में आपको चारो तरफ दुँढता फिर रहा हैँ | सुना आपने सेरव आचायेका हाल * कुछ सुना कि उसने हम लोगोका कैसा सत्यानाश क्रिया है?

रमेश--कहें, नहीं तो !

गोपाल---जब मालिक स्वगे सिवारे, तब शोक और दु खमें सोचा कि और नही, अब शान्त रहूँगा। लेकिन नहीं होने दिया किन्तु छोटे वाबू, अब आप मुझे नही रोक सकेगे आचारयेको मे उसकी करनीका फल जरूर चखारऊँगा, जरूर चखाऊँगा | इश्चका बदला उससे छूँगा, लूँगा और लैँगा आज ही सदर जाता हूँ

रमेश--गुमाश्ताजी, बात क्या है * आखिर आचार्यने क्या किया है जो आप जेसे शानन्‍्त आदमी इतने उत्तेजित हो गये हैं £

गोपाल--आप पूछते है कि उसने क्या किया है ? नमक-हराम शैतान कहीका ! उसी समय मेरे मनसे आया था कि इसकी जमीन-जायदाद नीलाम होती है तो होने दो, हम लोग इस मामलेमे हाथ नही डालेंगे | लेकिन उसी समय डरा कि शायद स्वगमें बढ़े मालिक ढुःखी होगे। उनका स्वभाव तो जानता हूँ, इसीलिए आपको भी मना नहीं कर सका

रमेश--लेकिन गुमाइ्ताजी, फिर भी तो में कुछ नहीं समझा *

गोपाल---उस दिन में आपकी आज्ञाके अनुसार सदरमें जाकर उसकी

पु 6

शी य्मा

डिगरीके रुपये जमा करके मुकदमेंक्रा सब इन्तजाम ठीक करं आया, और शज असी अमी खबर मिली हे कि परसों भेरव आचायने स्वये जाकर अदालतमें दरख्वास्त ढे दी और वह सुक्रदमा उठा लिया देना उसने मंजूर कर लिया। रमेश--इसका सतलरूव £ गोपाल--इसका सतलवब थह है कि हम लोगोंने जो रुपये जमा किये थे थे सब गये हम लोगोके साथेपर खप्पर फो इकर अब तीनो आदमी हिस्सा बाद कर खायेगे गोविन्द गांगुली, बड़े बावू और वह खुद आप सुन नही रहे हूँ कि सवेरेसे ही आचायके दरवाजेपर रोशन चौकीकी सहनाई वज रही है £ धुम- घामसे नातीका अन्न-प्राशन होगा। उन्हीं रूपयोंसे ढेश-सरके ब्राह्मण फलाहार करेगे फिर सजा यह कि आपके लिए कोई स्थान नहीं है,--स्थान है गोबिन्द गागुद्वीके लिए। आपको कर दिया है उन लोगोंने जातिसे बाहर समेश--भैरव आचाये ? यह सब वह कर सका ? ल---कर क्थो नहीं सकेगा ? अब तो केवल यही जानना बाकी है कि छेहयतके आदमी कर क्या नही सकते अच्छा, अब में जाता हूँ रेश--जाइए से तो सिफ यह सोच रहा हैँ कि महापातकका ग्रयश्रित्त कैसे होगा? योपाल--मेरी गवाही है, अदालत खुली हुई है छोटे वावू, ने उसे सहजम नहीं छोड्टेंगा हे ( प्रस्थान ) रमेश--नहीं जानता कि कावून क्या कहता है यह सी नहीं जानता कि क्षतम्नताका कोई दराड अदालतमें मिलता हे या नहीं किन्तु वह रहने दो आज में रवय॑ अपने ऊपर यह भार लेता हूँ केवल सहते जाना ही संसारमें प्रमधम नहीं है ( प्रस्थान )

इसरा दृश्य

[ भरव आचार्यके मकानका बाहरी भाग दौहित्रका अन्न-प्राशन है, इसलिए बाहर दरवाजेपर मंगल-घट स्थापित हैं आमके पत्तोकी वन्दनवार चाहर टॉय दी गई हैं| ऑगनमें एक ओर रोशन-चौकी बजानेवालोंका दंल “ठा हुआ ह। सामने वरामदेमें गोविद गायुली और चेगी घोषाल आदि

हर

+ठ है काई इस रहा है, कोई तम्ध्गकू पी रहा है एक वैष्णव और उसकी

जज

इश्य ] तीसरा अंक ७७ जेष्णवी दोनों मिलकर कीत्तन कर रहे हैं और सब लोग आनन्दपूचक सुझ रहे हैँ गीत समाप्त होनेपर दीनू भद्टाचाय हुका रखकर वाहर जा रहे हैं इतनेमें ही रमेश वहाँ पहुँचते हैं। उन्हें देखनेसे ही पता चल जाता है के वे बहुत ही उत्तेजित हैं उनके अचानक पहुँचनेसे सभी लोग कुछ घबरा-से जाते हैँ रमेश---आचायजी कहां हैं £ नू--( पास पहुँचकर ) चलो भइया, चलो, घर लौट चलो तुमने अरब आचायका जो उपकार किया है, वह--उसका वाप भी करता खेकिन कोई उपाय भी तो नहीं हे सभी लोगोंको बाल-बच्चोंके साथ घर- गृहर्थी चलानी पड़ती हैं। अगर वह तुम्हें निमन्‍त्रण देने जाता त्ो,--सममक ये भइया, हाँ :--इसमें भेरवकी सी अधिक दोष नहीं दिया जा सकता सुम लोग जात-पॉत तो मानते ही नहीं हो | इसीलिए---मसममक गये भइया ! जो दिन बाद उसकी छोटी लड़कीका ब्याह होगा। वह भी बारह बरसकी हो गई 'है। उसे भी तो आखिर पार करना होगा ।--हम लोगोंके समाजका हाल तो जानते ही हो भइया--- रमेश--जी हॉ, मेने सब समझ लिया है। आप वतलाइए कि वह है कहों दीनू--है, है, घरमें ही है। छेकिन में उस व्राह्मणको भी कैसे दोष दूँ £ (सब लोगोंकी ओर देखकर) हम बडे-वूढोंकी परलोकका भी तो आखिर कुछ भव--- रमेश--हाँ , हाँ, सो तो ठीक हे लेकिन भेरव कहाँ है : [ भेरवका प्रवेश | मैरब--( विनयपूर्वक वेणी बावूसे ) ढेखिए बढ़े बाबू, आप लोगोंको 'पीछे कष्ट हो--- [अचानक रमेशको सामने ढेखकर वह वजाहतकी तरह स्तब्ध हो जाता है रमेश--( जल्दीसे आगे चढ़कर और जोरसे हाथ पकड़कर ) ऐसा क्यों किया ? आज सैं--- सैरव--घडें बाबू, गोविन्द गॉगुलीजी, देखिए एक वार -- रमेश--( जोरसे कटका देकर ) बढ़ें वाबू ओर गोवेन्द,--आइू में सभीको दिखा ईँगा | बोलो क्यो यह दास किया £ [ बेणी आदि सब जल्दीसे भाग जाते हैं +]

च््प्र स्सा [ दसर,

है झरे > द्क्र्‌ $. पाई,

आज न्श्प

भैरव रोकर ) अरे लक्ष्मी, जल्दी जा पुलिसमें उत्तर मार डाला रें-- स्मेश--खुप। वतठाओ किस लिए यह काम किया भेरव--अरे वाप रे ' मार डाला रे | रसेश--मार ही डालेगा आज तुम्दारा खून कर उार्लेगा, तसी घर जाकेगा [ यह कहकर वार वार झटके देने लगते है। लच्मी भी आकर जोर जोर- से रोने लगती हे इतनेम वहुत-से लोग जमा होकर चारो ओरसे ताकने झोकने लगते हैँ ] [ तेजीसे रमा का प्रवेश | रमा--( रमेशका हाथ पकड़ कर ) वस, हो गया अब छोच ठो रमेश-- क्यों सला : रस्मा--तुस इस आदसीपर हाथ छोडोंग : रमेश--आज में इसे किसी तरह छोडूगा ' रसा--( जोरसे हाथ छुडा कर ) इतने लोगोंके बीच तुम्हें तो लञ्म नहीं आती, लेकिन में तो सारे लजाके मरी जाती हूँ रमेश भइया। जाओ, घर जाओ। रमेश--(थोड़ी देर तक विहवल दृष्टि से उसकी ओर देखते रहकर) अच्छा। 'घर ही जाता हूँ। [ रमेश धीरे धीरे वहों से चले जाते हैं उनके जाने के वाद बेणी और गोविन्द आदि सभी पहुँचते हैं। भेरव जमीनपर वेठ कर और दोनो घुटनो के बीच में मुँह छिपा कर रोने लगता है ।] गोवि०--घरपर चढ़ आकर अधमरा कर गया रे! अब पहले यह राक हो कि इसका क्‍या बन्दोवस्त होना चाहिए वेणी--में सी तो यही कहता हैँ रसा--लेकिन बड़े भइया, इस तरफका दोष भी तो कुछ कन नहीं है और फिर ऐसा हुआ ही क्या है जिसके लिए कोई तूमार खड़ा किया जाय £ चेणी--कहती क्या हो रमा, यह क्या कोई मामूली बात हुईं हम सझ लोग होते तो वह इनका खून ही कर डालता ! * रसा--करना चाहते तो हम लोग रोक सी सकते बड़े भइया ! लक्ष्मी--तुस तो उनकी तरकसे बोलोगी ही रमा बहन ! तुम्हारे घरमें खसकर अगर कोई तुम्हारे वापको इस तरह मार डालता, तो तुम क्या करती £

| इृश्य ] तीसरा अड्ढ (७९, रमा--लक्ष्मी, मेरे बापमें और तुम्हारे वापमें बहुत फर्क है | यह तुलूना मत करो में किसीकी तरफसे वात नहीं कहती, भलेके लिए ही कहती हूँ। लद्धमी--ठीक है ! उसकी तरफसे झगड़ा करनेमें तुम्हें लज्जा नहीं आती बड़े आदमीकी लठकी हो, इस डरते कोई कुछ कहता नहीं है। नहीं तो कौन ऐसा है जिसने नही युना है ? तुम ही हो जो मुँह दिखलाती हो, ओर कोई होती तो गछेमें फॉसी लगाकर सर जाती ! चेणी--( लक्ष्मीसे ) लब्मी, तू चुप रह न! ठुके इन सब वातेंसे क्या मदलव लच्मी--मतलवब क्यो नहीं ? जिसके लिए वावूजीकों इतना दुःख उठाना पढो, उसीका पक्ष लेकर लडेगी ? अगर आज वाबूजी मर जाते तो रमा--( लश्नीसे )लक्ष्मी, उनके जेसे आदसीके हाथसे मरना भी बहुत बढ़े सौसाग्यकी बात हैं आज यदि मर जाते तो तुम्हारे वाप स्व जाते ! लच््मी--शायद इसीलिए, रमा वहन, ठुम भी मरी हो ! रमा--( थोड़ी ढेर चुपचाप उसके सुंहकी तरफ ठेखते रहकर मुँह फेर लेती हे ॥) किन्तु बात क्या है, तुम ही बतलाग् छ्डे भदया८! घेणी--में केमे जानें बहन, लोग जाने कितनी दातें कहा करते ह,-- उन सवपर ध्यान देनेसे तो काम नहीं चलता रमा-- लोग क्या कहते है £ चेणशी--कहते हैं, कहा करे लोगोके कहनेसे देहपर फफोछे नहीं पड़ते कहने दो | रसा--त॒म्हारी देहपर तो शायद्र क्रिसीस सी फफोले नहीं पड़ते, छेकिन सब लोगोकी ठेहपर तो गड़ेका चमड़ा नही दे लेक्रिन लोगोसे ये बातें कह: लाता कौन है ? तुम ! चेणी--मे रमा--हों, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं दुनियासे कोई ऐसा छुरा काम नहीं है, जो-तुमसे वचा हो जाल, फरेव, चोरी, घरमे आग लगाना, सभी : कुछ तो हो चुका है फिर यही क्यो वाकी रह जाय ? तुमर्स यह समभनेकी; शक्ति तो है नहीं कि स्त्रीके लिए इसमे वढकर सर्वेनाशकी और कोई वात * नही हो सकती लेकिन मैं पूछती हूँ क्रि आखिर किस लिए तुम यह शब्रुता

करते फिरते हो ? इस बदनामीके फेलानेमें तुम्हारा क्या लाभ हैं £ दि

हक ्शा्‌ [ तीयरा

हज

बेणी--सेरा क्या लास होगा ? अगर लोग तुम्हें रातकोी रमेशके घरसे निकलते हुए देखते है, तो इसमे में क्या कर सकता हू

रमा--इतने लोगोंके सामने “मे और सब बातें रहीं कहना चाहती, लेकिन ग्ड़े भइया, तुम यह सत समझता कि तुम्हारे मनका भाव में नहीं सममती। तुम अच्छी तरह समझ रक्खो कि मे रमा टू अगर मे मर्ूँगी तो तुग्हें भी जीता नहीं छोड़ जाऊँगी ( जन्दीते प्रस्थान )

गोवि०--०्ड़े वावू, यह हो क्या गया : तुम्हें सी आखे दिखला गई £ ओरत दोकर £ जीवनस ओखोंसे यह भी देखना पट़ेगा

वेणी--( अपना ललाट छूकर ) चाचा , इसमें और क्विसीका दोष नहीं है; दोप है केवल इसका। यह कलि-काल है और इसीका नाम काल-्साहात्म्य है। आज तक सिवा सलाईके कभी किसीकी कोई घुराई नहीं की, क्रिदीकी बुराईका विचार सी से मनमे नहीं ला सकता | संसारमें मेरी यह दक्शा नहीं होगी तो और क्रिसकी होगी £ विद्यासागरका क्‍या हुआ था? उनका हाल तो सुना है

गोवि०--क्यो, सुना क्यो नहीं है !

वेणी---बस बिलकुल वही वात है दोप और किसको दूँ? ( सेरवकी ओर संकेत करके ) अगर इनकी रक्षा करने जाता तोकोई बात ही होती लेकिन प्राण रहते सुकते यह हो नहीं सकता !

श्र लीसरा दृश्य [ स्थान--निजन गॉवका रास्ता रमेशका जल्दीसे प्रवेश | रमा आड- मेसे पुकारती है--रमेश भइया ! और दुरन्त ही सामने आकर खड़ी हो जाती है।] रमेश--रमा इतनी दूर इस खुनसान रास्तेमें तुम ? रमा--में जानती है कि पीरपुरके स्कूलका काम खत्स करके तुम रोज इसी रास्तेसे जाया करते हो रमेश--हाँ, जाता तो हूँ। लेकिन तुम आई क्‍यों ? रमा-छता था कि यहों तुम्दारा शरीर अच्छा नहीं रहता | अब कैसी तवियत है |

रमेश--अच्छी नही है रोज रातको ऐसा साजूम होता है कि घुस डे घुर शे आया है

च्द््श्य ] - ठीखरा अड्ढ - ८१ स्मा--तथ तो कुछ दिनोंके लिए बाहर घूम आना अच्छा हर 92 ०४५ 4 र्मेश--( हँसकर ) यह तो में भी सममता हूं सर्कित जाऊँ किस तरह £ रमा--हँसते हो £ कहोंगे कि हमे वहुतसे काम हैं लेकिन ऐसा कौन-सा काम है जो अपने शरीरसे बढ़कर हो रमेश--में यह नही कहता कि अपना शरीर बहुत छोटी चीन है।

पक

लेकिन आदमीको ऐसे काम भी होते हैं जो शरीरसे भी वढकर हैं पर रमा, यह तो तुम समझोगी नहीं। रमा--मैं समझना भी नहीं चाहती लेकिन तुम्हें और कही जाना ही - होगा गुमाइताजीसे कह जाना मैँ उनका सब काम-काज देखती रदेँगी। समेश--मेरा काम-काज तुम डेखोगी : रमा--क्यो, नहीं ढेख सकेँगी £ हे ..._ स्मेश-देख तो सकोगी ! शायद मेरी अपेक्षा भी अच्छी तरह देख >सकोगी लेकिन इसकी जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा विश्वास कैसे करूँगा . » रमा--स्मेश भइया, और लोग विश्वास नही कर सकते, लेकिन तुम कर सकोंगे अगर तुम कर सकोगे तो ससारसे विश्वास करनेकी बात ही उठ जायगी। तुम अपना यह सार सुझपर छोड़ जाओ स्मेश--( थोड़ी देर छुपचाप उसके मुँहकी ओर ठेखकर ) अच्छा सोचूँगा रमा--लेकिन सोचने समसनेका तो समय है नहीं। आज ही तुम्हे यहंसि कही और चले जाना होगा। नही जाओगे तो-- रमेश-...( फिर इसके मुंहकी ओर ठक्क लगाकर देखते हुए ) तुम्हारी चात-चीतके ढंगसे मालूम होता है कि अगर जाऊँगा तो विपत्ति आनेकी भावना है। अच्छा, अगर मैं चला ही जा तो इसमें तुम्हारा क्या लाभ है मुमे विपत्तिमे डालनेके लिए स्वयं तुमने भी तो कोई कम चेष्टा नही की है जो आज और एक विपत्तिसे सचेत करनेके लिए आईं हो £ वे संब घटनांये इतनी पुरानी नही हो गई है क्रि तुम्हे याद हों। वल्कि झुके साफ साफ बतला दो कि मेरे चले जानेसे स्वयं तुम्दे क्या फायदा होगा »+तोी शायद तुम्हारे लिए मे राजी सी हो जाऊ [ इस कठार 'आधघाततें रमाके चेहरेका रग बदल जाता है, लेकित ,फिर सी वह अपने आपको सैंसाल लेती है +.] '

| पे

स्मो पीसराः रमा+अच्छा, अब सें साफ़ साफ ही वतलाती हे तुम्हारे चले जाने- से मेरा लाभ तो कुछ भी चहा लेकिन जानंस ह्ाति हुत होगी सुझे रशावाहा ठेनी पड़ेगी >. 0 गवाही हे स्सेश--वस यही * सिर्फ इतनी ही वात £ लेकिन अगर गवाही दो तो-£ नें तो जनऊमे

५2

महामायाकी पूजामें मेरे यहाँ कोई आविया मेरे यतीस्कके जनेऊम कोई भोजन करेगा, व्रत-उपवास, धसे-कले,--नहीं

रमेश भइया, तम चले जाओ, में तुमसे ग्राथना करती हूँ कि चले जाओ यहाँ रहकर सुके सब तरहसे चौपट मत करो। तुम जाओ, इस देशसे चले

/

| रमेश--[ कुछ दर चुप रहकर )अच्छा, मे जाऊँगा। अपने शुरू किये चला जाऊँगा। लेकिन से स्वय॑ अपने आपको रमा--उत्तर नही है )अगर और कोई होता तो उत्तरकी कमी नहीं थी लेकिन रमेश सइया, एक वहुत ही क्षुद्र स्त्रीकी अखड स्वार्थ-परताका उत्तर तुम कहो स्वोज पाओगे ? तुन्हें निरुत्तर ही जाना होगा

रमेश--अच्छी वात है, ऐसा ही होगा लेकिन आज में नही जा सकझता।

रमा--सचम॒तर ही नहीं जा सकते !

रमेश--नही तुम्हारे साथ कौन आया हे, उसे ब॒ुछाओ

रना--मेर स'थ कोई नहीं है से अकेली ही आई हूँ।

रमेश--अकेली आई हो साहरास आइ ; रु

_ रमा--साहस यही कि से

नुमसे भेंट होगी तद फिर मे

अकेली

यह क्लेसी बात रे रा ऊअसी वात हें £ » अकेले

हर] > /० £+ रा

यह निश्चयपूर्वक जानती थी कि इस रास्तेमें

किस वातका डर्‌ £

.. रमश--वह अच्छा नहीं किया र्मा | ऋमसे कन अपनी दासीको साथ

आना चाहिए था। उस सुनसान रास्तेमे तुम्हें मुमासे सी तो डेरना उचित है ? न्मा--तुमसे भे तुमसे ड्टेगी

रमंश--आसिर नही क्यों टरोगी ?

रमा--- तिर हिलाकर ) नहीं, किसी तरह नहीं | रमेश भइया. तुम मे

धमाल हे पाल दि उप दा लेकिन 4 6 भू ह। छ्द दा 5 ता से सु लगी ॥कम तुमसे ड्रन चना छर द्‌ मु नम लर। दिस्माना -

हुब्पय >्मशपर प्ल्ध्य सनी अवहेला है है;

इ्श्य ] तीसरा - अंक हे रमा--हाँ, इतनी अवहेला है अभी कहते थे कि दासीको साथ छाकर अच्छा नहीं किया | लेकिन भे यह भी तो सुर्चें कि किस लिए लाती ? सोचा होंगा कि तुम्हारे हाथोसे वचनेके लिए में दासीकी शरण हूँगी? तो क्या वह तुम्हारे निकट रमाकी अपेक्षा बडी हो जायगी * [ रमेश चुपचाप उसके मुँहकी ओर देखते रहते हैं ] रमा--सकेरेकी वात याद नहीं है वहाँ आदमियोकी कसी नहीं थी। " 'लेकिन तुम्हारी उस सूर्तिको देखकर जब सब लोग भाग गये, तब सेरव आचार्यकी रक्ता किसने की ? इसी रसाने उस समय यदि किसी दासी या नौकरकी आवश्यकता नहीं हुईं, तो इस समय भी नहीं होगी बल्कि आजसे -तुम्हीं रमासे डरा करो और आज में यही कहनेके लिए आई थी। स्मेश--तब तो रमा, तुस व्यथ ही आई सोचा था कि केवल अपनी सलाईके लिए ही सुकसे चले जानेके लिए कह रही हो लेकिन जब ऐसा जहीं है, तब सचेत करनेका कोई प्रयोजन मुझे नहीं दिखाई देता रसा--रमेश भश्या, क्या संसारमें सभी प्रयोजन आंखों दिखाई ढेते हैं रमेश---जो नही दिखाई ढेता उसे मे स्वीकार नहीं करता। में जाता हूँ ( प्रस्थान ) रमा-( अकस्मात्‌ रोकर ) जो अन्या हो, उसे में किस तरह दिखलाएँ !

च्ब्र्‌ दा 2 ०- अ्चछ चछाधा अडू पघ्हद्धा दृश्य स्धाप्ज पजावाले ना हे अंश दर्गोकी प्रतिमा तो स्पद्ट [ स्थान--रमाक्े पूजावाले दालानका एक अंश दु्गोंकी प्रतिमा तो स्पष्ट [३] हक सन. 8 हल हा रु रखी चर नही दिखाई देती, लेकिन पूजाकी सारी सामग्री सामने रखी हे कप €ः समय--तीरुरा पहर इस समयका पूजाका काये समाप्त हो चुका है एक ओर र॒मा स्थिर भावसे बेठी है इतनेमें पर चर घरका कारिन्दा आता हैं | कारिन्दा--बविटिया, समय तो जा रहा है, लेकिन शूद्रोंमेंसे तो कोई आया

5

नहीं मे जरा चक्र लगाकर देख आऊँ ?

$

रमा कोई नहीं आया £ कार ०-- नहीं [ हाथ हुक्का लिये हुए वेणी घोषालका प्रवेश | ] ._वेणी-हिश्‌ ! इतना खाने-पीनेका सामात वरवाद करनेके लिए बैंठे हैं » जीटी जातिके लोग ! इनका इतना हौसला ! में इन सालोंको इसका मजा 'चखार्ऊया और जरूर चखाऊँगा। अगर इनका घर-वार उजढ़वा दूँ तो मैं--- [ वेणीके मुंहकी ओर देखकर रमा सिर्फ जरा हँस देती है, कुछ कहती नहीं ] _वैणी--नहीं नहीं, रमा यह हँसीकी बात नहीं है वढ़े भारी सर्वेनाशकी वात हैं। एक बार जब मुझे सालूम हो जायगा कि इसकी जडसें कौन है, तो उसे थों उखाड फेंकरंगा ये हरामजादे साले यह नहीं समझते कि जिसके जोरपर इतना नाच रहे हैं, वे रमेश वावू खुद इस समय जेलमें घानी चलाते हुए मरे जा रहे हैं। फिर ठुमके मारनेमें कितनी-सी देर लगेगी £ मैंने साफ अल कर दिया कि वह सैरव आचायेको मारनेके लिए घरपर चढ़ आया था और उसके हाथम इतनी वढ़ी भुजाडी थी। फिर कोई साला तो नहीं रोक सका £ रे में चाहूँ तो रातको दिन और दिनक्ले रात करके दिखला दूँ | अच्छा और थोड़ी देर तक देखता हूँ। उसके वाद, शास्त्रमें कह है,

यथा घमे जय शूद्र 5.“ ७“ - तथा जयः शूद्व होकर ब्राह्मयणके धर्म-क्में इस तरहकी' शरारत ! अच्छा--- ( प्रस्थान )

नी

पहला द्थ्य चीथा अडू ८५. [ विश्वेश्वरीका प्रवेश ] विशेखरी--रमा | रा--क्यों ताईजी:£ विश्वे०-- इस तरह चुपचाप वेठी हो बेटी ! देखकर कौन कहेगा कि आदमी है! ठीऋ जैसे किसीने सिद्टीकी मूरत गढ़ रक्‍्खी दे ।(घीर धीरे पास पहुँचकर झीर बठकर ) वह हँसी है ओर वह उल्लास है मानों कही बहुत दर चले गये हूं रमा- कुछ हँसकर ) इतनी देरतक घरके अन्दर क्या,कर रही थी ताईजी * विश्वे०--तुम्दारे यज्ञवालि घरमे तो काम-काज कम नहीं है बेटी, खाने- सीनेकी चीजोका तुसने पहाड लगा रक्‍खा है। रमा--लेकिन अबकी बार विलकुल व्ये हो रहा हे जान पड़ता है, एक भी क्रिसान मेरे घर सॉँका प्रसाढ लेनेके लिएन आवेगा। लेकिन ओऔर बरसोंका हाल तो तुम जानती हो ताईजी, इसी सप्तमीके दिन प्रजाकी भीड़को चीरकर घरके अन्दर आना मुश्किल होता था। विश्वे०--अब भी समय नहीं बीता है रमा | शायद सन्ध्याके वाद ही सब लोग आदें। रमा--नहीं ताईजी, नहीं आवेगे विश्वे०--सभी यही वात वह रहे हैं वेणी और गोविन्द क्रोधर्मे भरे हुए चारों तरफ घूम रहे हैं अन्दर तुम्हारी मौसीके गाछी-गलौजके मारे कान नहीं दिये जाते सिफ तुम्हारे सुंदसे ही मे कोई शिकायत नहीं सुन रही हैँ तो वह क्रोंध ही है और क्ञोभ तुम्हारी श्रोखोंकी तरफ देखनेसे तो मालूम होता है क्रि उनके नीचे रुलाईका समुद्र रुका हुआ है। बेदी, तुम किस रह इतनी बदल गई ? रमा--ताईजी, में कोध किसपर करूँ: प्रजाके ऊपर ? कया केवल गरीब हो के कारण ही उन्हें अपनी मानन्मर्यादाका वोध नहीं है? वे मेरी जैसी परापिष्ठाका अन्न क्यों अहण करने लगे £ ... विश्वे०--बेठी, भला तुम्हे पापिष्ठा कौन कह सकता है ? रमा--कहे भी तो अनुचित होगा वे लोग जानते हैं कि हम लोग उनकी नही चादते, हम लोग उनके कोई अपने नहीं हैँं। ताईजी, हमने उन्हें आदरपूर्वक तो बुलाया नही, जोरसे हुक्म-भर दे दिया है कि हमारे

<६ ण्मा [ पहला यहां खा जाओ फिर सी उनके आनेसे हम लोग नारे गुस्सेक्के पागल हुए जाते हैं लेकिन उन लोगोंको आदरका स्वाद मिल गया हे रमेश भब्याते उन लोगोको मालूम हो गण है कि प्रेम किसे कहते हैं उन लोगोंके उसी व्न्धको जब हम लोगोने झूठे सुकबनेनें फैसाजर और झूठी गवाहियाँ

ठेकर जेलमे बन्द्र करा दिया, तव ताईजी, वे यह दुःख भला छिस तरह भला सकते है £

विव्वे०--लेकिन बेटी, तम्तने तो गवाही द्दी रसा--सेंने झूठी गवाही नहीं दी ? उन्हें इस बातका पूरा विश्वास था कि ओर जो चाहे स्फूठ गेले, सयर मे कमी क्ृठ वोल सदूँगी लेकिन वोल तो

बा,

# ९)

सकी ! रुकी तो नहीं! आचार्यके कितने बड़े अपराध और कितनी बढ़ी कृतन्नतासे रमेश भइया आपेसे बाहर हो गये थे, यह तो जानती हूँ आर

यह भी जानती हैं कि उनके हाथम एक तिनका तक नही था तो सी अदालत खड़े होकर स्मरण सी नहीं कर सकी कि उनके हाथमें छुरी छुरा था या नहीं ! विरिवे ०---रसा--- रमा--ताईजी, तुम कहती थी कि से मूठ नहीं वोली | यहाँकी अदालतर्मे हलफ लेकर झूठ शाय द्मेने वोला हो, लेक्नि जिस अदालत हलफ नहीं जाती, उसके सामने पहुँचकर में क्या उत्तर दूँगी ? हे भगवान्‌, तुमने मुम्े पहले ही क्यो जानने दिया कि सत्यको छिपानेका इतन्ग बड़ा वोक होता है £ विश्वे०-लेकिन वेटी, से तुमसे कहे देती हैँ कि रमेशको सजा हो गई है, यह तो सत्य है, लेकिन उसका असंयल कभी नहीं होगा। रमा-“असमब्जल होगा केसे ताईंजी, जब कि आज सारे अमंगलका भार मेरे सिर पड़ा है 2 विश्वे०--अकेले तुम्दारे ही सिर नही पड़ा है बेटी, हम समीने मिलकर उसका हिस्सा वॉट लिया है | अत्याचारी ससाजके जिन कायरोंके दलने झूठी चदनामीका डर दिखलाकर तुम्हें छोटा वनाया है, इस पापके भारते आज उन लोगोंका सिर रास्तेकी धूलमें मिल गया है। में वेणीकी माँ हूं रमा, आज मेरा सिर धूलमें लोट रहा है उसे में कभी उठा सकूँगी। पी रमा--ऐसी वात मत कहों ताईजी लेंकिन मैंने क्या किया था जानती हो £ एक जन्य-शून्य अंधेरे रास्तेमें उनसे अकेलेमे सेंट करके समझाया था कि

तुम यहसि चले जाओ रमेश सइया, यहाँ मत रहो, चले जाओ परतु

ता

है

ये] रे था अंदर घ्प्फ उन्दोंन दिश्वाल नहीं किया और कहा कि मरे चले जानेसे तुम्हारा क्या लाभ दोगा मेरा लाम? से अचानक सारे व्यपाके मानो पागल हो गई कहा कि लाभ तो कुछ नहीं ६; लेफिन जानेसे मरी हानि वहत बड़ी होगी भेरे यहाँ मद्ममायाकी पूजामे कोई ने आयगा ओर मेरे यतीन्द्रके जनेऊमें कोई नहों खायगा तम यहाँ रहकर सुझे सब तरहसे वरबाद मत करो लेकिन इतना बड़ा झूठ मेने झहसि पाया ताईजी ? उन्होंने नाराज़ होकर कहा कि चस यही £ इतना ही ? तब तो इसके लिए अपना कास छोडकर मे किसी तरह ने जाऊंगा इस उपेक्षासे श॒ुब्ध होकर मेने सोचा कि तव हो जाने दो सजा विश्वास था कि यों ही ऊछ मामली-सा जुरमाना हो जायगा छेक्रिन वह सजा इस त्पमें मिलेगी, उनके रोग-शी्ण सुखकी ओर देखकर भी विचारकको द्ण नहीं आवेगी और वह उन्हें जेल भेज देया, यह बात तो में बहुत ही अड़े द॒ःस्वप्रम सी नही सोच सकती थी ताईजी विख््रे०--हां वेटी, यह मे जानती हे

रमा--सुना छि अदालतमे वे केवल मेरे ही मुखकी ओर देख रहे थे उनके गोपाल शुमार्तेने अपील करनी चाही; लेकिन उन्होंने कह दिया कि नहीं अगर सारा जीवन जेलमें ही बिताना पडे, तो वह भी अच्छा; लेकिन अपील करके छटना अच्छा नहीं | ताईजी, तुम्हीं वतलाओ कि मेरे लिए यह क्रितना बढ़ा दड है ? ,

विश्वे० --पर अब तो उसकी मियाद सी परी होना चाहती है। उसके ऋुटकर आनेमे अब ज्यादा देर नही है

रमा--उनसकी मसक्ति हो जायगी, लेकिन उनकी उस घोर छूणासे इस जीवनमें मेरी तो मुक्कि नहीं होगी

[ बद्ध सनातन हाजराकी लिए हुए वेणीका प्रवेश |

वेणी--यह हमारी तीन पीढ़ियोका आसामी है सामनेसे चला जा रहा आग, जब बुलाया तव कहीं घरके अन्द्र आया | क्यो रे सनातन, इतना अभिमान ऋबसे हो गया ? तुम्हारी यदनपर कया और एक नया सिर निकल आया है?

सनातन --दो सिर किसके धड़पर रहते हैं बाबू 2 जब आप जेसोंके ही नहीं रदते, तो फिर हम जैसे गरीबोंके केसे !

वेणी--क्या कहता है वे हरामजादे £ सनातन---बड़े बावू, दो सिर किसीके नहीं रहते, बस यही वात कह रहा

डूँ---और कुछ नहीं

८८ श्म्ा [ पहला , [गोविन्द यागुलीका प्रवेश |. || . गोवि०--हम लोग तो खाली यही देख रहे हैं कि तुम लोगोंका हौसला कितना बढ़ता जा रहा है ! माताका प्रसाद लेनेको सी तुम कोई नहीं आये ! भला वतलाओ तो क्यो नहीं आये £ सनातन---हँसकर) हम लोगोका हौसला क्या ! हमारा जो कुछ करना भा सो तो आप कर ही चुके उसे जाने दीजिए लेकिन चाहे माताका प्रसाद हो और चाहे जो कुछ हो, अब कोई कैवत्त किसी व्राह्मणके घर नहीं खायगा हम लोग तो केवल इसीकी चर्चा करते रहते हँ कि घरती-माता इतना बड़ा पाप किस तरह सह रही है ! ( ठंडी सॉस लेकर और रसाकी ओर देखकर ) वहन, जरा सावधान रहना पीरपुरके लडकोका दल बिलकुल ही पागल हो उठा हे। इसी बीचसे वह बढ़े वावृके मकानके चारो तरफ दो तीन चक्कर लगा गया है खैरियत यही हुई कि बड़े बाबूको कोई पा नहीं पाया ( वेणीकी ओर देखकर ) बडे बाबू, जरा सैंमलकर रहिएगा. रात-विरात बाहर सत निकलिएगा _[ वेणी कुछ कहा चाहते हैं, लेकिन सारे सयके उनके मेंहप्े बात नहीं निकलती ] रमा--श्निहपूरी स्वरसे ) सनातन, सालूम होता है कि छोटे वाबूके कारण ही तुम सच लोगोकी इतनी नाराजगी है ! सनातन--बहन, में म्रूठ बोलकर नरकमें नहीं जाऊँगा ठीक यही वात

- है। फिर भी पीरपुरके लछोगोका गुस्सा सबसे ज्यादा है। वे लोग छोटे बाबूकी : देवता सममते हैं रमा-- आनन्दसे सुख उज्ज्वल हो उठता है ) ऐसी बात है सनातन £ वेणी---( सनातनका हाथ पकड़कर ) सनातन, तुझे; दारोगाजीके सामके चल कर कहना होगा तू जो मेंगिगा वही दूँगा तू अपनी वह दो बीघा जमीन छुड़ा लेना चाहे तो वह भी छोड़ दूँगा। में -ठाकुरजीके सामने कसम खाता हूँ तू इस ब्राह्मणकी बात रख दे। हि | सनातन--बड़े बाबू, अब वह जमाना चला' गया,--अब वे दिन नहीं: रह गये छोटे बाबू सब कुछ उलट पुलट कर गये हैं गोवि०--तो ब्राह्मणकी वात नहीं मानेगा ? 20 0 सनातन-- सिर हिलाकर ) नहीं ।--गागुलीजी, कहूँगा तो तुम नाराज हो जाओगे किन्तु उस दिन पीरपुरवाले नये स्कूलके कमरेमें छोटे बाबूने :

द्श्य ] चीथा अक ; ८६ - कहा था कि गलेमें दो-चार सृत टाल छेमेसे “ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता महाराज भर काइई आजका ता हू नहीं, सब जानता हैं | जो कुछ तुम रते फिरते हो, वह क्या बाग्रणणाका काम है ? बहन, मे तुम्हँसे पूछता हूँ, तुम्हीं कह्द दो [समा चुपचाप सिर ऊूका लेती छे ] सनातद-- मनका क्रोध दवाकर ) ज्याद्तर तो करता हैं लडकोका दल इन दोनों गॉवोके जितने छोकरे हें, वे सब संध्याके बाद मो इलके घर जाकर इकट्ठे होते हैं और साफ साफ कहते फिरते हैं कि जमींदार हें तो छोटे वावू, ओर तो सब चोर और डाकू है। इसके सिवाय हम छोग मालगुजारी देंगे ओर रहेंगे. किसीसे डरेंग क्यो? अगर लोग ब्राद्यणोकी तरह रहें तो व्राह्यण हैं; और नहीं तो जैसे हम है, वैसे ही वे सी है वेणी--( आतंकसे परिपूर्ण होकर ) सनातन, तुम बतला सकते हो कि: सुकपर ही उन लोगोंकी इतनी नायर्जी क्यो है ? सनातन---बड़े वाबू, क्यो नहीं वतला सकता 2 यह तो सभी अच्छी त्तद जान गये हँ क्रि श्राप ही सारे अनर्थाकी जड वेणी भारे भयके चुप हो जाते है। अन्दरसे उनका कलेजा क्र घक्र करन लगता हैँ | विश्वे० --गागुलीजी, एक छोटे आदमीके मैँहसे इतनी हिमाकतकी वातें सुनकर भी तुम चुप हो रहे हो [ बेणी बाबू तिरद्ढी और श॒स्सेसे भरी नजरसे ठेखकर चुप रह जाते है ] गोवि०--हों, तो क्यो रे सनातन, विपिन मोडलके घरपर ही सब लोगों- का जमावढा होता है ? तू बतला सकता हे कि वहों वे सब क्या करते हैं?

'. सनातन--क्या करते हैँ सो नहीं जानता लेकिन महाराज, भला चाहते हो तो कोई और बुरी चाल मत सोचना उन सव छोटे-बड़ोने मिलक्रेर आप- : सैमें भाईचारा कायम कर लिया है सव एकन्मन और एक-प्राण हैं। छोटे वाबू- - को जेल हो जानेसे मारे गुस्सेके वारूद हो रहे हैं। उन लोगोके बीचर्मे पहुँचकर चकमक रगड़करः आग मत छुलगाने लग जाना बस, में आप लोगोंको होशि- -

यार किये जाता हैैं। * ' ( प्रस्थान ) [ सनातनके चले जानेपर सब लोग कुछ देर तक चुप रहते हैं ]

5

पा है स्पा | दूसरा व्रेणी--रमा. छुन लिया सब हांस £ [ स्‍सा कुछ इईसती हैं, काई उत्तर नहों देती उसकी हँसी देखकर वेणीके सारे शरीरमें आग-सी लग जाती है ]

बेणी--उस साले भैखके लिए ही इतना सव बखेड़ा हुआ है। अगर तुम वहाँ जाती और उसे छुड्डती तो यह सब छुछ सी होता खाता साला मार: तठुम्दारा क्या वियडता था

[ रमा फिर कुछ हँसती है, मगर उत्तर नहीं देती |

बरेणी---रमा, तुम तो हँसोंगी ही | तुम औरत ठहरी, तुम्हें घरसे बाहर तो निकलना नहीं पड़ता सगर बतलाओ कि हम लोग क्या करें £ अगर चे सचमुच ही किसी दिन हमारा सिर फोड़ दे तो क्या हो £ आरतरके साथ काम करनेसे यही तो दशा होती है

[ र॒सा चकित होकर केवल वेणीके सुखकी ओर देखती रहती है। ]

ब्रेणी--गोविन्द चाचा, चुपचाप बैठे रहनेसे कैसे कास चलेगा £ मेरे दरवान और नौकरको घुलूवा दो ! साथसे दो लालटेन भी लेते आदें।

गोवि०- आओ चलो, वाहर चलकर बुलबाता हूँ और फिर डर काहेका हे ? होगा तो में ही चलकर तुम्हें घर तक पहुँचा जाऊँया

( दोनोका प्रस्थान ) दूसरा दृश्य [ स्थात्त---एक रास्त( जगज्ञाथ और नरोत्तमका प्रवेश जगन्नाथके हाथमे एक वड़ी लाठी है )

नरोत्तम--बस यही रास्ता है इधरसे ही होकर जायगा जस्यू अब भी झहो, हिम्मत करोगे !

जगन्नाथ--भला हिम्मत होगी सजा भोगनेके लिए राजी होकर ही तो सज़ा ठेनेके लिए निकला द्वें। इसने वहुत दुख दिया हे। हुर्गा मेया ऐसा करो कि जिसमें आज एक काम-सा कास कर जांऊओऔर मेरा हाथ ऋपे नरोत्तम--क्ष्यों रे हाथ कॉपेगा जगन्नाथ--क्रप सकता है वाप-दादोंके समयसे मार खानेका अभ्यास

पटा हुआ है ! इसलिए अगर अन्त तक मेरा हाथ उठे, तो समझ लेना कि मेरे हाथका ही दोप है, मेरा नहीं

दृश्य | ' चोथा अंक ९१ नरोत्तम--अच्छा, तो फिर लाठी मेरे हाथमें ढे दो और तुम दूर खड़े : रहो जरामें देखूँ कि क्‍या कर सकता हूँ जगन्ताथ--.नरोत्तम, तुम ऐसी वात मत कहो तुम्हारे बाल-बच्चे है लेकिन मेरे कोई नही है यही मौका है। छोटे वाबू लौट आये तो फिर यह काम नहीं हो सकेगा वे रोक लेगे इसलिए उनके जेलसे निकलनेके पहले ही उनका बदला चुकाकर, मैं जेलके अन्दर चला जाऊँगा | तुम घर जाओ भरोत्तम--घर नही जाऊँगा, तुम्हारे पास ही रहेंगा , [ नरोत्तम कुछ दूर हटकर खड्शा हो जाता है दूसरी ओरसे वेणी, गोविन्द और दरवानका प्रवेश दरवानके हाथमें लालदेन है ] वेणी--( चौककर ) कौन खड़ा है रे * जगननाथ--में हूँ जगन्नाथ ।. _ गोवि०--रास्तेमें खड़ा होकर लॉगोकों मना कर रहा हैं जिसमें कोई खाने जाय ! क्यो वे हरामजादे * जगनज्ञाथ--गागुलीजी, गाली मत वकना, कहे देता दूँ ! . चेणी--गाली नहीं दूँगा हरामजादे साले, जानता है, कल ही तेरा घरवार उजाड़कर धान बोआ दूँगा ? जगज्नाथ--हों, जानता हूँ कि वहुतोका उजाड दिया है। लेकिन आज ऐसा वन्दोवरुत कर जाऊँगा कि फिर उजाड सको वेणी०--क्यों वे हरामजादे, कौन-सा वन्दोवस्त करेगा तू £ छू [ कुछ आगे वढ जाते हैं ] जगज्ञाथ--वस, यही बन्दोवस्त है | (वेणीके सिर॒पर जोरसे लब्ठ जमा देता है।) वेणी--( बैठ जाता है ) वाप रे ! मर गया | , (गोविन्द और दरबान चिल्लाकर जल्दीसे भाग जाते है ) चेणी--भदया जगन्नाथ, तुम्हारे पैरो पड़ता हूँ, त्रह्म-हत्या मत करो दुहाई भइया, तुम्हें दस बीचे जमीन दूँगा जगन्नाथ---मुमे तुम्हारी जमीन नही चाहिंए, वह अपने पास ही रक्‍्खो

में ब्रह्म-हत्या भी नहीं करूँगा और मेरा वाप-बेटाका सम्बन्ध प्णी--जगज्नाथ, आजसे तुम्दारा और मेरा वाप-बेठाका सम्बन्ध हुआ तुम जो मॉगोगे वही---

समा | [ तीसरा जगन्नाथ--में कुछ मही चाहता लेकिन वाप-बेटेका सम्बन्ध और तुम्हारे साथ : राम राम ! बड़े बाबू, ठुम्हें फिर होशियार किये देता हूँ कि यह मार ही आखिरी मार नही है. हम लोगोंने मालिक समझकर और ब्राह्मण . समझ कर जितना ही सहा है, उतना ही तुम्हारा अत्याचार बढता गया है। अब हम नहीं सहेगे। ढेखता हूँ कि तुम लोग सीधे होते हो या नही। ( प्रस्थान ) ब्रेणी--वाप दे ! सर गया रे ! सब साले भाग गये रे ! [ गोविन्द और दरबानका अवेश | सोवि०--( हॉफले हुए ) सागने क्यो लगा सइ्या, भागा नही था आदसमियोको बुलानेके लिए दौड़ा गया था जानते तो हो कि जगुआ साला कैसा गुंडा है | सालेपर डकैतीका चार्ज लगाकर पाँच बरसके लिए जेलन भेज दूँ तो मेरा नाम गोविन्द गागुली नहीं ! दरवान--( हॉफते हुए ) अगर हाथमें कोई हथियार रहता ! वेणी--अवबे दूर हो साले सामनेसे मार मारके तख्ता बना दिया--- ( सिरपर हाथ फेरकर ) दया रे ! कितना खून जा रहा है ! अब मैं नहीं बच सकता ( पड़ जाता है ) गोवि०--( पकड़कर उठानेकी' चेश करते हुए ) अरे बच जाओगे, चच जाओगे में खुद तुम्हे कलकत्तेके अस्पतालमें ले चर्लूँगा | [ दरवानसे ) अरे जरा पक्रड साले सत्तूखोर ! साला डरके मारे यीदड़की तरह भाग यया। द्रवान---क्‍्या करे वाबूजी, विना हथियारके--- [ दोनों वेणीको उठाकर ले जाते हँ। ]

तीसरा दृश्य [ रमाके सोनेका कमरा वीसार रसा पलंगपर लेटी हुई है। सामनेसे सचेरेकी धूप खिड़कीके रास्ते अन्दर आकर जमीनपर पड़ रही है जिश्वेश्वरीका अवेश ] विः्वे०--( झुँचे हुए गलेसे ) क्यो वेटी रमा, आज कैसी तबीयत है : रमा--६ कुछ दँसकर ) त्ाईजी, अच्छी हैं विश्वें ०---रातको बुखार उत्तर गया था ?

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-डस्य ] क्‍ चीथा अंक ५३ रमा--नहीं लेकिन मालूम होता है कि जल्दी एक दिन उतर जायगा। श्वे०---ओर खाँसी ? रमा--खौंसी तो अमीतऊ वैसी ही मालूम होती है विग्वे०--फिर भी बेटी, कहती हो कि तबीयत अच्छी है रिमा चुपचाप हँसती है विश्वेश्वरी उसके सिरहाने जा बेठती हे और सिरपर हाथ फेरने लगती है ] विश्वे०--बेटी, तुम्हारी यह हँसी देखकर मालूम होता है कि मानों पेड़- -में से तोड़ा हुआ फूल किसी ढेवताके पैरोके पास पढ़ा हुआ हँस रहा है ! बेटी ! र्मा+-क्यों ताइंजी £

विश्वे०--में तो तुम्हारी मॉके समान हूँ रमा ' रमा--ताइंजी, मंकि ससान क्यों, तम तो मेरी मॉही हो विश्वे०---( कुककर ओर रमाका मस्तक चूमकर ) तो फिर बेटी, संच- 'सच बतला दो, तम्हें क्‍या हुआ है रमा--ताईजी, बीमार हैँ बेइवे ०--( रमाके रूख बालोपर हाथ फेरती हुई ) यद्द तो बेटी चमडेकी इन आखोंसे ही देख रही हैं अगर ऐसी कोई वात हो जो इनसे देखी जा सकती हो तो वह भी अपनी मॉसे नही छिपाना बेटी, छिपानेसे चीमारी अच्छी नहीं होगी रमा-- ( थोडी देरतक चुपचाप खिडकीके बाहरकी तरफ देखकर ) बड़े भइया केसे हैं ताईंजी ? विद्वे०---सिरका घाव भरनेमें तो अभी देर लगेगी, लेकिन अरुप- सालसे वह पॉच छ- दिनमें ही घर आजायगा बेटी, तुम ठुख मत करो उसे इसकी जरूरत थी! इससे उसका भला ही होगा | शायद तुम सोचती होगी कि में सा होकर अपनी सनन्‍्तानपर इतना बड़ा संकट आनेपर ऐसी वात केसे कह रही हैँ 4 लेकिन तुमसे सच कहती हूँ क्कि यह नही वतला सकती कि ससे मुम्के कष्ट अधिक हुआ है या आनन्द ।जो लोग अधमसे नहीं डरते ओर जिन्हें लज्जा नहीं, उन लोगोकों बेटी ,अगर प्राणोका भय इतना अधिक जल हो तो यह संसार ही मिट्टीम मिल जाय | इसीलिए रमा, मेरे मनमे तो चारवार यही बात आती है कि उस खेतिहरके लड़केने वेणीकी जितनी भलाई की है उतनी भलाई ससारस्में उसका कोई आत्मीय बन्धु भी कर सकता

ढ्ड ण्मा [ तीसरा:

देटी, ध्ोनेसे कोय्लेकी कालिख नहीं छूटती, उसे तो आमगमें जलाना पढ़ता है

रससा-- लेकिन ताइजी, पहल तो्‌ ह्वात नहीं थी। हकि खेतिहर क्रो किसने इस तरह ऋर दिया

विश्वे०--वेटी, यह क्या तुम खुद ही नही समझती कि कोच इन लोगोंका इतना हौसला वढ़ा गया है £ उन लोगोंने सोचा था कि जैसे भी हो साध देचेसे सब झगड़ा मिट जायगा | लेकिन यह नहीं सोचा कि जब आय सुलग जाती है, तब यो ही नही हुक जाती जबरदस्ती बुझा दी जाय तो. आसपासकी चीजोको सी तपा जाती है

स्मा--लेकित ताईजी, क्या यह अच्छा है £

व्श्विः---बेटी, अच्छा तो हे ही एक ओर तो ग्रवलकी अत्याचार करने की अखंड लालसा और दूसरी ओर विरुपाय लोनोकी सहन करनेकी वेसी ही अविच्छिन्न कायरता इन दोनोको ही यदि वह खबे कर दे तो अच्छा ही हैं बेटी , वेणीकी अवस्थाका ध्यान करके से कथभी ठंडी सॉस नहीं भर्रूँगी। चल्कि यहीं प्राथना करूँगी कि मेरा रमेश लौट आकर दीथेजीवी हो और इसी तरह काम कर सके रसा, एकलौती सनन्‍्तान क्या है यह केवल सौं ही जानती. जब खूनसे लथपथ हालतम लोग बेणीको पालकीस डालकर अस्पताक्न ले गये, उस समय मेरी जो दशा हुई थी वह भें तुम्हे किसी तरह समझा नहीं सकती लेकिन फिर सी में किसीको असिशाप नहीं दे सकी। बेटी, यह वाद त्तो में भूल नहीं सकती कि धर्मका दंड साँका सुँह नहीं देखता रहता

रमा--ताईजी , में तुम्हारे साथ तके नहीं करती, लेकिन अगर यही वात ठीक हो तो फिर रमेश भइया किस पापके कारण यह ढु-ख भोग रहे हैं ? हम लोगोंने जो जो ऋरवाइयें करके उन्हे जेल भेजा है वें तो किसीसे छिपी नहीं हैं ?

व्स्वि--छिपी नही हैं, इसीलिए तो झाज वेणी अस्पतालमें है और तुम्दारा--त्रेटी, जान रक्‍्खो, कि कोई काम कसी यो ही निष्फल होकर शूल्य- में नही मिल जाता उसकी शक्ति कही कही जाकर अपना काम करती ही है लेकिन किस तरह करती है, इसका पता हर समय सबको नहीं लगता आर इसी लिए आज तक इस समस्याकी मीमांसा नहीं हो सकी है कि क्‍यों एकके पापके लिए दूसरोंकी आयश्चित्त करता पड़ता है। लेकिन रसा, इसमें सन्देह नदी कि करना अवश्य पढ़ता है

( रमा चुपचाप ठंढी सेंस ले लेती है। )

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द्श्य ] चौथा अल &४. विश्वे०---वैठी, इस घटनासे मेरी भी ओखि डुल गई हैं सिर्फ किसीकी भलाई करनेकी नीयतसे ही इस संसारमें मलाई नहीं की जा सकती शुरूकी छोटी बढ़ी बहुत-सी सीढियों पार करनेका पैओ होना चाहिए एक बार रमेश इताश होकर यहोंसि चत्ता जाना चाहता था। उस समय मेने ही उसे नहीं जाने दिया था | इसीलिए जब मेने छुना कि वह जेल चला गया है , तव मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मानो मैने ही उसे जेल भेजा है उस समय तो जानवी नही थी कि बाहरसे दौड़े आकर भला करने जानेमें इतनी विडम्बना है! भलाई करनेका काम वहुत कठिन है रमा--क्यो ताईजी, कठिन क्यो है विश्वे०---उस समय तो सोचा सी नहीं थाकि पदले दस आदमियोंके साथ मिलकर एक होना पढता है। वह पहलेसे'ही इतना अधिक जोर और इतनी अधिक जीवनी शक्कि लेकर इतनी अधिक ऊँचाईपर खडा हुआ कि कोई उस तक पहुँच ही नहीं सका--कोई उसे पा ही नही सका | लेक्नि अद सोचती हूँ कि उसे नीचे उतारकर भगवानने मेगल ही किया है रमा--भगवानने नहीं ताईजी, हम लोगोने लेकिन हम लोगोंका! अधर्य उन्हें क्‍यों नीचे उतार लायगा * विश्वे ८--उतार क्यों नदी लायगा बेटी ? नहीं तो पाप इतना भर्यंकर क्यो है उपकारके बंदलेमें यदि कोई प्रत्युपकार करें, वल्कि उलटे उसके साथ अपकार करने लगे, तो भी उससे क्या वनता बिगड़ता है, अगर मलुष्य की कृतश्रता दाताको नीचे उतार छाबे ? रमा, ठुम कहती हो, लेकिन तुम्हारा गाँव स्मेशको क्या फिर विलेइल पहलेकी तरह पावेगा £ तुम लोग साफ देखोंगे कि जिन हा्थोसे वह अत तक चार आदमियोंकी भलाई करता फिरता था, उसके वही हाथ भैरव आचारयने,--और फिर अकेले भैरवने ही क्यों, तुम सभी लोगोंने,--मरोडकर तोड़ दिये हैं। और कौन कह सकता है कि, यह भी ठीक नही हुआ दें * उसके बलिए और समूचे हाथोका अपर्यात्त दान अहरण करनेकी शक्ति जब लोगोमें नही थी, तब उसके टूटे हाथ ही उब लोगोंके असली काममें आवेंगे। [ विश्वेश्वरी एक ठंडी सौस छेती है रमा थोड़ी देर तक उसका हाथ इधर-उधर दिलाती रहती दे और तब फिर वह भी ठंढी सौंस लेती है ।॥ रमा--ताईजी !

श्सा है, तीसरा

विश्वे०-- क्यों बेटी

रमा--अपयश और तिरस्कार अब सुके नही छूता ताईजी जिस दिन झूठी गवाही देकर मेने उन्हे जेल सेजा है उस दिनसे संसारकी सारी व्यथा मेरे लिए परिहास-सी हो गई है

विश्वे०--ऐसा ही होता है बेटी !

रमा--सभी कहने लगे कि शत्र॒ुका, चाहे जिस तरह हो, निषात करनेंमें कोई दोप नहीं है और उन लोगोने यही किया लेकिन में तो यह केफियत नहीं दे सकती ताई्जी

विश्वे०--क्यो, तुम क्‍यों नही दे सकती £

रमा--नही ताईजी, नहीं। एक बात है जो में श्राज तुम्हारे निकट स्वीकार करती हूँ | मोडलके घरपर सब लड़के इकट्ठे होकर रमेश सइयाके कहनेके अनुसार ही सच्ची आलोचना किया करते थे। उन लोगोंको बदमाशों- का दल बतलाकर पुलिससे पझड़वा देनेका एक पड्यन्त्र चल रहा था। मैंने आदमी भेजकर उनको सावधान कर दिया क्योकि पुलिस तो यही चाहती है अगर एक बार वे पुलिसके हाथमें पड़ जाते, तो फिर खैरियत नहीं थी

विश्वे०--( कॉपकर ) कहती क्या हो रमा £ क्या वेणी अपने गाँवमें पुलिसको म्रूठमूठ बुलाकर उससे उत्पात कराना चाहता था £

रमा--सुमे तो जान पड़ता है कि वंडे भश्याको जो यह दरुड मिला है, सो उसीका फल है ताईजी, तुम सुझे माफ कर सकोगी £

विश्व ०--उसकी माँ होकर भी अगर माफ कर सकूँगी तो फिर और कौन माफ करेगा ? में तो आशीर्वाद देती हूँ कि भगवान्‌ तुम्हे इसका पुरस्कार दें।

रमा--( हाथसे अपने शओरसू पोछुकर ) मेरे लिए तो अब यही एक सान्त्वना कि जब वे जेलसे छूटकर आयेंगे तब देखेंगे कि उनके आनन्दका क्षेत्र तैयार हो गया है। उन्होने जो चाहा था वही हुआ है,--उनके उसी देशके दीन दुखिया अवकी बार नीदसे उठ बैठे हैं, उन्हे पहचान गये हैं और उनसे प्रेम करने लग गये हैं। क्या इस प्रेमके आनन्दमें वे मेरा अपराध भूल क्षकेगे ! ताईजी, सिफे एक जगह हम दूर नहीं हो पाये हैं। तुमसे हम दोनो ही प्रेवव करते हैं

[ विश्वेश्वरी चुपचाप उसकी ठोढ़ी पकड़कर चूम छेती है ]

रमा--उसी जोरसे एक दावा तुम्हारे सामने रखे जाती हैं जिस समय में

नहीं रहेंगी उस समय भी यदि वे मुझे क्षमा कर सकें, तो मेरी ओरसे उनसे -

स्श्य] चसोधा अंक ९७ केवल इतना ही कह देना कि वे मुझे जितनी बुरी समभते थे, उतनी बुरी में नहीं धी और जितना दुख उन्हें दिया है, उससे फहीं अधिक ढु'ख स्व मेने ज्षी भोगा है तुम्दारे मुंहसे वे यद्द वात सुनेगे तव शायद अविश्वास कर सकेगे। विश्वे ०---तब तो बेटी, चलो हम लोग किसी तीर्थ-स्थानमें चलकर रहें। हम लोग वहाँ चले जहाँ रमेश हो और वेणी हो, और जहाँ आँख उठाते ही भगवानके मंदिरका शिखर दिखलाई पड़ें। रमा, मैन सब वातें समझ ली हैं। और बेटी, अगर तुम्दारे जानेका दिन ही पहुँचा हो, तो यह विप हृदयमें रखकर नहीं छे जाऊँगी, सब यहीं नि' शेष करके ढाल जाऊँगी। क्यों बेटी, यद्ध कर सकोगी £ रमा--( विश्वेश्वरीके घुटनोंमें मुंह छिपाकर और विकलतापूरक रोकर) मुझसे नहीं हो सकेगा ताईजी ! तुम मुझे यदांसे ले चलो प्स््सििा चोथा दृश्य ख्थान--जेलखानेके सामनेका रास्ता। एके ओरसे स्मेश और दूसरी ओरतसे वेणीका प्रवेश वेणीके सिरपर पढ्टी वध हुई है साथमें स्कूलके हेंडमास्टर वनमाली और कुछ विदार्थी हैं पीछे पीछे वेणीके साथी और भी दो-चार आदमी हैं। ] बेणी--( स्मेशको गले लगाकर ) भाई समेश, अब मुझे पता चला है कि अपने रक्कका कितना अधिक आकर्षण होता है में यह वात जानकर भी नहीं जानता था कि रमा उस आचार्य हरामजांदेको अपने हाथ करके इस तरहकी शत्रुता करेगी और सारी शरम-हयाकी ताकमें रखकर स्वयं आकर मूठी गवाही देकर इतना ढु-ख देगी भगवानने इसका दंड भी सुझे दे दिया है सड्या, जेलमें तुम तो बल्कि अच्छी तरह थे, लेकिन में तो वाहर रहते हुए भी डथर कई महीनोंसे मानो भूसेकी आगमे जल रहा हूँ [ स्मेश हृत बुद्धिकी तरह खड़े डेखते रहते हैं. और उनकी समर नहीं आता कि क्या करें। वन पाली और विद्यार्थी आगे बढ़कर उनके चरण छूते हैं। ] बेणी--( रोकर ) भाई, तुम अपने बड़े सइ्यापर नाराज मत रहना च्वलो, घर चलो मॉने रो रोकर दोनो आँखे अन्धी करनेका उपक्रम कर शकखा है। रमेश, दस लोग्तेकी केवल जान ही बच रही है

थ्द समा [ चौथा रमेश--( वेणीके सिर॒पर वेश्री हुई पद्टीकी ओर संकेत करके) इठे भ्ड्या, यह क्या हुआ : तुम्हारा सिर किस तरह फूठा $ वंणी--छुतनेसे क्या होगा भाई, भे किसीको दोष नहीं देला। यह मेरे ही कर्मोका फल है। मेरे ही पापोका दंद है। स्मेश, ठुम तो जानते ही हो कि जन्मसे मुझमें एक दोष है कि यह मुझसे नहीं होता कि मनमें तो कोई और वात रक्खें और मेहसे कोई और बात कहूँ | जिस तरह और सब्र लोग अपने मतक्री बात अपने मनमे छिपाकर रखते हैं, उस तरह मे नहीं रख सकता इसके लिए मुझे जाने कितने दंड सोगने पडे है, लेकिन फिर भी मेरी आंखें नही खली मेरा दोष केवल यही था कि उस दिन रोते रोते कह बठा कि रसा, मेंने तुम्हारा क्या अपराध किया था जो ठुमने मेरे भाईको जेल मेजवा दिया जेल जानेकी बांत सुनकर माँ तो जान ही ढे देगी हम भाई भाई सम्पत्तिके लिए आपसमें कगढ़ा भले ही करते रहें, फिर भी है तो वह हमारा भाई ही। तुमने एक ही चोटसे मेरे भाईको भी मारा और माकों सी सात। रमेश, उस दिन रमाकी जो उम्र मूर्ति देखी थी, उसे स्मरण करके आज भी कलेजा कप जाता है | उसने कहा कि क्या रमेशक्के वाप मेरे बापको जेल नहीं सेजना चाहते थे : बस चलता तो क्या छोड़ देते रमेश--हों, रमाकी सौसीके मुहसे भी मेने यही वात छुनी थी वेणी--यह तो हुआ उसका जातकोधघ लेकिन ज्लीका इतना अहंकार सुमसे नहीं सहा गया। मैने भी गुस्सेमें आकर कह डाला कि अच्छा उसको जेलसे आने दो तब फिर समक् लिया जायगा | लेकिन भाई, खून करना तो उसका अख्यास ही ठहरा | तुम्हें. क्या याद नही है कि तुम्हारा खून करनेके लिए उसने अकबर लडेतको मेजा था लेकिन तुम्हारे आगे तो उसकी चालाकीः चली नहीं, उलटे तुम्हीने उसे सगक सिखला दिया। लेकिन मेरा खून करना कौन मुश्किल है * रमेश--फिर क्या हुआ वेणी---इसके वाद जो कुछ हुआ, वह क्या मुझे याद है? में कुछ भी नहीं जानता कि किस तरह मुझे अस्पताल ले गये, वहाँ क्‍या हुआ, किसने:

देखा इस बार में जो जीता वच गया हैँ, सो केदल मके पुरायसे ऐसी माँ शा कु छू दस साक यसे ऐसी सो और किसकी है रमेश ! 2

[ रमेशके मनमें और चेहरेपर क्‍या क्या होने लगा, इसका कोई ठिकाना नहीं,--उसने एक बात सी नही कही | ]

60

द्श्य ] चौथा अक ९९ वेणी--भाई , याड़ी तेयार है अब देर मत करो | घर चलो | तुम्हे छे चलकर मंकि पास पहुँचा दूँ तो मुके चन मिले रमेश--चलिए जेलमें ही सुना था कि रमा बहुत बीमार है वेणी--रमेश, ईश्वर का देड है। यह क्या समीकी याद रहता है कि उसका ही राज्य है ? चलो भाई, घर चलो। (सबका प्रस्थान )

ह::८ ६०९१4 पाचवा ध््य

[ रमाके कमरेमें रमेशका प्रवेश रमाको देखकर चौक पड़ते हैँ।]

रमेश--ठुम, इतनी ज़्यादा बीमार हो यह तो मेने नहीं सोचा था !

[ रमा बहुत कठिनतासे उठकर वेठती हैं और रमेशके चरणोकी तरफ

मुककर प्रयास करती है। ]

रमेश---अब केसी हो रानी £

रमा--आप मुझे रपा ही कहकर पुकारा करें

रमेश--अच्छी बात है। सुना कि तुम बीमार थी अब केस्ी हो, यही जानना चाहता था नहीं तो नाम तुम्हारा चाहे जो हो, उस नामसे पुकार- नेकी मेरी इच्छा भी नहीं है और आवश्यकता भी नहीं है।

रमा --अव में अच्छी हूँ। मेने आपको बुलवा भेजा था, इसलिए शायद आपको बहुत आश्रय हुआ होग। लेकिन--

रमेश--नहीं, आश्चर्य नहीं हुआ तुम्हारे किसी सी कामसे आश्रय होनेके दिन निकल गये लेकिन, पूछता हूँ कि मुके किस लिए बुलाया है ?

रमा-- (थोड़ी देर तक सिर कुकाकर चुप रहनेके वाद ) रमेश सइया, जाज मैंने तुम्हें दो कार्मोके लिए कष्ट दिया है यह तो में जानती हैँ कि मेंने चहुतसे अपराध किये हैँ; लेकिन फिर भी मुझे निश्चय था कि तुम अवश्य आओपगे ओर मेरे ये दो अन्तिम अनुरोध भी अस्वीकृत करोगे

( रुलाईके कारण उसका गला कॉप जाता है )

स्मेश--क्या अनुरोध है £

रमा--(चकितके समान सिर उठाकर फिर नीचा कर लेती है () बढ़े भइया तुम्हारी सहायतासे पीरपुरकी जिस जायदाद पर कब्जा करना चाहते हैं, बह जायदाद मेरी अपनी है पिताजी खास तौरपर वह मुझे ही ढे गये हैँ

25 र्सा [ पॉचवों उससें पन्द्रह आने मेरा हैं और एक आना तुम ॥। वही जायदाद में तुम्हें दे जाना चाहती हूँ हि रमेश--तम डरो मत वडे भदया चाहे मकसे कितना ही क्यों ने कहें लेकिन चीरी करनेमे मेने कमी किसीकी सहायताछी और अब ऋरगा ओर तम दान ही करना चाहती हो तो उसके लिए और बहुतसे लोग हैं से दान ग्रहण नहीं करता रसा--से जानती हैं रमेश भशया, कि तुम चोरी करनेगें किसीकी सहायता नहीं करोंगे। और यह भी जानती हैं कि अगर तुम लोगें भी तो अपने लिए नहीं लोगे लेकिन सो तो नहीं है। ठोष करनेपर दंड मिलता है। मेने जो अपराध किये हैं, -उनके दडके रूपमें ही इसे क्यों नहीं प्रझण करते £ रेश---ओऔर तुम्हारा दूसरा अनुरोध : रसा--मैं अपने यतीन्द्रको तुम्हारे हाथ सॉप जाती हैँ रमेश--सोंप जाती हैँ? के क्‍या माने ? रमा-- स्मेशके भुंहकी ओर देखकर ) रमेश भइया, एक दिन कोई भी साने तुमसे छिपे नहीं रहेंगे इसीलिए में अपने यतीन्द्रको तुम्हारे ही सपु्देकर जाऊँगी उसे तुम अपनी ही तरह सिखा-पढदाकर अपने ही जैसा बनाना जिससे बड़ा होकर वह तुम्हारी ही तरह स्वार्थ-्याग कर सके (ऑचलसे ऑसू पोंछकर) सें यह अपनी आरखोंसे नहीं देख सकूँगी लेकिन मेरा यह दढ़ विश्वास है कि यतीन्द्रके शरीरमें उसके पूवे-पुरुषोका रक्त है | त्यागकी जो शक्ति उसकी अस्थि ओर मज्जामें मिली हुईं है, अगर उसे ठीक तरहसे सिखाया पढ़ाया गया - तो शायद्‌ वह सी एक दिन तुम्हारी ही तरह सिर ऊँचा करके खड़ा हो सक्केगा [ रमेश चुप रहते हैं र॒मा--रमेश भश्या, इस तरह चुप रहनेसे तो मे आज तुम्हे नहीं छोड़ेंगी। रमेश--देखो, इन सब वातोंमे मुके सत घसीठो में बहुतसे ढुश्ख सहनेके बाद प्रकाशकी थोड़ी-सी शिखा त्रज्वलित कर सका हूँ; इसलिए मुझे बराबर भय बना रहता है कि कहीं वह जरामें ही बुक जाय | रमा--नहीं रमेश भइया, डरकी कोई वात नहीं है यह प्रकाश अब नहीं चुमेगा ताईनीने कहा था कि तुस वहुत दूरसे आकर और वहुत बड़ी ऊँचाई- पर वेठकर काम करना चाहते थे और इसीलिए तुम्हारे कार्मोमें इतनी बाधाएँ आई है उस समय परायोकी तरह तुम ग्राम्य-समाजसे बाहर थे, परन्तु अब

ड्ह्य ] चोथा अक १०१

हो गये हो उनके ही एक आदमी उस समय तुम्हारा दिया हुआ दान एक विदेशीका दान था; परन्तु अब वह शआत्मीयका स्नेहपूररा उपहार हो गया है अब तुम वह नहीं रह गये हो जो दुःख पाओ और दु'ख सहो। इसीलिए अब यह श्रकाश मद्धिम नहीं पड़ेगा, बल्कि दिनपर दिन उजवल होता जायगा। रमेश---ठीक जानती हो रमा, कि हमारे इस दीपककी शिखा अब नहीं बुमेगी ? रमा--हाँ, ठीक जानती हैँ यह उन त्ाईजीकी कही हुईं बात है जो सब जानती हैं यह काम तुम्हारा ही है। मेरे यतीन्द्रको तुम अपने हाथोंमें लो, मेरे सब अपराध क्षमा करो और आज मुझे; यह आशीर्वाद दो कि में निश्चिन्त होकर जा सकूँ। स्मेश---रमा, तुम जानेकी बात क्‍यों सोच रही हो ? में कहता हूँ कि तुम फिर अच्छी हो जाओगी रमा--रमेश भइया, में अच्छे होनेक्री वात नहीं सोच रही हूँ, सोच रही हैँ. क्रेवल अपने जानेकी बात लेकिन मेरा और भी एक अनुरोध तुम्हें मानना पंढ़ेगा | मेरे विपयर्म तुम कमी बढ़े भश्याके साथ झगड़ा म्रत करना रमसेश--इसके माने £ रमा---माने अगर कसी सुन पाओ, तो केवल इसी वातको स्मरण रखना कि में किस तरह चुपचाप सहती हुई चली गई और मैंने एक सी वातका अतिवाद नहीं किया एक दिन जब मुझे; असह्य हो गया था तब ताईजीने आकर कहा था कि मिथ्याको आदोलन करके जगाये रखनेसे उसकी आयु . बढ़ती जाती है। अपनी असहिप्णुतासे उसकी आयु बढ़ानेके समान पाप बहुत ही कम हैं। उनका यही उपदेश स्मरण रखकर में सभी हुख और दुर्भाग्य काट सकी हूँ। रमेश भइया, तुम भी यह बात कसी मत भूलना [ रमेश चुपचाप सुँहकी ओर देखते रहते हैं ] रमा--रमेश भइया, तुम आज यह समझकर दुखी मत होना कि तुझे मुझे क्षमा नहीं कर सकते हो। में अच्छी तरह जानती हूँ कि जो बात आज्ञ कठिन जान पढ़ती है, वही एऋ दिन सहज और सीधी हो जायगी उस दिन तुम सहजमें ही मेरे सव अपराध क्षमा कर दोगे और इसी विश्वासमे मेरे मनसें कोई क्लेश या दुःख नहीं है में कल सबेरे ही जा रही हूँ रसेश---कल सबेरे ही कहाँ जाओगी £

५४ ॥३:2.#

पाचवा

# करके हु

हा! र्मा रमा--जहाँ ताईजी ले जायेगी वहीं जाऊँगी रेश--लेकिन सुना है कि वे तो फिर लौटकर नहीं आवेंगी रमा--में भी नहीं आऊँगी। आज मे भी तुम्हारे चरणोंसे सदाके लिए बिदा होती हैं हे [ इतना कहकर रसा जमीनपर सिर रखकर प्रणाम करती है।] रमेश - अच्छा जाओ लेकिन क्या यह भी नहीं जान सकूँगा कि क्‍यों इस प्रकार अकस्मात्‌ विदा हो रही हो £ [ रा चुप रहती हैं। ] रमेश--यह तुम्हीं जानो कि क्‍यों अपनी सब बातें इस प्रकार छिपा रखकर चली जा रही हो लेकिन में भी भगवानके निकट अपने शरीर और मनसे प्रार्थना करता हूँ कि में एक दिन तुम्हें अपने समस्त अन्त करणसे क्षमा कर सके तुम्हें क्षमा कर सकनेके कारण भुझे जो कष्ट हो रहा है, वह मेरे अन्तर्यामी ही जानते हैं [ अकस्मात्‌ विश्वेश्व॒रीका प्रवेश ] विश्वे० >-रमा ! रमेश---ताईजी, किस अपराधके कारण आप इस प्रकार हम लोगोंको छोड़कर चली जा रही हैं ! विश्वे०---अपराध सश्या, अगर अपराधोंकी बात कही जाय, तो उसका कभी अन्त ही नहीं होगा इसलिए उसकी जरूरत नहीं लेकिन मेरी बात तुम जान रक्खो अगर में यहाँ मरूँगी रमेश, तो वेणी मेरे मुँहमें आग देगा जिससे में किसी तरह मुक्ति पासकूँगी यह जीवन तो जलते-भुनते ही बीता, लेकिन रमेश, कहीं परलोक सी इसी तरह जलते-भुनते बीते, इसी डरसे भाग रही हैं रसेश--ताईजी, तुमने यह तो कभी सुझपर प्रकट नहीं होने दिया कि लड़केका अपराध तुम्हारे कलेजेको इस तरह वेध रहा है लेकिन रमा क्यों सब कुछ छोड़कर बिदा होना चाहती है? उसे तुम कहाँ छे जाओगी ? रमा--मैं जाती हूँ ताईजी ( रमाका प्रस्थान ) विरव॑०--छुम पूछ रहे थे कि रसा क्‍यों बिदा होना चाहती है? सें उसे कहों ले जाना चाहती हूँ? संसारमें उसे स्थान नहीं मिला रमेश, इसीलिए उसे भगवानके चरणरोमें ले जा रही हूँ यह तो नही जानती कि वहाँ जानेपर

*अडेय ] चअोथा ४क १०३

भी वह बचेगी या नहीं, लेक्नि यदि वच रही, तो में उससे बाकी जीवन इसी अति कठिन अश्नकी मीसांसा करनेमें वितानेके लिए कहूँगी कि क्‍यों भग- चानने उसे इतना अधिक रूप, इतने अधिक ग्रुण और इतना बड़ा एक महा- आख देकर इस ससारमें भेजा था और क्यों बिना किसी दोष या अपराधके उसके सिरपर दुःखोंका इतना बड़ा वोकझ लादकर फिर संसारके बाहर फेंक दिया यह उसीका अम्निप्राय है या केवल हमारे समाजके खयालोंका खेल है अरे रमेश, उसके समान दुःखिनी शायद इस पृथिवीपर और कोई नहीं है ! [ विश्वेदवरीका गला भर आता है रमेश चुपचाप उसकी मुँहकी ओर देखते रहते हैं विश्वे०--लेकिन रमेश, तुम्हारे ज्षिए मेरा यही आदेश रहा कि तुम उसे जरूत समझना में चछते समय किसीकी कोई शिकायत नहीं करना चाहती, ज्ञेकिन मेरी इस बातपर कभी भूलकर भी अविश्वास मत करना कि उससे बढ़कर तुम्दारा मंगल चाहनेवाली और कोई नहीं है रमेश--लेकिन ताईजी,--- विश्वे“--रमेश, इसमें लेकिन-वेकिनको कोई जगह नहीं है तुमने जो कुछ सुना है, सब फ़ूठ है; और जो कुछ जाना है, सब गलत है। लेकिन इस अभियोगकी अब यहीं समाप्ति करो तुम्हारे लिए उसकी अंतिम प्रार्थना यही है कि तुम्हारे कल्याणका कार्य नदीकी वाढकी तरह समस्त द्वेंप और - ईर्षाको बहाता हुआ चला जाय इसीलिए उसने मुँह बन्द रखकर सब कुछ सहा है उसके प्राण जा रहे हैं, फिर सी उसने वात नहीं कही रमेश रमेश---ताईजी, उससे कहो--- विश्वे “--अगर हो सके तो तुम्हीं उससे कहना रमेश मुझे अब समय नहीं है ( प्रस्थान ) [ यतीर्रको साथ लिये हुए रमाका प्रवेश उसके वल्नोसे जान पढ़ता है कि वह कहीं दूर जा रही है ।] रमेश--( चकित होकर ) यह क्‍या इतनी रातको यह वेष क्‍यों £ रमा--स्मेश भइया, में यात्राके लिए घरसे निकल चुकी हूँ अब रात “नहीं झे जानेसे पहले दो काम बाकी थे। एक तो अतिम बार तुम्हारे चर- णोंकी धूल लेना और दूसरे यतीन्द्रको ठुम्दारे हाथमें सौपना। रमेश--यह भार मुझे ही दे जाओगी रमा

र्‌०्ड य्मा पांचता दृश्य

रमा--रसा नहीं, रानी उसका सबसे अधिक प्यारा धन यही छोटा भाई च्ै रमेश भसश्यां, इंच तुम्हारे सिवा और कान ले सकता

रसेश---लेकित इसमसाकितनों बडा उत्तरदायित्व हर रमा,चह अनुरों क्षू---

रमा--अब भी वही रमा £ लेकिन यह तो अनुरोध नहीं है, यह तो उसका दावा है यही दावा लेकर वह एक दिन संसारमें आई थी और यही: दावा लेकर संसारसे जायगी रमेश सड्या, इस ठावेका तो कहीं अन्त नहीं है। इससे तुम केसे वच सकते हो ? यह लो

[ स्मेशके हाथमें यतीन्द्रका हाथ पकड़ा देती है ओर जमीनपर्‌ ऊककर प्रणाम करती ह् ]

हर

ध्ल्च्ध्स्स्स्स्मिध्नर घन

( ! यवनिका-पतत ध्््य््श्ध्श्ध््य्म्स्प््त

परिणीता

छातीम जब शक्ति-वाण लगा तब लच्मणका चेहरा अवश्य हो बहुत म्लान हो गया होगा, किन्तु गुरुचरणका चेहरा तव शायद उससे भी ज्यादा: मलीन दिखाई दिया जब 'कि सबेरे ही अन्त'पुरसे यह समाचार पहुँचा कि उनकी स्त्रीने अभी अभी बिना किसी वाधघा-विन्नके पॉचवी कन्याकों जन्म दिया है

गुरुचरण वैंकमें साठ रुपयेकी नौकरी करते हैँ,--क्लाक हैं लिहाजा" उनका शरीर किरायेकी गाड़ीके घोडेका-सा हुबला-पतला है, आखों ओर चेहरेपर भी उनके वैसा ही एक तरहका निष्काम निर्विकार निर्लिप्त भाव है। फिर भी, इस भयंकर शुभ संवादसे आज उनके हाथका हुका हाथमें ही- रह गया, वे फटे पुराने पेतुक तक्रियेके सहारे बैठ गये और एक गहरी या: ठंडी सॉँस लेनेकी भी उनमे ताकत नहीं रही

इस झुभ-संवादको लाई थी उनकी त्तीसरी दस सालकी लड़की अन्नाकाली (- उसने कहा, “वाबूजी, चलो न, देख आओ ॥”

गुरुचरणने लड़कीके चेहरेकी तरफ देखकर कहा, “बिटिया, एक गिलास” पानी तो ले आ, पीऊँगा ।”

लडकी पानी लाने चली गई उसके चले जानेपर ग्रुर्चरणको सबसे पहले याद आई सौरीके तरह-तरहके खर्चोकी बात उसके वाद, सीड़के दिनोंमे स्टेशन पर गाड़ी आनेपर दरवाजा खुला पाते ही थर्क्नासके यात्री जैसे अपना अपना:

- १०६ परिणीता

वोरिया-बसना लेकर पागलकी तरह लोगोंको रोंधते हुए भीतर भरते हैं, उसी तरह 'ारो मारो शोर करती हुई तरह-तरहकी दुश्िन्ताएँ घढ़ाधड़ उनके द्सागसे आने लगी | याद गया कि पिछले साल दूसरी कन्याके झुस-विवाहमें उनकी अपना यह बहूबानारका टुमेजिला पैतृक मकान तक गिरवी रखना पड़ा था, जिसकी कि अभी छुह महीनेका सूद चुकाना बाकी है। दुर्गायूजा आनेमें अब महीने-सरकी ही देर है--ममली लड़कीके घर सौगात भेजना है आफिममें कल रातको आठ बजे तक डेबिट्-क्रेडिट ( >जमा-खच ) मिला नहीं है, आज बारह बजेके सीतर विलायतको हिसाब भेजना है कल बड़े साहवने हुक्म सुना दिया है कि मैले कपड़े पहनकर कोई आफिसमे नहीं सकेगा, जुरमाना होगा, और सजा यह कि पिछले हफ़्तेसे घोवीका पता ही नहीं चलता कि क्‍या हुआ 2? घर-ग्हस्थीके आधे कपड़े उसीके पास हैं, कहीं लेकर चम्पत हो गया हो ? ग्रुरुवरणसे अब तकियेके सहारे बैठा नहीं गया हुक्का अलग रखकर ल्लेट गये सन ही रन कहने लगे भगवान्‌, इस कलकत्ता शहरमें रोजमर्रा जाने कितने आदमी घोड़ा गाड़ीके नीचे दबकर बेमौत मर जाया करते हैं, तुम्हारे चरणोंमें क्या वे सुभसे भी

ज्यादा अपराधी हैं ? दयामय ! तुस्द्वारी दयासे एक भारी-सी मोटर-गाड़ी भी अगर मेरी छातीके ऊपर दौड़ जाती !

अज्ञाकाली पानी ले आई, बोली, “उठो, पानी पी लो ।” गुरुचरणने उठकर साराका सारा पानी एक सॉसमे पी लिया, बोले, फू, जा ग्टिया गिलास ले जा ।” उसके चले जानेपर गुरुचरण फिर लेट गये है ललिताने कमरेमें आकर कह।, 'सामाजी, चाय लाई हूँ, उठो ।” चायके नामसे गुरुचरण फिर एक बार उठ बेठे। ललिताके चेहरेकी तरफ डेखकर उनकी आधी आग मानो बुक गई, चोले, “रातभर जागी है बेटी, मेरे पास आकर जरा बैठ जा ।”? ललिता लजीली हँसी हँसती हुईं पास आकर बैठ गई, बोली, “मैं रातको ज्यादा नहीं जगी मामाजी ।” इस जीखे-शीरण गुरुभारगस्त अकाल-बद्ध मामाके हृदयकी छिपी हुई , " व्यथाकी इस घरमें उससे ज्यादा और कोई नहीं समझता गुरुचरणने कहा, “न सही, तू झा, मेरे पास तो |”

परिणीता १०७ -

ललिताके पास आकर बैठते ही गहचरणने सहसा उसेके माथेपर हाथ रखकर कहा, “अपनी इस विटियाकी अगर राजाके घर दे सकता, तो सममता कि हों, एक अच्छा काम किया

ललिता सिर क्ुकाये चाय ढालने लगी, गरुरुवरण कहने लगे, “क्यो विटिया, तुझे अपने इस दुखी मामाके घर आकर रात-दिन सिफ मेहनत ही करनी पड़ती है, क्‍यों १”

ललिताने सिर हिलाते हुए कहा, “दिन-रात मेहनत क्‍यों करने लगी मामा ? सभी काम करते हैं, में सी करती हैँ ।”

अब गुरुचरण जरा हँस दिये चाय पीते हुए वोछे, “अच्छा ललिता, आज रसोईका क्या होगा ?” है

ललिताने मुँह उठाकर कहा, क्यो मामा, में वनारऊँगा !”

गुरुचरणने आश्रयके साथ पूछा, “तू कैसे बनायेगी बिटिया, तुझे! क्‍या बनाना आता है ?”

“आता है मामा ! मैंने साईसे सच सीख लिया है।

गुरुचरणने चायका प्याला नीचे रखकर कहा, “सच्ची ?”

“सच्ची | माई दिखा बता ढेती है,--मेने तो कई बार बनाई है।”

कहकर उसने सिर झुका लिया | उसके मुके हुए सिरपर हाथ रखकर ग्रुरुवरणने मन ही मन आशीर्वाद दिया। उनकी एक भारी चिन्ता दूर हो गई।

इनका मकान गलीके ऊपर ही है। चाय पीते ही खिड़कीमेंसे वाहर नजर पढ़ते ही गुरुचरणने चिल्लाकर कहा, “शेखर हो क्या ? सुनो, झुनो ।”

एक लम्बे कदका वलवान्‌ सुन्दर युवक भीतर चला आया

गुरुचरणने कहा, 'विठो, आज तुमने अपनी चाचीकी स्वेरेकी करतूत तो सुन ही ली होगी १”

शेखरने मुस्कराते हुए कहा, “करतूत क्या कर डाली, लडकी हुई है, यही १”

गुरुचरणने एक गहरी सॉक्त ली और कहा, “तुमने तो कह दिया, “यही 2? पर वह 'यही' क्या है, सो तो सिफ में ही जानता हैँ ।”?

शेखरने कहा, "ऐसा कहा कीजिए चाचा, चाची सुनेंगी तो उन्हें बड़ा दुःख होगा इसके सिवा भगवानने जिसको भेजा है, उसको लाड-प्यारके साथ अंगीकार करना ही चाहिए ।”

०८ परिणीता

गुरुचरण क्षण-सर मौन रहकर गेल्ले,'लाइन-प्यार करना चाहिए, सो तो मैं भी जानता हूँ। लेकिन बेटा, सगवान भी तो न्याय नहीं करते। मे गरीब हूँ, मेरे घर इतनी बहुत क्‍यों रहनेका यह मकान तक तो तुम्हारे वापके हाथ गिरवी रक्खा है खर कोई बात नहीं, इसके लिए मुझे दु.ख नहीं शेखर ! पर यह तो विचार कर देख बेटा, यह जो हमारी ललिता है, मा, बाप कोई नहीं हैं इसके, सोनेकी पुतली हे यह, यह तो सिफे राजाके घर ही शोभा पा सकती है कैसे इसे हृदय थामकर चाहे जिसके हाथ सोप दें, बता 2 राजाके मकुठपर जो कोहिनूर चमकता है, वैसे ढेरों कोहिनूरोंके साथ तौलनेसे भी मेरी इस विटियाकी कीमत नहीं हो सकती पर इस बातको सममेगा कौन ? पेसेकी कमीके कारण सुझे ऐसे रत्नको भी गँवा देना पड़ेगा | बताओ तो वेठा, तब कैसा तीर-सा कलेजेपर लगेगा ? तेरह सालकी हो चुकी, पर इस वक्त मेरे हाथ- में तेरह पैसे सी नहीं कि कोई सगाई-सम्बन्ध ठीक कर सके ।” गुरुचरणकी आखोासें आस सर आये | शेखर चपचाप बेठा रहा गुरु- चरण कहने लगे, “शेखरनाथ, देखना तो बेटा, तुम्हारे मित्रोंमें अगर कोई इस लड़कीका कुछ किनारा कर सके सुना है आजकल बहुतसे लड़के रुपयों- की तरफ उतना थयान नहीं ढेते, सिफ लड़की देखकर ही पसन्द कर छेते हैं ऐसा ही कोई लड़का भाग्यसे अगर मिल जाय शेखर, तो में सच कहता हूँ 'तुमसे, मेरे आशीर्वादसे तुस राजा हो जाओगे। और क्या कहूँ बेटा, तुम्हारे वाप मम्मे छोटे भाईके समान ही सममते हैं ।” शेखरने सिर हिलाकर कहा, “अच्छी वात है, में तलाश करूँगा शुरुचरणाने कहा, “भूलना मत बेटा, निगाह रखना ललिता तो आठ “सालकी उम्रसे तुम्हारे ही पास पढ़-लिखकर इतनी बड़ी हुई है,--तुम तो जानते ही हो जेसी बुद्धिमती हे, केंसी शान्त शिष्ट है जरा-सी है, फिर भी

आजसे यहां रसोई-बसोई बनायेगी, खिलायेगी-पिलायेगी, सब कुछ तो इसीके ऊपर है।”

इसी समय छलिताने जरा ओंखि उठाकर देखा, और फिर नीचेको निगाह

कर ली | उसके ओठोके दोनो किनारे जरा फैल भर गये। भुरुचरणने एक टत सांस लकर कहा, इसके वापने क्या कुछ कम रोजगार किया था. पर छुछ इस तरह दान कर यये कि अपनी ऊरइकीके लिए भी कुछ नहीं छोड़

नम १?

अय शेखर चुप रहा, गुरुचरण फिर स्वयं ही कहने लगे, “और यह सी कैसे

परिणीता १०९ कद्मा जाय कि कुद्ध छीए नहीं गये उन्होंने जिनमें आदमियोंके जितने कष्ट दूर किये हैं , उनका फल सिफे टल विडियाके लिए छोद् गये हैं; नहीं तो क्या उतनी-सी छठ्की ऐसी अन्नप्रणा हो सकती थी ! तुम्हीं बचाओ शेखर, सच दे था नहीं 7”

शेखर---हंसने लगा, कुछ जवाब नहीं दिया बह उठने लगा तो शुरुचरणने पूछा, “इतने सवेरे ही कहाँ जा रहे हो?! शेखरने कद्दा, “वेरिस्टरके घर,---एक केस है ।” कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ | सुख्चरणाने फिर एक वार बाद दिलाते हुए कहा, “जरा खयाल रखना बेटा ललिता देखनेमें जरा स्यामवर्ण जरूर है, पर ऐसी ओखें, ऐसा चेहरा, ऐसी हैंसी,इतनी दया-ममता डुनियामें दृढ़ने पर सी कहीं नहीं सिलेगी ४” शेखर सिर हिलाता और हँसता हुआ बाहर चला गया इस लद़केकी उम्र पच्चीस-छव्बीस वर्षकी होगी एम० ए० पास करके इतने दिनों तक और भी पढ़-लिख रहा था। पिछले साल अटर्नी हुआ है इसके पिता नवीनचन्द्र गुड़के काममें लखपतीं होकर कुछ सालसे व्यापार छोड़कर घर बेठे तिजारत कर रहे हँ। बड़ा लड़का अविनाशचन्द्र वकील है, छोटा शेखर अटठर्नी हो गया ऐं। उनका भारी तिरमेजिला मकान सुहल्लेमें सबसे ऊँचा हू गुरुचरणकी छतसे उसकी छत मिली होनेसे दोनो परिचारोमें घनिष्ठता हो गई है। घरकी औरतें इस छत-पथसे ही एक दूसरेफे यहाँ आया-जाया करती हैं द्‌ श्यामवाजारके एक बढ़े आदमीके यहाँ बहुत दिनोसे शेखरके व्याहकी बआतचीत चल रही थी। उस दिन जब वे शेखरकों देखने आये तो उन खोगोने चाहा कि आगामी माघ महीनेसे ही कोई एक शुभ दिन दिखलाकर व्याह पक्का कर दिया जाय। पर शेखरकी माने मंजूर नहीं किया मेहरीसे कहला भेजा कि लड़का खुद देखकर पसन्द कर लेगा, तच व्याह पक्क। होगा नवीनचन्द्रकी दृष्टि सिर्फ रुपयोकी तरफ थी, उन्होंने अपनी ज्लीकी इस - संशयात्मक बातसे अप्रसन्न होकर कहा, “यह केसी बात है ? लड़की तो डेखी दाखी हे बातचीत पक्की हो जाने दो, आशीर्वाद करनेके दिव और अच्छी तरह देख ली जायगी फिर भी गृहिणी सहसत हुई, पक्की वात नही कहने दी नवीनचन्द्रने

परिणीता श्१२ आसानीसे अगीकार कर लिया था, वेसे ही जन्मभूमिकी निविह्र निरतब्धता ओर साधुयेकी भी उन्होंने खोया नहीं था मा शेखरके लिए कितने गवैकी वस्तु है, यह बात उसकी मा नहीं जानती जगदीदवरने शेखरको अनेक वस्तुएँ दी हैं। अनन्यसाधारण स्वास्थ्य, रूप, ऐश्वय, बुद्धि,--परम्तु इस जननीकी सन्‍्तान हो सकभनेके सौभाग्यको वह सन, बचन, कायसे भगवानका सबसे बडा दान सममता हे माने कहा,--“बहुत अच्छी कहकर चुप रह गया जो 2” शेखर फिर जरा हँसकर नीचेको निगाह करके बोला, “तुमने जो पूछा, सो ही तो बताया ।'' मा हँस दीं शेली, “कहाँ बताया ? रंग केसा है, गोरा ? किसके समान है ? अपनी ललिताके १” शेखरने मुँह उठाकर कहां, “ललिता तो काछी है मा,--उसकी अपेक्षा गोरा है।” “मुंह-आँखें केसी हैं. 2” “पुरी नहीं “तो कह दूँ तेरें बाबूजीसे “” शेखर चुप हो गया मा क्षण-भर लडकेके चेहरेकी तरफ देखती रहनेके वाद सहसा पूछ उठी, “क्यों रे, लड़की पढ़ी-लिखी कैसी है ?” शेखरने कहा, “सो तो पूछा नहीं मा [” अत्यन्त आदइचयमें आकर माने कहा, “पूछा क्‍यों नहीं रे? आजकल नुम लोगोके लिए जो सबसे जरूरी वात है, सो ही तने पूछी नहीं £ शेखरने हँसकर कहा, “नहीं मा, इस वातकी मुझे याद ही नहीं रही ।” लड़केकी बात सुनकर अबकी वार वे अत्यन्त विस्मित होकर उसके चेहरेकी तरफ देखती रहीं, फिर हँसकर बोली, “तो मालूम होता है, तू वहाँ ब्याह करेगा नहीं डोखर कुछ कहना चाहता था किन्तु उसी समय ललिताके जानेसे चुप रह गया | ललिता धीरेसे भुवनेश्वरीके पीछे आकर खडी हो गई उन्होने चायें हाथसे उसे सामनेकी तरफ खींचकर कहा, “'क्या है बिटिया १”? लक्षिताने चुपकेते कहा, “कुछ नही मा ![” ध्८

श्श्र्‌ परिणीता

[० किक अऋठन धरसीक हिट मोरसीजी कहो घर उप लालेता पहले झव्नश्वराका सा महा करता था, पर हाल मना 3००25 झजजनल तीर मौसी मर्जी हाती ललित होती नंब्से करके कहा था, मे ठेत माचा चर हथा नासता। मा हांठो हर तब्स वह

हर न्ाइसे

लालता उप रहा हे के जशेखरन ऋहा, दिखने आई हू. तो रसोई कब बनायेनों माने सवा, रसाइ क्‍या बना चैगी आरू्चचदे: घपछा अऑढ- 3 इीजज> ं>चयं: जप रसो£ जियो जझेखरन आज्वण्के साथ पूछा, “तो फिर उनके चंदा सताश का दतायेया सा £ इसके ने भी उस दिन क््ठा छा, ललिता ही दतायेया भा इसके मसासान उस दिन द्द्ू लता का सब दास करती हे ' सा ्ट रा जी 5. 5 सा हँसने लगीं बोलीं, “इसके मामाका क्या ठीक है, जो नुद्म आया कह' दिया | इसका अमी च्याह नहीं हुआ, इसके हाथक्ी खाबगा छकौन * अपनी मिसरानीकों भेज दिया हैं, वही बनायेगी:--हमारे यहां बड़ी बह चना रही है,--आजकल दोपहरको तो से उन्हींके यहाँ खाती हूँ ।"

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ज्ञखर समझ गण कि माने इस दुखी परिवार्का गुरु सार अपने ऊपर ले लिया है,--वह एक सनन्‍्तोषदी सांस लेकर जुप रद्द नय।

महीने-सर वाद एक दिन शामकों शोखर अपने कमरे ऋचपर अचलेटी हालतम पढ़ा हुआ एक अर्शजाका पन्‍्यास पढ़ रहा था। काफी मन लूगा हुआ था; इतनंम सलालता कमरेस आकर तब्निंके नीचेसे चावीका शुद्ध निकालऋर आवाज करती हुई दराज खोलने हूयी शझेखरने क्नितावपरसे निगाह वनेर हटठाये ही कहा: क्या है 7

ललिताने कहा; “रुपये ले रहा हूँ

शेखर हैं! कहकर पढने लगा। ललिता ऑचलमं रुपये बॉध्रक्नर उठ खड़ी हुईं। आज वह सजञ-्धजकूर आई थी। उनच्की इच्छा थी कि शेखर

ह।

उसकी ओर ठेके गोली; “दस रुपये से रहा हू शंखर सद्या :!

शेखरने 'अच्छा' कह दिया, पर उसकी ओर देखा नहीं। लिहाजा और कोई उपाय देखकर वह इधर-उधर चीज-वस्त घरने-उठाने लगी, और इस तरह झाउ-नूठ ही देर करने लगी सगर किसी

तर

तरह कोई नतीजा नहीं- लेकिन बाहर चली जानेंसे खाजेद्न पात्न॒ आकर खड़ा हो जाना ब््:

परिणीता ११३

इतना वह जानती है कि शेखरकी बिना आज्ञकि वह कहीं भी नहीं जा सकती,--किसीने उसको यह चात बताई नहीं थी और इस बातका उसके अनमें कभी कोई तर्क ही उठा कि क्‍यों और किस लिए, किन्तु जीवमात्रमें जो स्वाभाविक सहज बुद्धि है उसी बुद्धिने उसे सिखा दिया था। ओर कोई चाहे जो कर सकता ऐ, चाहे जहाँ जा सकता है मगर वह नहीं कर सकती, >--नहीं जा सकती तो वह स्वाधीन है और मामा-माईकी श्राज्ञा ही उसके लिए काफी है उसने दरवाजेकी ओटमेंसे धीरेसे कहा, “हम लोग थियेटर देखने जा रही हैँ न्‍

उसका झूदु कंठस्वर शेखरके कान तक नहीं पहुँचा,---उसने कुछ जवांब न्तहीं दिया

ललिताने फिर और जरा जोरसे कहा, सत्र कोई मेरे लिए खड़ीं हैं ॥”?

अब शेखरने छुन लिया, कितावकी एक तरफ रखकर पूछा, “क्या है £”

ललिताने जरा रूठकर कहा, “इतनी देरें सुनाई दिया? हम लोग ईथेएटर देखने जा रही हे

“पेखरने कहा, “हम लोग, कौन कौन £

“मैं, अन्नाकाली, चारुवालाका भाई, उसके मामा---

« मामा कौन हैं

ललिताने कहा, “उनका नाम है. गिरीन वाबू पॉच दिन हुए मुंगेरसे आये हैं, यहाँ बी० मं्गे,--अच्छे आदमी हैं

5बाह | नाम, घास, पेशा,--मीलूम होता है. खूब परिचय हो गया है! इसीसे चार-पॉच दिनोंसे सरकी चुटिया तक नही दिखाई दी,--शायद तांश खेला जा रहा होगा ६“

सहसा शेखरके बात करनेका ढंग ठेखऊर ललिता डर गई। उसने सोचा शी नही था कि ऐसा कोई प्रश्न उठ सकता है। वह चुप रही

शेखरने कहा, “इधर कई दिनसे खूब ताश हो रहा था

ललिताने यूँट-सा भरकर ग्टंढु खवरमें कहा, “चारुने कहा था

“चारुने कहा था, क्या कहा था £” क्रहकर शेखरने मुँह उठाकर देखा, कर कहा, “अरे, एकदम कपड़े अपड़े पहनकर तैयार होकर आना हुआ है [--अच्छा जाओ

हक

ललिता गई नहीं, वही चुपचाप खडी रही

ञ्क्ः

५]

बजट ही

र््ि डर परिणीता वगलवाले मक्ानकी चारुवाला उसकी बरावररी न्‍ऊ ८5 ही रीम्द्रक ...हत... अमल कि ब्राह्मतस ञा हर छझयर श्र सः डी एक जिराखसका डूकर दर सदर ऊानना ष् ' गिरीस्द्र पॉँच सात साल पहले छुछ दिनक्रे लिए एम बार टबर आया था।

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रहा था, फिर उसे क्‍लझते छआानकी जसरत भी नह

न्न पहचानता नहीं था | ललिताशोे फिर ०. », 23 कह भ्कृ हमर ने टी क््ये 27० के झौर नी खडी देखझर उसने कहा, “मृठमृठओों खदी क्यो हो, जाओ। आओ

पॉचेक मिततट चपचाप खडी रहनेके वाद ललिताने वीरेसे पृद्ठा, “जाऊँ:६“ जानेकी कह तो दिया ललिता |”

शेखरका रुख देखकर ललिताका थिएटर देखनेका शाीक जाता रहा, लेकिन उसके जाये वगेर भी नहीं बनता _. वात हो चुकी थी कि बह आधा खर्च ठगी और चारुके मामा आशय खर्चे रंगे

चारुके घर सब फीई उसके लिए अधीर होकर वाट देख

ज्यो देर हो रही है त्यो त्यो उनकी अथीरता भी बढती जा रही है,--ब्ह बात साफ चौड़े दीख रही थी, लेकिन कोई उपाय उसे ढेंढे नहीं मिल रहा है हुक्सके जाय, इतना साहस भी उससे नहीं था फिर दो-तीन मिनट चुप रहकर जगेली, सिफे “आज-सरके लिए,--जॉऊ ”?

शेखरने क्रितावकी एक तरह फेंकक्र घमकाते हुए कहा, “परेशान करो लालेता, जानेकी तबीयत हो, जाओ, भलाई-बुराई समझने लायक तुम्हारी काफी उम्र हो च॒की

ललिता चॉाक पडी | शेखरकी डॉठ-फठकार खाना उसके लिए नया नहीं है, इसका उसे अभ्यास सी था, मगर इधर दो-तीन सालके भीतर उसने ऐसी डॉट कमी नहीं सुनी उधर उसकी मिन्र-मंडली वाट देख रही है, वह खुद सी कपड़े पहनकर तैयार है, इस वीडमे रुपये लेने आई तो इस विपत्तिका सामना

करना पड़ा। अब उन लोगोके आगे वह क्या कहेगी

कही जाने-आनेके वारेमे शेखरकी तरफसे उसे अवाध स्वाधीनता थी। उसी जोरसे वह विलकुल कपड़े-अपड़े पहनकर तैयार होकर आई थी। अच उसकी 20277

श्तना स्पद था कि आज तेरद्द

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£ 52% सही है| ने सांग

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श्र परिणीता श्श्जु

सालकी उम्रमें पहले-पहल उसका अनुभव करके वह अतरंगसे मर मिटने ज्गी | मारे अभिमानके आंखोंमें ऑसू भरकर वह और भी पॉचेक मिनट चुपचाप खडी रहकर आँखे पोछती हुईं चली गई अपने घर जाकर उसने महरीसे अजन्नाकालीको बुलवाकर उसके हाथमें दस रुपये देकर कहा, “आज तुम लोग चली जाओ काली, भेरी त्वीयत खराब हो रही है,--सहेलीसे कह देना, में नही जा सकूँगी ।”

कालीने पूछा, “तबीयत खराब है जीजी ?”

“सेरमें दर्द हो रहा है, जी मतला रहा है,--बहुत तबियत खराब हो रही है ।” कहकर वह विस्तरपर एक करवथ्से लेट रही। इसके वाद चारुने आकर मनाया-समम्राया, जिद की, मामीतते सिफारिश करवाई,---मगर किसी भी तरह उसे राजी नहीं कर सकी

अन्ञाकाली दाथमें दस रुपये पाकर जानेके लिए छटपटा रही थी; कहीं इस अऋफटमें जाना हो सके, इस डरसे चारुको अलग ले जाकर उसने रुपये दिखाते हुए कहा, “जीजीकी तबीयत खराब है, वे जायेंगी तो क्या हुआ, चारु जीजी | सुमे रुपये दे दिये हैँ, ये देखो,---चलो, हम लोग जायें।” पारु समझ गई, अन्नाकाली उम्रमें छोटी होनेपर भी वुद्धिमें किसीसे "कम “नहीं वह राजी होकर उसे साथ लेकर चली गई

दर

चारुबालाकी मा मनोरमाके लिए ताश खेलनेसे बढ़कर प्रिय वस्तु संसार- में और कोई नहीं थी। मगर खेलका नशा जितना था, दक्षता उतनी नहीं थी उनकी यह त्रुटि दूर हो जाती थी ललिताकी पाकर | वह बहुत अच्छा खेल जानती है मनोरमाके ममेरे साई गिरीन्द्रके आनेके बादसे इधर पदोपहरको उनके घर खूब जोरोसे ताशका खेल होता था गिरीन्द्र मर्दे ठहरा, अच्छा खेल जानता है, लिहाजा उसके विपक्षमें खेलनेके लिए मनोरमाक्रो ललिता अवश्य चाहिए

थियेटर देखनेके दूसरे दिन यथासमय लक्षिता जब मनोर॒माके घर पहुँची तो उन्होंने उसे लिवा लनेके लिए महरी भेजी ललिता उस समय एक मोदी नकापीपर किसी ऑग्रेजी कितावसे अनुवाद कर रही थी, वह नहीं गई

उसकी सहेली भी आई, पर वह भी कुछन कर सकी। अन्तर्मे मनोरमा

११६ - परिणीता खुद आई और उसकी कापी-आपी एक तरफ फेंककर बोली, “चल, उठ बढ़ी होनेपर तुझे सजिस्ट्रेटी नहीं करनी है, ताश तो बल्कि खेलना भी पड़ेगा,---चेल ।” ललिता भीतर ही मीतर बड़े संकटमें पड गई और रुआसी-सी होकर बोली, “आज तो कसी तरह जाना नहीं हो सकता, बल्कि कल जाऊँगी ॥7 मनोरसाने एक सुन्ती, अन्तमें उसकी मामीसे कहकर लिवा ही ले गई इस तरह उसे आज भी जाकर गिरीन्द्रके विपक्तुमें ताश खेलना पड़ा मगर खेलः जमा नहीं वह उतना मन ही लगा सकी; जब तक बेठी अनमनी-सी रही. और जल्दी ही उठ खडी हुईं जाते समय गिरीन्द्रने कहा, “कल रातको आपने रुपये भिजवा दिये, मगर, गईं नहीं ? कल रात फिर चले ।” ललिताने सिर हिलाकर घ्ृदु करठसे कहा, “नहीं मेरी तबीयत बड़ी खराक हो रही थी ।”

गिरीन्द्रने हँसकर कहा, “अब तो तबीयत ठीक हो गई, चलिए कल चला जाय।

“नहीं नहीं, कल सुझे फुरसत नहीं मिलनेकी ।” कहकर ललिता जल्दीसेः चली गई आज सिफे शेखरके डरसे ही उसका मन खेलनेमे नहीं लग रहा हो सो बात नहीं, उसे खुद सी वड़ी शरम रही थी

शेखरके घरकी तरह इस घरमे सी उसका बचपनसे आतना-जाना चला आा रहा है, और घरवालोके सामने जैसे वह रहती है उसी तरह सबके सामने निकलती बोलती रही है इसीसे चारुके सामाके सामने सी उसे निकलने और वोलने-चालनेमे कोई संकोच नहीं था परन्तु आज गिरीन्दके सामने बैठकर खेलते समय शुरूुसे अन्त तक उसे बराबर यही मालूम होता रहा कि इत कई दिनोके परिचयमे ही गिरीन्द्र से जरा कुछ विशेष प्रीतिकी निगाहसे देखने लगा है मुरुषकी प्रीतिकी निगाह इतनी वड़ी लज्जाकी वात है, इस वातकी उसने पहिले कसी कल्पना भी नहीं की थी

घरपर जरा देर दिखाई देनेके वाद ही वह कटपट शेखरके घर जाकर उसके कमरेसे पहुँच गई: और चटसे कामंस लग गई। वचपनसे ही इस कमरेका छोटा सोटा काम-काज उसीको करना पड़ता था किताबे वगैरह उठाकर ठीकसे

रखना, टेविल सजा देना, दावात-कलस-कागज फाइ-पोछकर ठीक ढंगसे रखना-करना,--थे सब कास उसके बिना किये और कोई नहीं करता था!

परिणीता २२७

छुहद-सात दिनकी लापरवाहीसे बहुतसा काम जम गया था, उन सब च्रुटिओओको चह शेखरसे आनेके षहिले ही दूर कर देनेके लिए कमर कसके लग गई लक्षिता भुवनेश्वरीसे मा कहती थी। समय पाते ही वह उनके पास रहा करती और खुद घरके किसीको गेर नहीं समझती थी, इसलिए और कोई भी उसे गेर नहीं समकता था। आठ सालकी उम्र ही मा-वापकों खोकर उसने ननिद्दालमें प्रवेश किया था तबसे वह छोटी वहनकी तरह शेखरके आस-पास घूम-फिरकर उससे पढ़ना-लिखना सीखकर बड़ी हो रही है वह शेखरके स्नेहकी पात्री हे, इस बातको सभी जानते थे पर इस बातको कोई नही जानता था कि वह स्नेह अब कहों तक जा पहुँचा है और तो और ललिता तकको इस बातका पता नहीं था वचपनसे ही सब कोई शेखरसे उसे एक ही तरहसे इतना ज्यादा लाइ-प्यार पाते देखते आये हैँ कि आज तक उसका कोई भी लाड-यार किसीऋ निगाहमें खटका नहीं है, और इनका कभी कोई आचरण ही किसीकी निगाहपर चढा है इसीलिए, वह कभी किसी दिन इस घरमें वहूके रूपमें स्थान पा सकती है, ऐसी सम्भावना तक किसीके . मनमें पैदा नहीं हुईं ।--न छलिताके घर और भुवनेश्वरीके मनमें ललिताने सोच रखा था कि काम खत्म करके शेखरके आनेसे पहले ही चह चली जायगी, परन्तु अन्य-मनस्क होनेके कारण घड़ीकी तरफ उसका ध्यान ही नहीं गया। सहसा दरवाजेके वाहर जूतेकी मच-मसच आवाज सुनकर मुँह उठाकर देखते ही वह एक तरफ हटके खड़ी हो गई। शेखरने कमरेमें घुसते ही कहा, “आ गई ! तो फिर कल लौडनेमें कितनी रात हुई थी १” ललिताने कोईं जवाब नहीं दिया मि शेखर एक गद्दीदार आरास-कुर्सापर सहारा लेकर लेट गया, बोला, “लौटी कब ? दो बजे? या तीन वजे ?--मुँहसे बात क्यों नहीं निकलती १” ललिता उसी तरह चुपचाप खडी रही। शेखर नाखुश होकर बोला, “नीचे जाओ, मा बुला रही हैं ।” भुवनेश्वरी भण्डार-घरके सामने बेठी जछ-पानकी तश्तरी लगा रही थी खलिता पास जाकर बोली, “भुमे बुला रही थी भा १” “नहीं तो” कहकर उन्होने ललिताके चेहरेकी तरफ देखते ही कहा---

११८ परिणीता

“चेहरा तेरा ऐसा सूखा सा क्‍यों है ललिता £ कुछ खाया पीया नह शायद असी तक

ठलिताने सिर हिला दिया

भुवनेश्वरीमे कहा, “अच्छा जा, तू अपने सश्याको जल-पान देकर सेरे पास आ।

ललिता थोड़ी देरमें जल-पावकी तश्तरी हाथमें लिये ऊपर पहुँची वहाँ देखा कि शेखर उसी तरह आंखे मीचे पडा है, आफिसके कपड़े तक नहीं बदले हैं, मुह-हाथ सी नहीं घोया ! पास जाकर उसने धीरेसे कहा, “जल-पान लाई हूँ

शेखरने उसकी तरफ देखा नहीं, वोला, कहींपर रख जाओ

पर ललिताने तश्तरी रखी नहीं, हाथमें लिये हुए चुपचाप खड़ी रही

शेखर वगेर देखे सी समझ रहा था कि ललिता गई नहीं है, खड़ी है। दो-तीन मिनट चुप रहकर वोला, “कब तक खड़ीं रहोगी ललिता, सुर अमी देर है, रखके नीचे जाओ

ललिता चुपचाप खड़ी खड़ी सीतर ही भीतर गुस्सा हो रही थी, मृढु- स्वर्म वोली, होने दो देर, मुझे भी नीचे कोई काम नहीं

शेखर आंखें खोलकर हँसता हुआ बोला, खर मुँहप्ते बात तो निकली ! नीचे कास नहीं, घरमे तो होगा ? और वहाँ भी हो तो, उस वगलवाले मकानमें होगा कुछ एक घर तो तुम्हारा है नहीं लक्षिता

“हॉ, सो तो नहीं ही है ! कहकर मारे मुस्सेके ललिता जल-पानकी तश्तरी धमसे टेबिलपर रखकर दनदनाती हुईं कमरेसे बाहर चली गई

शेखरने चिल्लाकर कहा, “शासके बाद एक बार आना [7

“सौ-सीो बार में ऊपर-नीचे नहीं जा सकती ।” कहकर ललिता चली गई |

नीचे पहुंचते ही माने कहा, भइयाको जल-यान तो दे आई, पर पान तो दे ही नहीं आई 2”

“मुझे; भूख लगी है मा, मुकसे अब नहीं जाया जाता और कोई दे आवे | कहकर ललिता घप-से बैठ गई

भाने उसके रूठे हुए चेहरेकी तरफ देखकर हँसते हुए कहा, “अच्छा तो खाने चठ, महरीसे भिजवाये देती हैँ

ललिता कुछ जवाब देकर खाने बैठ गई वह थियेटर देखने नहीं गई,

परिणीता ११९

फेर सी शेखरने उसे डाटा, इस ग़रुस्सेके कारण चार-पॉच दिन वह शेखरके

सामने नहीं गई; और मजा यह कि शेखरके आफिस चले जानेके वाद उसके कमरेका काम वह सब कर दिया करती थी। शेखरने अपनी गलती सममत लछेनेपर दो दिन उसे बुलवाया भी, पर वह गई नहीं

इस मुहल्लेमें एक अत्यन्त इद्ध सिखारी कभी कभी, भीख मॉगने आया करता था उसपर ललिताकी बडी दया थी आते ही वह उसे एक रुपया द्दे दिया करती थी। रुपया हाथ पड़ते ही वह बहुतसे अपूर्वे और असम्भव आशीर्वाद दिया करता और उपका इनना ललिताको बहुत ही अच्छा लगता वह कहता, ललिता पहले जनमर्म उसकी सा थी और इस वातको -वह ललिताको देखते ही समझ गया था। वह बूढ़ा लड़का उसका आज सबेरे ही दरवाजेपर पहुँचा और पुकारने लगा, मेरी मा जननी कहो हो £ सन्तानके आह्वानसे ललिता आज कुछ परेशानीमें पड़ गई | अभी शेखर कमरेमें है, वह रुपये लेने केसे जाय £ ईंधर उ्« देखकर वह मामीके पास -जई मामी असी हाल ही महरीको डॉट-फटकार कर नाश चेहरेसे रसोई -चनाने बैठी थीं; उनसे भी वह कुछ कह नहीं सकी, और वापस आकर ऑॉककर द्वेखा कि मिखारी दरवाजेके एक तरफ लाठी रखकर अच्छी तरह जमके बैठ गया है इसके पहले ललिताने उसे कसी निराश नहीं किया, आज उसे खाली हाथ लौटा देनेमें उसका मन राजी नहीं हुआ भिखारीने फिर पुकारा अज्ञाकाली दौड़ी आई और समाचार दिया, _ « जीजी, तुम्हारा यह बूढ़ा लड़का आया है न्‍ ललिताने कद्दा, - “काली, एक काम कर सकती है वहन : में काममें फंसी हुई हूँ, तू जरा दौडी चली जा, शेखर-भइयासे एक रुपया ले आ। काली दौड़ी गई और थोड़ी देर वाद उसी तरह दौड़ी आई, बोली, ४6 यह लो 93 ललिताने पूछा, “शेखर-भइयाने क्या कहा री?! कुछ नहीं | मुमसे कहा, अचकनकी जेवसे रुपया निकाल ले, मर “निकाल लाई ।”

२२० परिणीता

“ओर कुछ नहीं कहा ?

नहीं, और कुछ नहीं कहा ।” कहकर अज्नाक्ाली गरदन हिलाक़र खेलने चली गई

ललिताने सिखारीको दान देकर बिदा किया, परन्तु और दिनकी तरह वह खड़ी रहकर उसकी वाक्य-छुटा नहीं सुन सकी,--उसे कुछ अच्छा ही:

नहीं लगा

इधर कई दिनोसे उन लोगोंके णहाँ ताशकी बेठक खूब तेजीके साथ चल रही थी। आज दोपहरको ललिता वहों नही गई, सिर-दर्दका बहाना करके पड़ रही आज सचमुच ही उसका मन बहुत खराब था शामको उसमे कालीको बुलाकर पूछा, “काली, तू पाठ लेने शेखर-मड्याके यहाँ जाती है?"

कालीने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, जाती तो हैँ ।"

मेरी वात शेखर-भइ्या कुछ नहीं पूछते १” ;

नहीं। हॉ-हॉ, परसों पूछ रहे थे कि तुम दोपहरको ताश खेलने जाती: हो या नहीं

ललिताने उद्विन्न हो पूछा. “तूने क्‍या कहा १”

कालीने कहा, मैंने कह दिया कि तुम दोपहरको चारु जीजीके यहाँ ताश' खेलने जाती हो शेखर भइ्याने कहा, कौन कौन खेलता है ? मेने कहा ठुम और सहेली मा, चारु जीजी और उनके सामा ।---अच्छा तुम अच्छा खेलतो हो या चारु जीजीके मामा अच्छा खेलते हैं जीबी ? सहेली मा कह हैं, तुम अच्छा खेलती हो, ठीक है न?”

ललिताने उसकी वातका कुछ जवाब देकर सहसा बहुत नाखुश होकर

कहा, “तूने इतनी ज्यादा बाते क्‍यों कही £ सब वातोंमें ठुके दखल देना ही :

चाहिए, क्यों £ अब तुझे मैं कभी कोई चीज दूँगी।” इतना कहकर वह - भस्सा होकर चल दी।

काली दंग रह गई | ललिताके इस आकस्मिक परिवतेनका कुछ भी अर्थ : नही समझ सकी

मनोरमसाके थहों दो दिनसे ललिताको देखनेके बादसे गिरीन्द्र रमाको पहलेसे ही संदेह हो इधर दो दिनसे गिरीन्द्र था। शामको घूमने नहीं

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ताशका खेल वंद है,--ललिता नहीं आती + - उसपर आक्ृष्ट हो गया है, इसका मनो- गया था; उसका वह सदेह आज हृढ़ हो गया | * न्द्व जरा कुछ उत्सुक और अन्यसनस्क-सा हो गया ता, जब तब घरमें इधरसे उधर घूमा-फिरा करता है।०

परिणीता १२१४ आज दोपहरको उसने मनोरमासे आकर कहां, “जीजी, आज भी खेल: नहीं होगा * - मनोरमाने कहा, कैसे होगा गिरीन, खेलनेवाले कहो हैं ? नहीं तो आ, हम लोग तीन जने ही खेले ।' मिरीद्धने निरुत्साह होकर कहा, तीन जनोमें क्या खेल होगा जीजी * ललिताको क्यों नहीं बुलवा लेती !” “बह नहीं आयेगी। गिरीन्द्रने उदास होकर पूछा, “क्यो नहीं आयेंगी? उनके घरवालोंनि- सना कर दिया है क्‍या जीजी £_ मनोरमाने सिर हिलाऋर कहा, “नहीं तो, उसके घरवाल्ले तो ऐसे नहीं हैँ, ---वह खुद ही नहीं आती गिरीन्द्रने सहसा खुश होकर कहा, “तो तुम्हारे खद जानेसे वे जायेंगी ।” बात कह डालनेके वाद वह खुद ही मन ही मन अत्यन्त लज्जित- सा हो गया मनोरमा हँस दी वोली, “अच्छी बात है, मे ही जाती हूँ ।/ कहकर चली गई, और थोड़ी देर वाद ललिताको लाकर ताश खेलने बैठ गई दो दिनसे खेल हुआ नहीं था, इसलिए आज वहुत ही जल्दी खेल जम गया ललिताकी तरफ जीत हो रही थी दो घंटे वाद सहसा काली खड़ी हुई, बोली, “जीजी, शेखर-भइ्या बुला रहे हैं, जल्दी ललिताका चेहरा पीला पड गया, ताश बॉटना बन्द करके बोली, “मेखर-भइया आफिस नहीं ग्येः “क्या मालूम, फिर चले आये होगे |” कहकर वह सिर हिलाती 7 हुईं चली गई ललिता ताश रखकर मनोरमाके चेहरेकी तरफ देखकर संकोचके साथ बोली, “जाती हैँ, सहेली मा !” मनोरमाने व्यस्तताके साथ कहा, “सो क्यो री, और दो बाजी: खेल जा !” ललिता व्यस्तताके साथ उठ खडी हुईं, बोली, “नहीं सहेली मा, वे बहुत गुस्सा दोंगे ।” और जल्दी जल्दी कदम रखती हुईं चली गई

बटर हि ले

परिणीता गिरीसने “लेखर-सइया कीन हैँ, जीजी ४” हे मनोरमाने कहा, “वह जो सामने फाटकवाला चरढ्ा मकान हे उसी रहते हैँ गिरीखने गरदन हिलाते हुए कहा, “अच्छा,--उस मकानके नवीन बाबू इनके रिस्तेदार होगे 7 सनोरसाने लउकीके सुँहक्की तरफ देखकर मुसकराते हुए कह्दा, “रिश्तेदार कैसे ! ललिताके उस रहनेके मकान तककी दुब्ऊ हड्पनेकी फिकरमें हैँ ।” गिरीन्द्र आश्वयेके साथ देखता रह गया सनोरमा किस्सा बताने लगी--पिछले साल रुपयेके अभावमे गुरुचरण वावूकी ममली लडकीका व्याह नहीं हो रहा था, अन्तर बहुत ज्यादा व्याज- पर नवीन वाबूने मकान गिरवी रखकर रुपये उधार दिये थे यह कम कभी चुक नहीं सकता, और अन्तमें मकान नवीन बाबूका ही हो जायगा, इत्यादि मनोरमाने सारा किस्सा सुनाकर अन्तमें अपनी राय जाहिर की---बुढ़ऊ- की आन्तरिक इच्छा है कि ग्रुरुचरण बावूका मकान तुड़वाकर वहाँ अपने छोटे लड़के शेखरके लिए बड़ा-सा मकान वतवाये दोनों लड़कोंके लिए न्यारे- न्यारे मकान हो जायेंगे,--इरादा बुरा नही है। इतिहास सुनकर गिरीन्द्रको दु.ख हो रहा था, उसने पूछा, अच्छा जीजी, गुरुचरण वाबूके और भी तो लड़की हैं, उनका व्याह कैसे करेगे मनीरमाने कहा, “अपनी तो हैं ही, उनके सिवा ललिता भी है उसके मा-बाप नही हैं, इस साल उसका व्याह होना ही चाहिए। उन लोगोंके समाजमें सहायता देनेवाला कोई नहीं, जात लेनेको सभी हैँं,--उन लोगोंसे हंस लोग अच्छे हैं गिरीन ।” गिरीन चुप हो रहा मनोरमा कहने लगी, “उस दिन ललिताकी बात करते करते उसकी साई भेरे आगे रोने लगी थी,--कैसे उसका ज्याह होगा कुछ ठीक नही,--उसकी फिकर करते करते गुरुचरणका अन्न-जल छूट रहा है। अच्छा गिरीन, सुंगेरमे तेरे मित्रोंसे कोई ऐसा नही जो सिफ लड़की देख- कर ब्याह कर सके ऐसी अच्छी लड़की मिलना दुश्वार है ।”

मिरीन्द्र उदासीसे हँसता हुआ बोला, ',मित्र-वित्र कहों हैं जीजी मगर हा, रुपये पैसेसे में खुद जरूर सहायता कर सकता हैँ ।”

हि

परिणीता १२३

गिरीर्के पिता डाक्टरी करके बहुत-्सा रुपया और जमीन-जायदाद

छोड़ गये हैं। अब सबका

मालिक गिरीन्द्र ही है

मनोरमाने कहा, रुपया तू उधार देगा 48

८८.5 धार उधार क्या दूँगा

जीजी,--चाहँ तो वे चुका सकते हैं नहीं तो सही।”

सनोरसा अचम्भेमें पड़ गई बोली, ऋपये ठेनेसे तुझे फायदा ? वे:

तो हमारे रिश्तेदार ही रुपया देता है ?”

हैं, और समाजके,--ऐसे ही कोई किसीको

गिरीन्द्र अपनी वहनके मुँहकी ओर देखकर हँसने लगा, उसके बाद बोला जि ्‌ै

“समाजके आदमी हुए

तो क्या ? हैँ तो अपने देशके उनका हाथ काफी

तंग है, और मेरे पास रुपये मौजूद हैं ।--ठुम एक दके पूछ देखो जीजी,

दे अगर लेनेको राजी हों,

तो से दे सकता हूँ ललिता उनकी भी कोई नहीं

है, हमारी भी कोई नही है,--उसके व्याहका सारा खच् मै दे दूँगा।” .. -

उसकी बात छुनकर उसका अपना हानि-लाभ

मनोरमा विशेष सन्तुष्ट नहीं हुईं इसमें यद्यपि कुछ मी नही था, फिर सी, इतना रुपया एक

आदमी किसी दूसरे आर्दमीको दे दे, इस बातको कोई भी स्त्री प्रसन्नचित्तसे स्वीकार नही कर सकती चारु अब तक चुप बैठी सव छुन रही थी | वह अत्यन्त मे मे होकर उछल पड़ी, बोली, “हों मामा, दें दो, मैं सहेली मासे कहे आती हूँ जाकर।” पर उसकी माने उसे डॉट दिया, “व्‌ चुप रह चार लड़कियोको इन सब बांतोमें पडना चाहिए कहना होगा तो में जाकर कह दूँगी।” गिरीर्दने कहा, “हो तुम्दी कहना जीजी परसो रास्तेमें खड़े खड़े गुरुचरण वाबूसे मेरी जरा वातचीन हुईं थी,-“वातचीतसे मालूम होता 5

8

बढ़े सरल आदर्मी

है, तुम क्या समझती हो जीजी £”

मनोरमाने कहा, “मैं सी यही समझती हूँ और सब भी यही कहते हैं।

चे स्त्री-पुरुष दोनो ही बड़े

सीधे साथे आदमी हैं इसीसे तो ढुख होता है

गिरीन, ऐसे आदमीको धर-द्वार छोड़कर निराश्रय होना पड़ेगा इसका सबूत

नहीं डेखा तने [--शखर शुगकर न्बल दी घर-भसर

वावू बुला रहे: हैं, खुदते ही ललिता केसी माटपट : मानो उन लोगोके हाथ विक-सा गया है, सगर

कितनी भी खुशामद क्यो करे कोई, नवीन रायके फन्‍्देमें जो एक बार

पड़ चुका

है बह वच जाय, यह उम्मेद कोई नहीं कर सकता ।'

१२४ परिणीता

गिरीन्धने पूछा, “तो तुम कहोगी जीजी १”

“अच्छा, करेंगी रुपये देकर तू अगर उपकार कर सका ते अच्छा ही है ।” कहकर जरा हँस दी, फिर बोठी, “अच्छा, तुमे ऐसी क्‍या गरज पृडी है गिरीन १7

“बरज काहेकी जीजी, दुख-कष्टमें परस्पर एक दूसरेकी सहायता करनी ही चाहिए |” कहता हुआ वह छज्ित-मुखसे वाहर चला गया। पर दराजे- के बाहर तक जाकर फिर लौट आया और बठ गया

उसकी जीजीने कहा, “फिर बैठ गया जो १”

मिरीन्द्रने हंसते हुए कहा, “इतना जो रोना रोया जीजी, सो सब कऋूठ भी तो हो सकता है १”

सनोरसाने विस्मित होकर कहा, क्यों £!

गिरीन्द कहने लगा, “उनकी-लल्लिता जिस कदर रुपये खर्च करती है उससे तो मालूम होता हे वह जरा सी दुखी नहीं। उस दिन हम लोग 'थेयेटर देखने गये थे वह तो खुद नहीं गई, मगर फिर मी दस रुपये उसने अपनी वहनके हाथ सिजवा दिये चारुसे पूछो न, केसा ख्चे करती है, सहीनेमे बीस पचीस रुपयेसे कमर्में उसका अपना ही खचे नही चलता ।”

सनोरमाको विश्वास नही हुआ

चारुने कहा, “सच्ची सा सब शेखर बाबूसे लेकर खच करती हैं। 'अबसे नही, छोटेपनसे ही वह वरावर शेखर-भश्याकी आलमारी खोलकर रुपये निकाल लाया करती है,---कोई कुछ नहीं कहता

मनोरमाने लड़कीकी तरफ देखकर संदिग्ध भावसे पूछा, “रुपये निकाल "लाती है, शेखर वाबू जानते हैं १”

चारुने सिर हिलाकर कहा, “जानते हैं उनके सामने ही तो निकालती हैं पिछले महीनेमें जो” अज्ञाकालीकी गुड़ियाका व्याह हुआ था, उससें रुपये किसने दिये थे : सब तो सहेलीने दिये थे ।”

सनोरमाने कुछ सोचकर कहा, "क्या जानें ! पर एक बात है, बुढ़ऊके लड़के बाप जसे कजूस नही,---उन सबपर माका असर पड़ा है ---इसीसे उनमें दया है इसके सिवा ललिता लड़की भी बहुत अच्छी है, बचपनसे हमेशा साथ-साथ रहीं है, भशया भइ्या कहती आई है, इससे उसपर. संबकी

ममता हो गई है अच्छा चारु, तू तो जाया आया करती केतो मालूव

परिणी ता श्र्ण होगा, अगले माहमें शेखरका च्याह होने वाला है न? खुना है, लड़कीवालेसे '

बुढ़ऊको काफी रुपया मिलेगा ।* चारने कहा, “हों मा, अगले मावमें ही होगा,--सब पक्का हो गया है।”

गुरुचरण उन आदमियोमेंसे हैं जिनके साथ किसी भी उम्रका कोई भी -आदमी विना किसी संकोचके बात-चीत कर सकता है। दो ही दिनकी -बातचीतसे गिरीन्द्रके साथ उनकी स्थायी मित्रता-सी हो गई गुरुचरणके चित्त था मनमें जरा भी दृढ़ता नहीं थी, लिहाजा, बहस करनेमें काफी दिंसचस्पी द्वोते हुए भी बदसमें हार जानेसे उन्हें जरा भी असन्तोप नहीं होता था। गिरीन्द्रको उन्होंने शामके वाद चाय पीनेका निमन्त्रण दे रखा था। आफिससे लौटते लौटते दिन छिप जाया करता था वर झा मेंह-दाथ -घोकर तुरत कहते “ललिता, चाय तैयार हुईं बिटिया काली जा जा, अपने गिरीन मामाकी ठुला ला जल्दीसे ।/ इसके बाद दोनों चाय पीते -और बहस करते रहते ललिता किसी किसी दिन मामाक्री आडमें वेठी छुपचाप छुना करती उस दिन गिरीन्द्रकी युक्तियों सौगुनी बढकर निकला करती अकसर आधुनिक समाजके विरुद्ध तक हुआ करता था समाजकी हृदय-हीनता, असंगत"उपद्रव आर अत्याचार आदि सभी वातें हुआ करतीं पहल्ले तो समथन करने योग्य वास्तवमें कुछ होता नहीं, उसपर गुरुचरंणके खत्पीड़ित अशान्त हृदयके साथ गिरीन्द्रकी वातें मिल जातीं वे अन्तमें जरदन हिलाकर कहते, ठीक वात है गिरीन, किसकी इच्छा नहीं होती कि अपनी लड़कियोंकी यथासमय अच्छी जगह हवाई दें, मगर, दें कैसे ! समाज कहता है. कि लड़कीकी उम्र हो चुकी, व्याह कर दो, मगर व्यादनेका इन्तजाम 'नहीं कर ठें सकता ठीक कहते हो गिरीन, मुझको ही देखी न, मकान तक गिरवी रख देंना पढ़ा, दो दिन वाद वाल-बच्चोंकी लेकर राहका मिश्षारी बनवा पढ़ेंगा,- समाज सेव हद थोड़े ही कहेगा कि आओ, हमारे घर आश्रय लो ! बताओ भला - गिरीन्द्र चुप रहता, गुरुचरग डुद ही कहते रहते, बिल्कुल ठीक बात ह॥ै। ऐसे समाजसे तो जात जाना ही अच्छा पेट भरे या भूखे रहें, शान्तिसे

तो रह सकते हैं। जो समाज ढु खीऊा दु नहीं समम्तता, आ[फत-विपत्मे

क्र

धरिणीता हिम्मत नहीं वैंधाता, वह समाज मेरा नहीं --मुभ जैसे गरीबोंका नहीं है वह,--- समाज तो बड़े आदमियोका है अच्छा है, वे ही रहे समाजमें, हम लोगोंको' जरूरत नहीं उसकी ।” कहकर गुरुचरण सहसा चुप हो जाते। .,

इन युक्ति-तकोको ललिता सिर्फ़ सन लगा कर सुनती ही थी, वल्कि रातको- बिछोनेमें पड़ी पड़ी जब तक नीद आती तब तक उनपर अपने मनमभे विचार करती रहती हर एक वात उसेके मनपर गम्भीरताके साथ मुद्रित होती रहती | * वह नन ही मन कहती, “वास्तवमें गिरीन वावूकी वाते अत्यन्त न्‍्यायसंगत हैं।”'

सासासे उसका बहुत ज्यादा स्नेह था, उस मासाकों अपने पक्षमें लेकर गिरीन्द जो भी कुछ कहता सब उसे अश्रान्त सत्य मालूम होता। उसके मामा: खासकर उसीक्े लिए इतने उद्ठिम हो उठे हैं, अज्न-जल तक उन्हें नहीं रुच रहा है,--उसके निर्विरोधी दु खी मामा, उसे आश्रग्र देकर ही तो इतना केश पा रहे हैं ! मगर क्यो ? मामाकी जात क्यो जायगी ? आज मेरा व्याह हो जानेके बाद कल ही अगरं में विधवा होकर घर लौट आऊँ, तब तो जात जायगी ! फिर इसमे भेद क्या है ! गिरीन्द्रकी इन सब वातोकी प्रतिब्बनि जो उसके भावातुर दृदयमें जाकर गूँजती रहती, उसे वह बाहर निकालकर उसपर अच्छी तरह विचार करती और विचार करते करते सो जाती !

उसके सामाके पक्षमे उनके ढु खको समझकर जो कोई वात करता, उसके- सतसे अपना सत्त बगैर मिलाये ललिताके लिए और कोई रास्ता ही नहीं: था। ब्रह गिरीन्द्वपर आन्तरिक श्रद्धा करने लगी

कऋसश गुरुचरणकी तरह वह भी संध्याकें चाय-पानके समयके लिए: अतीक्षा करने लगी

नदी

पहले गिरीन्द्र ललिताको आप' कहा करता था गुरुचरणने एक दिन कहा, “उसे आप' क्यो कहते हो ग्रिरीन, तुम, कहा करो ।” तबसे उसने ललिताको 'तुम' कहना शुरू कर दिया है।

एक टिन गरिरीनने उससे पूछा, “तुम चाय नहीं पीती ललिता ?”

ललिताके सुँह नीचा करके सिर हिलानेपर गुरुवरणने कहा, “डसके शेखर-भइयाकी मनाही है ।लड़कियोका चाय पीना उसे अच्छा नही लगता।”

कारण खुनकर गिरीन प्रसन्न नहीं हो सका ललिता इस बातकी समझ गई।

आज शनिवार है। और दिलोंकी अपेक्षा इस दिनकी बैठक उठनेमे जरा ज्यादा देर होती थी

परिणीता १२७ चाय पीना सत्म हो चका था। झुरुचरण आज आलोचनाओंम खूब उत्साह- के साथ भाग नहीं ले रहे थे, बीच वीचमें अन्यमनस्क हो जाते थे

गिरीद इस बातकी सहन ही ताड़ गया , बोला, आज आपकी तबीयत शायद अच्छी नहीं है?”

गुरुचरणने मुँहसे हुका हटाते हुए कहा , * क्यों * तबियत तो ठीक ही है ।”

मितीख्ने संकोचके साथ कहा , तो आफिससें क्या कुछ---

“नही , सो कोई बात नहीं। कहकर ग॒ुरुचरणने कुछ आश्चयके साथ गिरीन्कके चेहरेकी तरफ देखा उनके भीतरका उद्वेग बाहर प्रकट हो रहा था, इस चातको वह अत्यन्त सरल ग्राकृतिका आदमी समझ ही न॑ सका।

ललिता पहले बिलकुल चुप रहा करती थी परन्तु अठ बीच वीचमें दो एक वात बोल भी दिया करती दे। उसने कहा , हा मामा, आज तुम्हारा मन शायद अच्छा नही है।

गुरुचरण हँसते हुए उठ बठे , वोले , “अच्छा यह वातहे ! हो बिटिया, दषीक कहती दे तू, आज मेरा मन सचमुच ही अच्छा नहीं है ललिता और गिरीन्द्र दोनो उनके चेहरेकी तरफ देखते रहे | गुरुतरणसे कहा, “नवीन भइयाने सब कुछ जानते हुए भी कुछ कड़ी कड़ी बातें रास्तेंमें खड़े खढ़ें सना दी आर उनको भी इसमें क्‍या दोष दूँ छह महीने हो गये, एक पैसा भी व्याज नही दे सका, असल तो दूर रहा। वातकों समझकर छछिता उसे दवा ठेनेके लिए व्यस्त दो उठी उसके झदूर्‌दर्शी मामा कही घरकी सब वार्ते दूसरेके आगे कह बेठें, इस डरसे लक्षिता कटपट कह उठी, “ठुम कुछ फिकर मत करो मामा, बादमें सव ठीक

दो जायगा ! हि परन्तु गुरूचण उधर गये ही नहीं ; बल्कि उदासीके साथ ईसकर कहने

लगे, “बादमें क्या ठीक हो जायगा विटिया? असलमें वात यह हे गिरीन, भेरी बिटिया चाहती हे कि उसका यह बूढ़ा मामा इछ सोच फिकर करे, सिश्चिन्त रहे। मगर, वाहरके लोग तो तेरे दुखी मामाके दुखकी तरफ

देखना ही नहीं चाहते, ललिता ! 2 “... गिरीखने पूछा, “नवीन बावूने आज क्या कहा था 272

ललिता नहीं जानती थी कि गिरीन्द्रको सब बांतें मालूम हैं। वह इसीसे उसके प्रश्नको असगत कुतूहल समभ्त कर भन ही मन अत्यन्त कुद्ध हो उठी 58

१२८ परिणीता गुरुवरणने सब गर्ते खुलासा कह दी। नवीन रायकी स्री बहुत दिनोंसे अजीर्ण रोगसे कष्ट पारही हैं, फिलहाल रोय कुछ वढ़ जानेसे चिकरित्सकनि वाबु-परिवर्तनके लिए कहा है इसलिए उन्हे रुपयोकी जरूरत हैं, लिहाजा इस समय गुरुचरणको श्लाज तकका पूरा व्याज और कुछ असल रुपये भी ढेने होंगे। गिरीन्द्र कुछ देर स्थिर रहकर धीरेसे बोला, एक बात आपसे कई दिनसे कहने कहनेको हैँ, पर कह नहीं पाया, अगर कुछ खयाल करें तो आज कह दूँ। * गुरुचरण हँस दिये, बोले, “मुझसे तो कोई वात ऋहनेमें कमी कोई सकुचाता नहीं गिरीन, क्या बात है 2” गिरीन्द्ने कहा , जीजीसे सुना है कि नवीन बाबू ब्याज बहुत ज्यादा लेते हैं ,और मेरे बहुत रुपये यों ही पढ़े रहते हैं,--किसी काम नहीं आते ओर नवीन बावूकी रुपयोंकी जरूरत भी है, इससे मेरा कहना है कि हों तो उनके रुपये आप चुका ही दें (” ललिता और घुरुचरण दोनों आश्वय-चक्रित होकर उसकी तरफ देखने लगे। गिरी अल्यन्त संकोचके साथ कहने लगा, झुमे असी तो रुपयोंकी कोई खास जरूरत नहीं, इसलिए कहता हूँ कि आपको जब सहूलियत हो दे दीजिएगा,--उन लोगोंको जरूरत है , दे दें तो अच्छा है , अगर---? गुरुचरणने धीरेसे पूछा, “सब रुपये तुस ढे दोगे १” गिरीन्धने मुंह नीचा करके कहा, हों हैं, इस वक्त उनका काम निकल जाएगा ।” गुरुचरण उत्तरमें कुछ कहना ही चाहते थे, इतनेमें अज्ञाकाडी दौड़ी चली आई ।वोली, “जीनी, जीजी, जल्दी, जल्दी--शेखर भश्याने कपड़े पहननेकों कहा है---,थिएटर देखने जाना होगा ।” कहकर वह जैसे आई थी वैसे ही भाग गई उसकी व्यप्नता देखकर गरुरुवरण हँस दिये। ललिता स्थिर होकर बैठी रही अज्चाकाली दूसरे ही क्षण वापस आकर वोली, “कहाँ, उठीं तो नहीं जीजी , हम सब तुम्हारे लिए खड़े हैं !” फिर भी ललिताके उठनेके कोई लक्षण नहीं दिखाई दिये। वह आखिर तक उन जाना चाहती थी, किन्तु ग्रुरुचरणने कालीके मुँहकी तरफ देखकर झुसकराते हुए ललिताके साथेपर हाथ रखकर कहा, “तृ जा बिटिया, ढेर मत कर,--तेर लिए सब वाट देख रहे है ।' आखिर ललिताकी उठना ही पढ़ा। परन्तु जामेके पहले उसने गिरीनके

परिणीता जे

5 2०५2 शक,

चेहरेकी तरफ कृतन दृष्टि डाली और धीरेसे बाहर चली गई | यह चात विरीन्द्रसे छिपी रही

इसेक सिनट बाद ऋपे पहनकर , तैयार होके , वह पान ढेनेके बहाने और एक बार बेठकमे आई

मिरीसख्त चला गया। अकेले सुहचरण मोटे तक्रियेपर सिर रक़खे अकेले लेटे हुए हैं ,और उनकी मेंदी हुई दोनो ऑखोंके किनारोसे ऑल वह रहे हैँ थे आनंदाश्ट हैं, इस बातकी ललिता समझ गई समझ जानेके कारण ही से उनके व्यानमें व्याधात नहीं पहुँचाया,--जैसे चुपकेसे आई थी वेसे ही न्चपचाप वापस चली गई

थोड़ी ढेर बाद जब वह शेखरके घर पहुँची, तव, उसकी आँखेंमें भी ऑस मर आये थे। काली थी नहीं वह सबसे पहले गाड़ीमें जा बैठी थी। शेखर अकेला अपने झमरेमे चुपचाप खडा खड़ा शायद उसकी बाट देख रहा था रूलिताके पहुँचनेपर उसने मुँह उठाकर उसकी आसू-भरी ओखोंकी तरफ ढेखा

बह आठ दस दिनसे ललिताको ठेख पानेके कारण मन ही मन बहुत नाराज हो रहा था, परन्तु, अब उस बातको वह भूल गया और उद्दिम्त होकर यूछने लगा, यह क्‍या, रो रही हो क्या

ललिताने सिर कुकाकर जोरसे गरदन हिला दी

इधर कई दिनोंसे ललिताकी बिलकुल देखनेसे शेखरके मनमें एक तरहका परिवर्तन हो रहा था, इसीसे वह पास आकर दोनों दा्थोंसे सहसा ललिताका पढ़ उप्र उठाकर बोल उठा, सचमुच रो रही हो तुम तो | क्या हुआ द् ललितासे अब आअपनेको सम्हाला गया वह वहींकी वहीं बेठकर आऑचलसे मुँह ढकके रो दी

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नवीन रायने मयव्याजके पूरे रुपये पाई पाई गिन लेनेके वाद रेहनका रुका आपस करते हुए कद्दा, आखिर रुपये दिये किसने, वताओ सी तो

रुपये वापस पाकर नवीत बाबू ज़ा सी सस्तुष्ट नहीं हुए तो उन्हें इसकी आशा हीं थी ओऔर इच्छा, वल्कि यह मकान तुड्वाकर किस ढंगका नया वनवाएँगे यहीं सोच रहे थे उन्होंने व्यंय कसकर कहा,

३३० परिणीता होनी हो साई साहब, दोय तुम्हारा नहीं. दोष है मेरा रुपया वापस साँगना ही कसूर हुआ, आखिर क्लिझाल जो ठहरा : '

युरुचरणने अत्यन्त व्यथित होकर कहा, ऐसा क्या कहते हो भइया ! आप-

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रे सकता चुरा

के रुपयाका कजे चुकाया है, लेकिन आपकी कृपाका ऋण थोड़े ही चुक सकता हैं तदीन हँस दिये। वे अचुभवी आउ्मी ठहरे | इन सब चातापर विश्वास करते होते तो गुड बेचऋर इतमे रुपये कमा सकते वोले, सचमुच ही

अर्य &..«

अगर ऐसा सोचते साई साहण्, तो इस तरह रुपये नहीं चक्म देते मान लिया कि एक वार रुपये सोने थे, सो भी तुम्हारी भासीके लिए,--अपने लिए नहीं “-खेर, यह तो व्ताओ, कितने व्याजपर गिरठी रक्‍्खा है मकान

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जद सरुचरणन गरठन हिडलाकर कहा गरवा नहा रकसा,--च्याज३ वारेम भी कुछ वातचीत नहीं हुई

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विश्वास ग्क्ल्च्िपक अंन्‍नॉिनिड्िजजात कहते च्म्या तो यो # नवीतु वावूकों विश्वास नही हुआ, उन्होंने कहा, * कहते क्या हो, यों ही ? इ4६ >> भदया कक बीज अ2202“क 07% 5 न्ञक हा भध्या, एक तरत्स या हा समझा | लड़का > 3 दयावान्‌ है

पड छडका “--लडका कोन

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नुरुचरणने इस प्रश्नका कोई जवाब नहीं दिया, चुप रहे ॥--जितना कह डाला उतना कहना सी उचित नहीं था नवीन उनके सचकी वातको ताड़ कर मच ही सन सुसकराते हुए वोले “४ जब कि ऋहनेकी मनाई है तो जरूरत नहीं कहनेकी मगर संसारमें बहुत कुछ ठेखा है मेने, इसलिए सावधान ऋ्िये देता हूँ तुम्हें, वे चाहे कोई सी: हों, इतनी भलाई करते करते कही जालमें फेंसा लें ! * गुरुतरणने इस बातका कोंई सीघे घर लोट आये आय हरसाल इन्ही दिनो भुवनेश्वरी कुछ दिनके लिए पश्चिसकी तरफ घूमने चली जाया करती हैं। उन्हे अजीणेकी शिकायत रहा करती है, और इससे उन्हें भहीता है। रोग इतना ज्यादा नहीं था जितना नवीनने स्वार्थ-साधनके लिए गुरुचरणसे बढ़ाकर कहा था। खेर, कुछ सी हो. यात्राकी तैयारियों होने लगी

उस दिन शामके वक्त एक चसडढ़ेके सूठ-केसमे शेखर अपनी जरूरी शीककी चीजें सजाकर रख रहा था

_अन्नाकालीने कमरेम आकर कहा, “शेखर सइण, तुम लोग कल ऊाओंग 2 ?

बन मम कागज हाथमें 520. अल जवान चहा दया, कायज हू संकर

परिणीता ३१ शेखर सट-केसपरसे नह उठाऋूर बोला, फाली, तू अपनी जीजीको ओज 5, क्या क्य साथ ले असीसे पहुचा ढे

लालता इर साल माके साथ जाती हे, टस साल सी जायगी,---यही सअखरका मालूम था

कार्लीन गरदन हिलाकर कहा, जीजी तो जायगी नहीं

क्यों नहीं जायगी £

कालीने कहा, बाह, कमे जायगी ! माघ-फागनमें उसका ब्याह जो होगा, व्वूजी दूल्हा दूँढ़ रहे हैं

शेखर निर्मिमेष दृष्टिसे सन्न होकर उसकी तरफ देखता रह गया

कालीने घरमें जो कुछ सुना था, उत्साहके साथ सब कहने लगी, गिरीन वाबून कहा है, जितने भी रुपये लगे हम देंगे, अच्छा वर चाहिए चावूजी आज भी आफिस नहीं जायेंगे, खा पीकर कही वर देखने जायेंगे गिरीन बाबू भी साथ रहेंगे।

शेखर उुपचाप बेठा सनता रहा, और ललिता क्यो नहीं जाती, इसका भी कारण कुछ कुछ उसे मालूम हो गया

काली कहने रूगी, गिरीन बाबू बड़े अच्छे आदमी हैं, शेखर-सैया ममली जीजीके व्याहके वक्त बावूजीने मकान गिरवी रक्खा था ताऊजीके पास, सो बाबूजी कह रहे थे कि दो-तीन महीने बाद हम सबकी राहका प्िखारी हों जाना पढ़त्ता,--इसीसे गिरीन बाबूने रुपये दे दिये हं कल चावूनीमे सत्र रुपये ताऊजीको वापस ढे दिये हैं जीजी कह रही थी कि अब हम लोगोंको किसी वातका डर नहीं ठीक है शेखर भइया

उत्तरमें शेखर कुछ भी नहीं कह सका, उसी तरह एकटक देखता रहा।

कालीने पूछा, क्या सोच रहे हो शेखर भइया

अब शैखरका ध्यान भंग हुआ, जल्दीसे वोल उठा, कुछ नहीं काली, अपनी जीजीको जरा जल्दीसे भेज तो ढे बुला रहा हूँ, जा,

चौड़ी जा ।7 क्रालीं दठोडी चली, गई

शेखर खुले हुए सूड-केसकी तरफ एकठ्क़ देखता हुआ चुपचाप बैठा हा क्रिस चीजकी जरूरत है, किसकी नदही,--उसकी ऑआँखोंके सामने सब

आकाकार हो गया बुलाहट सुनकर ललिताने ऊपर आकर खिड्कीमेंसे ऑककर देखा कि उसके

श्र परिणीता

शेखर भइया जमीनपर एकटक नीचेकों निगाह किये चुपचाप बठे है उसके उनके चेहरेका ऐसा भाव पहले कभी नहीं देखा ललिता आश्चयमें पड़ गई और डर गई धीरे धीरे पास पहुँचनेपर शेखर ' आओ ' कहकर व्यस्तताके साथ उठ खडा हुआ

ललिताने आहिरतेसे पूछा, मुझे बुलाया था £

हो " कहकर शेखर क्षण-सर मौन रहा, फिर बोला, कल स्वेरेकी गाड़ीसे में माक्के साथ पश्चिम घूमने जा रहा हैँ। अबकी वार लौयनेमें शायद देरी होगी यह लो चाबी. तुम्हारे खचके लिए रुपये-पेसे जो आव- श्यक हो सब उस दराजसे हैं

हर बार ललिता भी साथ जाती है| पिछले साल इस मौकेपर उसने कितने आनन्दसे चीज-वस्त सम्हालकर रक्खी थीं! अबकी बार वह काम शेखर भइयाकों अकेले करना पड़ रहा है,--खुल्ले सूट-केसकी तरफ देखते ही ललिताकी उस बातकी याद गई

शेखरने ललिताकी तरफसे मुंह फेरकर . एक बार खेंसकर गला साफ करके कहा , सावधानीसे रहता , --और अगर कभी कोई खास जरूरत पड़े, तो भइयासे पता लेकर मुझे चिट्ठी लिख भेजना

इसके बाद दोनो चुप रहे | अबकी बार ललिता साथ नहीं जायगी, शेखरको यह वात सालूम हो गई है और उसका कारण भी शायद मालूम हो गया होगा , इस बातका खयाल करके ललिता मारे छजाके गड गड़ जाने लगी

सहसा शेखरने कहा , अच्छा , अब जाओ , 8मे अभी सब सामान

सम्हालकर रखना है। अबेर हो गई है , आज एक दफे आफिस भी जाना है

ललिता खुले हुए सूट केसके सामने घुटने टेककर ५5 गई और बोली , तुम नहाओ जाकर, मे सम्हाले देती हूँ

“तब तो अच्छा ही हो कहकर शेखर चाबियोका गुच्छा छलिताके आगे फेककर कमरेके बाहर जाकर सहसा ठिठकके खड़ा हो गया और बोला,

मुझे किन किन चीजोकी जरूरत पडती है, भूल तो नहीं गई हो 2”

ललिता सिर कुकाये सूट-केसकी चीजे देखने लगी, कुछ जवाब नहीं दिया।

शेखरने नीचे जाकर मसे प्रक्ककर मालूम किया कि कालीकी सारी बाते सच हैं। गुरुचरणने कजा चुका दिया है, यह बात भी सच है; और ललिताके

लिए लड़का दूँढ़नेकी विशेष कोशिश हो रही है यह सी सच है। वह और कुछ पूछकर नहाने चला गया |

ल्‍्पज हा

परिणीता करीब दो घंटे बाद नहा-वोकऋर और खा-पीकर आफिसकी पोशाक पहनने जव वह ऊपर अपने कमरेमे घुसा तो सचमुच ही अवाक हो गया

इन दो धंटोके भीतर ललिताने कुछ भी नहीं किया था, वह सूठ-केसके ढक्क्रनपर सिर रखकर चुपचाप बैठी थी शेखरके पैरोकी आहटसे वह चौक पढ़ी और उसने मुँह उठाकर तुरन्त ही सिर छुका लिया | उसकी दोनो आँखें जवाकुसुस जैसी लाल-सुख हो रही थी

'मगर, शेखरने उसे ठेसकर भी अनदेखा कर दिया, उसने आफिसकी पोशाक पहनते हुए स्वाभाविक भावसे कहा, “अभी तुमसे होगा नहीं ललिता, दोपहरकों आकर सम्हाल ढेना।” और वह तयार होके आफिस चला गया। वह चलिताकी सुख आँखोका कारण अच्छी तरह समझ गया था, परंतु सब चातो- पर खूब अच्छी तरहमे विचार किये बेर उसे कुछ कहनेका साटस नहीं हुआ।

उस दिन शामके वक्त मामाकों चाय देने गई तो ललिता सहसा सिकुड-सी गई आज शेखर बैठा था वह गुरुचरणके पास विदा लेने आया था

ललितान सिर ऊ्ुकाये हुए दी प्याला चाय बनाकर गिरीन और अपने भामाके सामने रख दी।इसपर गिरीनने कहा, 'शेखर बावूकों चाय नही दी ललिता/

ललिताने सिर क्ुकाये हुए हीं आहिस्तेसे कहा, “शेखर भइया चाय नहीं पीते। गिरीनने और कुछ नही कहा ललिताकी चाय पीनेकी बात उसे याद गई शेखर खुद चाय नहीं पीता, और दूसरा कोई पीये, यह भी नहीं

चाहता है चायका प्याला हाथ लेकर गुरुवरणने लड़केकी वात छेड़ दी लडका बी० ए० मे पढ़ रहा है, इत्यादि | बहुत तारीफ करनेके बाद उन्होने कह, ववृफर भी हमारे गिरीनको पसन्द नहीं आता हाँ, इतना जरूर है कि लड़का देखनेमे उतना सुन्दर नहीं है। मगर, मर्दोका रूप किस काम आता है, गुण होना चाहिए,--इंतना ही काफी है।” कहनेका साराश यह है कि किसी कदर व्याह जाय तो उनकी जासमें जान आये शेखरके साथ गिरीनका असी असी सामूली-सा परिचय हुआ था। शेखरने उसकी तरफ देख जरा हँसकर कहा, “गिरीन बावूकों पसन्द क्यों नहीं आया ? लड़का पढ़ रहा दे, अवस्था भी अच्छी हे,--- यही तो लक्षण है सुपात्रका ।”

शेखरने पूछा तो जरूर, पर वह ठीक समझ गया था कि गिरीनको क्‍यों

ध्२्८ परिणनता

पसन्द नही और क्यों सविष्यमे और कोर भी पसन्द थे आधवेगा। परन्तु, गिरी सहता छुछ जवाब सवा, उसके चेलरेपर सर्खा सा गई और शेखर इस वबातको ताइ सी गया पट उठबर सात है गया, सोला, 'चाया जी, में तो कल साको लेकर पश्चिम घूमने जा रहा हैं, ठीक बक्तपर खबर देना भूल जाइएगा ।?

अरुचरणने कहा, “ऐसा क्यों कहते हो बेटा, त॒ुम्दी लोग दो हमारे सब इछ हो इसके सिवा, ललिताकी माके बिना नौजट रहे कोट छाम भी तो नहीं हो सकता। क्यों विटिया, है कि नहीं १” ऋट्कर देसते हुए मुद्ढे तो देखा लनिता है ही नही, बोले, “उठके चली कथ गई

शेखरने कहा, “बात छिडते ही साग गई ।”

गुरुचरणने गम्सीरताके साथ कहा, सांग तो जायगी ही,--आखिर ऊछ थी हो, समक तो ही राई है !” कहते कहते छोटी-सी एक उसास छोड़कर बोले, “बिटिया प्रेरी लच्मी-सरस्वती दोनो हैं ऐसी लड़की बड़े भाग्यसे मिलती है शेखर--। ' बात कहते कहते उनके शी ऋृप् चेहरेपर गम्भीर स्नेहकी ऐसी एक स्निगध सधुर छाया पड़ी कि गिरीन और शेखर दोनों ही आन्तरिक श्रद्धाके साथ उन्हें मन ही मन नमस्कार किये बगैर रद सके।

चायकी मजलिससे चुपचाप भाग आकर ललिता शेखरके कमरेमें घुसकर गेंस-बत्तीके उज्ज्वल प्रकाशमे 35 वाक्स रखकर शेखरके गरम कपड़े सम्हालू “म्हाल कर रख रही थी शेखरके प्रवेश करने पर ललिताने जो उसके चेहरे की तरफ देखा तो (4 भेय और विस्मयसे दंग हो रहा

3 इस स्वेस्व खोकर आदमी जैसी शकल लेकर अदालतसे धाहर निकलता है, और सबेरेके उस आदमीछो शामको पहचानना जैसे मुश्किल हो जाता है,-... इस एक घंटेके अन्दर ठीक उसी तरह शेखरको ललिता मानो

लोक सकी। उसके चेहरेपर सर्वस्व गंवा देनेका चिह्न मानों

अेब-कैत

है

.. ललिता उसकी वातका कोई जवाब देकर पास आकर अपने दोनों हाथों में उसका एक हाथ लेती हुईं रुआसी-सी होकर बोली, “क्या हुआ है शेखर भइया १”

६८... ४८ डक ही, कुछ तो नहीं हुआ!” कहकर शेखर जवर्दस्ती जरा हँस दिया,

परिणीता १३७ खलिताके हाथके स्पशेसे उसके चेहरेपर कुछ कुछ सजीवता लौट आई उसमे “यासकी एक चौकीपर वेंठकर कहा, “तुम क्‍या कर रही हो १” ललिताने कहा, “मोटा ओवर-काट रखना भूल गई थी, उसे रखने आई हूँ ।” शेखर सुनने लगा और तव ओर भी जरा स्वस्थ होकर वह कहने खगी, पिछली बार रेलसे तुम्हें बढ़ी तकलीफ हुईं थी। बड़े कोट तो कई थे, पर खूब सोटा एक सी नहीं था। इससे मेने वापस आकर तुम्हारे उस कोटका साप ढेकर दजीसे यह वनवा रखा था ।” कहकर उसने एक भारी-सरकम कोट उठाकर शैेखरके आगे रख दिया। शेखरने उसे हाथमें उठाकर ठेखा, और कहा, “कब, मुझसे तो तुमने - कहा ही नहीं कभी ! ललिताने हँसकर कहा, "तुम बाबू” आदमी ठहरे, कहनेसे तुम इतना मोटा छोट बनवाने देते ? इसीसे नहीं कहा; वनवाकर रख दिया था ।” और उसे यथास्थान रख दिया, फिर कहा, “ऊपर ही रक्‍्खा है, खोलते ही मिल जायगा, जाड़ा लगनेपर पहन लेना, आल्स मत करना, समझे !” “अच्छा ।” कहकर शेखर निर्निमेप दृष्टिसे कुछ देर तक उसकी तरफ ' द्वेखता रह, फिर सहसा कह उठा, “नहीं, ऐसा नहीं हो सकता “क्या नहीं हो सकता पहनोंगे नहीं १” शेखरने जल्दीसे कहा, “नही, सो वात नहीं,---दूसरी वात है ।---अच्छा सखिता, जानती हो मेकी चीज-बस्त सम्दल चुकी या नही ४” ललिताने कहा, “जानती हूँ, दोपहरको मेने ही सब रॉभालकर रख दिया ' कऔै।” और वह फिरसे एक वार सव चीजोकी सम्हाल करके ताला स्तगाने लगी शेखरने कुछ देर तक चुपचाप उनकी त्तरफ देखते हुए पूछा, “क्यों - ललिता, अगले साल मेरी हालूत क्या होगी, जानती हो १” लख्तिदाने आँख उठाकर कहा, “क्यो 2” “क्यों, सो तो में ही जानता हैँ /” कहकर तुरत ही अपनी बातको दवा - छ्लेसेकी गरजसे उसने अपने सूखे चेहरेपर जबरन प्रसन्नता खीच लाकर कहा ““पराये घर जानेंके पहले, कह क्या है, क्या नही है--सव मुझे बता जाना - मही तो जरूरतके वक्त कीई चीज इढठें मिलेगी ।”” ललिता गुस्सा होकर बोली, “हटो, जाओ---

पार्णयद्ा

के सर मकर खरकी अब जरा हसी था गई, बाला, हटना जाम दे। दे हे

नबी हि |

सच बताओ. मेरा केसे क्‍या होगा ? शीकऊ तो उसे सॉलहो आयात पूरा ८, पर ताकत कौड़ी-सर भी नहीं,--वें सब झांस सीवरसे भी टेमिफे सहीं अबस्

देखता हैँ कि तम्हारे मामा जेसा बनना पठसा,--झ बाती, एके दुपेक्न,-- फिर जो होगा दखा जायगा ।” ललिता चावियोका थुच्छा जमीनपर पटकऋर भांग गई शेखरन चिल्लाकर कहा, “कल सचेरे आना एक इफे !” ललिताने सनकर मी नही सना, जल्दी जल्‍दी सीदी तर करके नीच उतर गई धर जाक्षर देखा कि छुतपर एक कोनेम चौंदनामे बेठी »ज्ञाह्नली बहनसे गेदाके फूल लिये माला मगेथ रही है ललित! उसके पास जाकर बेठ गई, बोली “आसमे बेटी क्या कर रही है काली 27 कालीने वर सिर उठाये ही कहा, “माला सेव रही मेरी लड़कीका व्याह हे “ऊव, मुझसे तो कहा नहीं दने '? टलेसे कोई ठोक नहीं था। बावूजीने असी पत्रा देखकर कहां था किए आज रातके सिवा इस महीनेम ब्याहकी कोदह लगन नहीं निक्रलती। लड़की वडी हो गई है, अब रखी नहीं जा सकती. जसे हो बेंसे बिदा करनी हैं ।--जीजी, दो रुप्ये गे न, कुछ मीठा मैंगवा लें ललिताने हँसकर कहा, “रुपयेके वक्त जीजी, क्‍यों 2--जा, मेरे तकियेके

नीचे रक्‍खे है, लेआ जाव और क्यो री छाठी, ग्ेदा-फ़ल्से क्या व्याह होता है १”

कालीने गंसीर भावसे कहा, “होता है और कोई फूल मिले तो हो सकता है। मैंने कितनी ही लडकियों पार की हैं जीजी ! में सब जानती हैं. ।”

कहकर मीठा मेंगवानेके लिए नीचे चली गई ललिता वही बेठी माला गैंथने लगी थोडी देर बाद कालीने लौटकर कहा, “और सबसे कह दिया गया है...

सेफ शेखर-भइयासे नही कहा गया---जाऊँ, कह आऊँ, नही तो वे बुस सानेगे ।” और वह शेखरके घर चलीं गई

काली पक्की ग्ृहिणी है, सब काम सिलसिलेसे करती है। शेखर भइयासे कहकर वह नीचे उतर आई और बोली, “वे एक माला मेंगा रहे हैं। जाओ

परिणीता १३७ ने जीन, जर्नीये जाऊर आयो: में तब तक इधरका इन्तजाम कर डालें -- लग्न छुना हो गई दे, अब वक्त नहीं है ।” .

.. ललिताने सिर हिलाकर ऊद्दा, “में नहीं जा सर्देगी, तू काली !”? - “अच्छा जाती ४“, वह वही साला दो मुझे ।” कहकर कालीन अपना द्वाथ बढ़ा दिया ललिता साला उठातन्र दे ही रही थी कि उसके कुछ मनमें आया, बोली “अच्छा, मे ही दिये आती है ।” फॉलीने गम्भीरताक साथ कहा, “अच्छा, तुम्ही चली जाओ जीजी, मुझ बहुत काम है, सरनेछी फुरसत नहीं उसके अहरेका भाव और गत करनेका ढंग दखकर ललिताको हँसी था सई . “एकदम बडी बूढ़ी हो गई दे '” ऋडकर हँसती हुई वह माला लेकर चली गई क्रिवाइक पास प्रेहचकर उसने ठेन्तरा कि शेखर दत्तचित्त होऋर चिट्ठी लिख रहा है | वह दरवाना खोलकर पीछे खट़ी हुईं, फिर भी शेखरकों मालुम नहीं हुआ तब, कुछ दर चुप रदकर, शेखरको चेका देनेके अभिप्राय- से उसने साव वानीसे शेखरके गलेम माला डाल दी और चटसे पीछेकी चौकीपर जा ब्रेठी शखर पहले तों चौकऋर बोला, काली! फिर दूसरे ही क्षण मैंह फेरकर देखा तो अत्यन्त गम्मीरताके साथ बोला, यह क्या किया ललिता ”' लठिता उठ ख्डी हुईं और शेखरके चेहरेके भावसे कुछ शंकित होकर बोली, क्यों,क्या हुआ £ | शखरने परी मात्रामे गम्मीरता कायम रखते हुए कहा, जानती नहीं क्या हुआ ? कालीसे जाकर पूछ आश्ो, आजकी रात गलेम माला पहना देनेसे क्‍या होता है '

- अब ललिता समझ गई। लहमे भरमें उसका सारा चहरा मारे लज्जाके सुख हो उठा, वह सो नहीं, कब्मी नहीं, कब्मी नहीं। कहती हुई दोड़कर कमरेसे बाहर निक्रल गईं।

शखरने बुलाकर कहा, जाओ मत ललिता, सुन जाओ,---जझूरी काम घतुमसे--

च्च््ज

शेखरकी आवाज उसके कानमें जरूर गई, पर वह सुनने क्यो लगी १--.. कहीं भी वह रुक नहीं सकी, सीधी अपने कमरेमें जाकर आंख मीचकें अपसेः विस्तरपर पड़ रही

हक. इुर् ८१३८ परेणीता [00 हक वा आर बन्द लि पिछछे पोच-छह सालसे बह शेखरके घनिए रम्पकम रहकर सनी बड़ी हुड

रस श्स्ज

है, परन्तु, उसने झसी ऐसी बात नहीं सुनी एक तो गम्भीर प्रतित्स शेखर ' कसी सजाक नहीं करता, और करे भी तो इस बातकी चढ़ कम्पना भी नहीं कर सकती थी कि ऐसी शरमकी बात उसके सुहसे निकलगी --रज्जासे सेझ़चित होकर बीसेक मिनट पडी रहनेक्े बाद बह उठकर बठ गई। झसलमे शब्तरसे वह सीतर ही मीतर डरती भी थी, इसलिए, जब कि उसने “जरूरी काम है , कहा है, तो विचार करने लगी कि वह जाय या सही इतनेमें उस घरकी महरीदी आवाज सुनाई दी, * ललिता जीजी कहों हे, छोटे बाबू बुला रहे हैँ सरा--* ललिताने बाहर आकर झदु स्वसमें कहा, आरही हू, तुम जाओ ऊपर पहुँचकर उसने किवाडकी सबमेसे देखा कि शेसर ऋनी तक चिट्ठी ही लिख रहा है। कुछ ढेर चुप रहकर उसने धीरेसे कहा, क्या है? शेखरने लिखते लिखते कहा, पास आशो, बताता हर ।” “४ नहीं, वहीसे बताओ ।” शेखर मन ही सन हँसकर बोला, सहसा तुमने यह क्या कर डाला. वताओ तो ललिता रूठे स्व॒र॒स बोली, हटो, फिर वही ' शेखरने उसकी तरफ मुँह फेरकर कहा: “मेरा क्या, मेरा क्या कसर है ? तुम्ही तो कर गई --!

४८.

कुछ नही किया मेने,--तुम उसे लौटा दो '

शेखरने कहा, इसीलिए तो बुलवा भेजा था. छरूलिता। पास आओ 'लौटाये ढेता है तुम आधा काम कर गई हो, इधर आओ, मे उसे पूरा कर्‌ दू ।” ललिता दरबाजेके पास क्षगभर चुपचाप खडी रही, फिर वोली, “मे सच कहती हूँ तुमसे, ऐसी मजाककी बातें करोगे, तो फिर ऋभी तुम्हारे “सासने आऊगी ।--कहे देती हूँ, माला लौटा दो सुझे ।"

शेखरने टेबिलकी तरफ मुंह करके माला उठाकर कहा, ले जाओ ९”

तुम वहींसे फेक दो।

शेखरने सिर ह्विला कर कहा, बमगेर पास आये नहीं मिल सकती “तो, मुझे जरूरत नही उसकी “कहकर ललिता गुस्सा होकर चली गई

शेखरने चिल्लाकर कहा, लछेकिन आधा काम होकर जो रह गया! रहा तो रहने दो कहकर लखिता वास्तवमें गुस्सा होकर चली गई।

परिणीता १३९ वह चली जरूर गई, पर नीचे नहीं गई पूरवकी तरफ खुली छतपर एक उ्निरे जाकर रेलिग पवड़े चुपचाप खड़ी रही। उस समय सामने आकाश्मे चंद उठ रहा था और शीतकी पाण्डर चॉदनी चारो ओर छिटक रही थी | ऊपर रवच्छ निमल नील आकाश था। वह एक बार शैखरके कमरेकी तरफ नजर डालकर ऊपरकी ओर देखती रही। अब तो उसकी आँख जलने लगी और मारे लज्जा और अभिमानके ऑस गये। वह इतनी छोटी नहीं है कि इन सब वातोंका मतलब पूरी तरहसे समझ सके, फिर क्यों उसके साथ ऐसा मर्मान्तिक उपहास किया गया! इस बातकों समभने लायक उसकी उम्र भी काफी हो चुकी है कि थह कितनी तुच्छ है, क्कितनी नीचे हे ।--वह अच्छी तरह जानती है कि अनाथ और निराश्रय होनेके कारण ही उससे सब कोई स्नेह ओर प्यार करते हं,.---शेखर भी करता है, उसकी मा भी करती हैं उसका अपना ऋझहनेको कोई नहीं है। उसका वास्तविक दायित्व किसीपर निर्भर होनेसे गिरीनद्र बिलकुल गेर आदमी होकर भी उसका उद्धार कर ढेनेकी वात छेड़ सका है ललिता आँखें मीचकर मन ही मन कहने लगी, इस कलकत्तेके समाजमें उसके मासाकी अवस्था शखरके घरानेसे कितनी नीची है | और वह उन्ही मामाकी आश्रिता हे भार-स्वरूपा ! उधर वरावरके घरानेसे शेखरके व्याहकी बात चीत हो रही है। दो दिन पहले हो या पीछे, उस घरसे उनका व्याह होगा ही | इस व्याहमें नवीन राय कितने रुपये वसूल कंरेंगे, सो सब बाते भी वह शेखरकी माके मुँहसे सुन चुकी है फिर, शेंखर उसे क्यो सहसा आज इस तरह अपमानित कर बैठा ये सब बाते ललिता सामनेकी ओर शूल्य दृष्टिसे देखती हुई मन ही मन सोच रही थी, इत्नेम सहसा चोककर उसने पीछे सुडकर ढेखा कि शेखर चुपचाप खड़ा हुआ सुस्करा रहा है और इसके पहले जिस ढंगसे उसने शेखरके गलेम माला पहना दी थी, ठीक उसी तरीकेसे वही गेदाकी माला उसके गलेमें बापस लौट आई है ! रुआईके सारे उसका गला रुक-सा आया, फिर

भी उसने जोरसे विक्वृत स्व॒रमें कहा, क्यो ऐसा किया

“तुमने क्यो किया १” मु विश “मैने कुछ नहीं किया ।” इतना कहकर उसने मालाकां तोड़ फक्र द्वेनेके लिए हाथ उठाया ही था कि. सहसा शेखरकी ओऑखोकी तरफ देखकर

१७४० परिखीना

वह ठिठक कर रह गई,---तोड फेंक्नेकी उसे हिस्मत ही हुई रोती हुई हज पएसान भर रहें हो जे बोली, "मेरे कोई नहीं हैः इसीसे क्या तुम मेरा इस तरह अपसान हर रह है

शेखर अब तक सन्द मन्द मस्करा रहा था, ललिताकी शान सुनकर वह अचार रह गया--यह तो नादान बच्चीकी बात नहीं है! बोला, “मे अपमान कर रहा हैँ, या तुम मेरा अपमान कर रही हो ?'

ललिता आँखे पोंठकऋर डरती हुई बोलीं, मेने क्‍या अपमान किया १”

शेखर क्षण-सर स्थिर रहकर स्वाभाविक भाव्से गेला, “अब जरा दिचार कर देखोगी तो मालूम हो जायगा। आज-कल तुम बहुत ज्यादती कर रही थीं ललिता, विदेश जानेके पहिले मेंने उसे बन्द कर दिया है।” ओर वह छुप हो गया।

लल्िताने फिर कोई जवाब नहीं दिया, सिर कुकाये खड़ी रही परिपूर ज्योत्स्नाके नीचे दोनों जने स्तव्घ होकर खड़े रहे सिफे, नीचेसे छालीछी लडकीके ब्याहकी शख-ध्वनि बार बार सुनाई ढे रही थी

कुछ ढेर मौन रहकर शेखरने कहा, “अब ओससें मत खड़ी रहो, जाओ नीचे जाओ

“जाती हूँ ।” कहकर इतनी ढेर बाद ललिताने उसके पेरों पडकर प्रशाम किया ओर उठके खड़ी होऋर धीरेसे कहा, 'पुक्के क्‍या ऋरना होगा, बता जाओ ।”

शेखर हँस दिया पहले तो जरा दुबिधामे पड गया, फिर दोनों हाथ चढ़ाकर, अपनी छातीके पास खीचकर उसके अधरोपर अपना अधर छुआता

हुआ वोला, भी बता जाना नहीं होगा ललिता, आजसे तुम- अपने आप ही समझने लगोगी लिताका सारा शरीर रोमाचित होकर सिहर उठा, वह तुरन्त ही हटके खड़ी होकर बोली. “मैंने अचानक तुम्हारे गलेसें माला डाल दी, इसीसे क्या तुमने ऐसा किया 2” शेखरने हँसकर सिर हिलाते हुए कहा, “नहीं। में बहुत डिनोसे सोच रहा हूं, पर तय नहीं कर पाता था आज्ञ तय कर लिया क्योंकि आज ही ठीकत सप्रक सका हूँ कि तुम्हारे बगेर में रह नहीं संकूगा। लालतान कहा, “मगर तुम्हारे बावूजी उनेगे तो चहुत नाराज हाथ. सा चसुनगी तो दु.-ख्थित होगी ---यह नहीं सझता शे--. बूजी छुनने तो गुस्सा होगे, यह ठीक है: पर मा बहुत खुश होगी लक्षी कोई गत नहीं, जाने ढों, जोहोनचा था सो हो गया---अछ तो

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परिणीता १४१ - तुम ही लौटा सकती हो और में ही। जाओ, नीचे जाऋर भीक्रो प्रणाम कर आओ ४”

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तीनेक महीने वाद एक दिन गुरुचरण उदास चेहरा लिये नवीन रायके कमरेमें घुसकर फर्शपर बैठना ही चाहता था कि नवीन वाबूने चिल्ला कर मना करते हुए कहा, “नही,नही,नहीं, यहां नहीं, उस चौकीपर जाकर वेठों

-झुमसे ऐसे बेवक्त नहाया नही जायगा, --क््यो जी,तुमने जात देही दी १”

गुरुचरण दूर एक चौकीपर सिर कुकाकर बेठ गया चारेक दिन पहले वह नियमानुसार दीक्षा लेकर ब्राह्म हो गया है, आज यही समाचार नाना वर्णोसे चित्रित होकर कदर हिन्दू नवीनके करशगोचर हुआ है। नवीनकी आँखोसे चिनगारियाँ निकलने लगी, गुरुचरण उसी तरह चुपचाप सिर म्ुकाये बैठा रहा। उसने किसीसे कुछ पूछे ताछे बिना ही यह काम कर डाछा था, -इससे उसके घरमें भी रोने-मीकनेकी और अशान्तिकी सीमा थी।

नवीन राय फिर गरज उठे, “बताओ जी, सच है क्या १”

गुरुचरणने आँसू-भरी आँखे उठाकर कहा, “जी हों, सच है।”

“'क्ष्यों ऐसा काम कर डाला तुम्हारी तनख्वाढ तो सिर्फ साठ रुपये है, समसम--” सारे क्रो थके नवीनरायके मुँहसे वात नहीं निकली गुरुचरणने आँख पोछकर रुके हुए गलेकी साफ करके कहा, “ज्ञान नहीं था सइया ढुखके मारे गलेमे फॉसी लगाकर मर्लूँ या ब्रह्मसमाजी हो जाएँ, कुछ समममें नहीं रहा था उस समय अन्तमें सोचा कि आत्मघाती होकर व्रह्मसमाजी हो जाऊँ ।--इसीसे त्रह्मसमाजी हो गया ।”

गुरुवरण आंसू पोंछता बाहर चला गया

नवीन चिल्लाकर कहने लगे, “अच्छा किया, अपने गलेसे फॉसी ब्लगाकर जातके गलेमे फॉसी डाल दी अच्छा जाओ, अबसे हम लोगोंके सामने अपना काला मुँह दिखाना; अब जो लोग मंत्री बने हुए हें, उन्हींक्े साथ रहना लडेकियोंकों डोम चमारोके घर व्याहो जाकर ।” कहकर उन्होंने गुरुवरणको विदा करके मुंह फेर लिया

तवीन सारे क्रोध और अभिमानके कुछ तथ नहीं कर सके कि क्या करें 8 गुरुचरण उनके हाथसे विलकुछ ही निकल गया और जल्दी हाथ आलनेका भी लहीं---इसीसे निष्फछ कोवसे वे फड़फझने लगे और, फिलहाल गुरुचरणको

पर्सीता कम १4६००

२४२ जीत जा हा आ' सं और किसी तरह तंग छंरनेटी तरहीब ने सभनेश कारण सगगे दुसाऊर

उन्हांने छुतपर दीवार उट दी जिससे श्वने प्रानका रास्ता बन्द नाव

जे डे | 5८ अत है फू ईंट: 3 ७३ के, मात-दांड भसने दो, 4फ्ने इस चियित अनुमान सालनां थीं,

| 2 ' $ भंग 4. श्र है परन्तु उसका उल्लेय ने ऋरले गटा, मगर सा, दो-चार दिन दाद सुस्दी कक

3. > 5 प्हि 777 0 $ १७० मा अंक... अमा+-न्‍ जी कीकन दाग ता जांतस छूकर अलग दर छते। , इ्ततां मशंदालियाओा आट किया

ढक के “ले नस के श्डु अला वे कस करते, भरी ता ऊूब्ड समान का सठो आता | 5. | ४. 0 जज नवाब किम छः कईई 3 लक लक. वको-# नक द्ञ >> अबनेशरीने सिर हिलते #ए झहा, कुछ कभी गा सी रातों शोरार किन

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ओर, केदल इसके लिए ही अगर जात देनी होती, तो बहतोंयो दे देनी पटुदी सगदानने जिन्हे संसारमे भेज्ञा है, उनको भार झपने ही ऊपर समय दि शेखर छुप रहा, सवनेधरी आखे पॉद्धती हुए लंदन लगी, लब्पा विटियाकी अगर साथ छे आती तो नसे भी होता उसब्य किनारा समझे में करना पठता, और करती सी पर मे तो जानती नहीं थी कि गरुनर्गाने इसी असिप्रायसे उसे नही भेजा ।ल तो जानती थी कि सचमुच की सगाई होनेवाली है| शेखर माके चेहरेकी तरफ दखफ्र जरा उछ श्रमिन्द्रान्सा होकर बोला: “डक तो है मो, अब घर चलकर ऐसा ही करना * वह तो खुद ब्रद्यममाओं हुईं नही,--उसके सामा हुए हैँ |---अओ्रीर सच पृष्लो तो अपने नही होते। ललिताके ओर कोई है नही. इसीसे उनके घरपर पल रही भुवनेव्वरीने सोच विचारकर कहा, “सो तो ठीक है, लेकिन तुम्हारे गवूजीका मिजाज दूसरा है, वे किसी भी कदर राजी नहीं होंगे ऐसा भी हो सकता है कि उन लोगोके साथ मिलने जुलने तक दें शेंखरके सनम सी इस वातकी काफी आशंका थी, वह और कुछ नहीं बोला, अन्यत्र चला गया। इसके बाद फिर एक मिनटके लिए मी उसे विंदेशमें रहनेकी इच्छा नही रही | दो-तीन दिन चिन्तित और अग्रसन्न चेहः

रेसे इधर उघर घूम-फिरकर एक दिन शामको सेसि जाकर बोला, “अब अच्छा नही लगता मा, चलो, घर चलो |

भुवनेश्वरीने उसी वक्त सहमत होकर कहा, अच्छी बात है, चल शेखर झुमे भी अब यहाँ अच्छा नही लगता ”'

घर लौटकर माता-पुत्र दोनोंने ही देखा कि छतपर जानेका जहाँ रास्ता

परिणीता १४३

था, वहाँ दीवार उठा दी गई है यह मा-वेटे बिना कुछ पूछे ताछे ही समझ गये कि गुरुचरणके साथ किसी तरहका सम्बन्ध रखना,--यहाँ तक कि मुँहसे बात चीत करना भी नवीन रायको नहीं रुचेगा रातको शेखरके जीमते वक्त मा मौजूद थीं, उन्होने दो-एक बात करनेके बाद कहा, “मालूम होता है कि ललिताकी सगाई तो गिरीन बाबूके साथ ही हो रही हे। में पहलेसे ही समझती थी ।” शेखरने मुँह वगेर उठाये ही पूछा, “किसने कहा १” “उसकी मामीने दोपहरको तेरे वाबूजी सो गये थे, तब में खुद उसके घर मिलने गई थी तबसे उसने तो रो-रोकर आँख मुँह रुव फुला लिया है ।” क्षण-भर खुप रहकर उन्होंने आऔचलसे अपनी ओखि पोछकर कहा, “तकदीर है तकदीर, शेखर ! भाग्यक्ा लिखा कोई मेट नहीं सकता --किसे दोष दिया ज्ञाय बता ? खर, तो भी गिरीन लड़का अच्छा है, पैसा मी पास है, ललिताको तकलीफ नहीं होगी ।“कहकर वे छुप हो गई उत्तरमें शेखरने कुछ कहा नहीं, सिर क्काये हुए थालीकी चीजे इधर उधर करने लगा थोड़ी देर वाद माके उठ जानेपर वह भी उठा और हाथ मुँह घोकर विस्तरपर जाऊर पड़ रहा दूसरे दिन शामके वाद जरा टहल आनेके लिए वह सड़कपर निकला था। उस समय गुरुचरणकी वाहरवाली बैठकमें देनिक चाय-पान-सभा बैठी हुई थी, और काफी उत्साहके साथ हँसी मजाक और जात चीत चल रही थी बहॉका शोर गुल कानमे पड़ते ही शेखरने स्थिर होकर कुछ सोचा और फिर औरे धीरे आगे वढकर उध शव्दका अनुसरण करता हुआ वह ग्ुरुचरणकी बाहरवाली बैठक पहुँच गया उसके पहुँचते ही शोर-गरुल थम अया और उसके चेंहरेकी तरफ देखकर सबके चेहरोका भोव बदल गया। यह बात ललिताके सिवा और किसीको मालूम नहीं थी कि शेखर लौट आया है आज गिरीन्द्रके सिवा और सी एक सजन मौजूद थे वे विस्मित मुखसे शेखरकी ओर देखने लगे गिरीन्द्रका चेहरा अत्यन्त ग्रम्भीर हो जया, वह दीवारकी तरफ देखने लगा। सबसे ज्यादा चिल्ला रहे थे गुरुचरण खुद, उनका चेहरा भी एकवारगी पीला पड़ गया। ललिता उनके पास बैठी हुईं चाय बना रही थी, उसने एक बार मुंह उठाकर कुका लिया

दर

है: है/| प्रिणीना शेखरने आगे बढ़कर तख्तपर सिर छुआकर प्रणाम किया और एक किनारे बैठकर हँसता हुआ बोला, “वाह, यह केंसी बात है एकदम ही सब शान्त हो गये | गुरुचरणने धीमे स्व॒स्मे शायद आशीर्वाद दिया; पर कया कहा, सो समझसे नहीं आया उनके सनका भाव ससझा गया, इसीसे सम्हलनेका समय देनेके लिए उसने खुद ही बात छेड़ी। कल सबेरेकी गाड़ीसे आनेकी वात, माके रोग शान्‍्त होमेकी बात, पश्चिमकी आबोहवाकी वात तथा और भी अनेकानेक समाचार वह अनगेल सुनाता चला गया; और अन्तमें उस अपरचित युवकके मुहकी ओर देखकर चुप हो गया | गुरुचरणने अब तक अपनेको बहुत कुछ सम्हाल लिया था, उस लड़केका परिचय देते हुए कहा, थे अपने गिरीनके मित्र हैं एक ही जगह घर हैः ! एक साथ पढ़े हैं, बहुत ही अच्छे, योग्य हैं। श्यामबाजार रहते हैं, फिर भी हम लोगोके साथ परिचय होनेके बादते अक्सर आकर भेट कर जाते हैं! शेखर गरदन हिलाता हुआ मन ही सन कहने लगा, हाँ, बहुत ही अच्छे बहुत ही योग्य हैं !/ कुछ ढेर चुप रहकर वोला, चाचाजी, और सब ख़बर तो अच्छी है हे गुरुपरणने जवाब नहीं दिया, सिर ऊ्रकाये उपचाप वेंठे रहे, शेखरकों उठते देख सहसा रुआसे कंठसे वोल उठे, बीच-बीचसे जाया करो 'बेटा, एकदम छोड़ सत ढेना ।--सब वात सुन तो ली होगी ? “हॉ, सुनी क्यो नहीं |” कहकर शेखर घरके भीतर चला गया दूसरे ही क्षण भीतरसे गुरुचरणकी खत्रीके रोनेकी आवाज आने लगी वाहर थंठे शुरुचरण नीचेकों सुँह किये थोतीके छोरते अपनी ओखोके आँसू पोछ्ने लगे और गिरीन्द्र अपराधीकी तरह मुँह बनाकर खिड़कीसे बाहरकी ओर दुखता हुआ चुपचाप बेंठा रहा ललिता पहले ही उठके चली गई थी कुछ देर वाद शेखर रसाई-घरसे निकलकर वरामदेको पार करके औगनमें उतर रहा था, इतनेमे देखा कि अधेरेमें किवाइकी ओटमें ललिता खड़ी है | उसने जपीनसे लिर लगाकर प्रणाम किया, और उठके खड़ी हो गई उसका भुँह शेखरकी बिलकुल छातीके पास पहुँच गया। वह क्षण-सर चपचाप खडी

जाने क्या आशा करती रही, फिर पीछे हटकर चपडेसे वोली, “मेरी चिट्ठीका जवाब क्यों नही दिया

परिणीता १४४. कब, मुझे तो कोई चिट्ठी नहीं मिली,--क्या लिखा था £” ललिताने कद्ठा, “बहुत-सी वातें खैर जाने दो उसे सब बातें सुन तो ज्डी हैं, अब तुम्हारी क्या आजा है, सो बताओ ।” शेखरने आश्वय-मरे स्व॒रमें कहा, “मेरी आजा ! मेरी आज्ञासे क्या होगा १” ललिता शक्ित होकर उसके मुँहकी तरफ देखती हुई बोली, क्यों १” “और नहीं तो क्या ललिता ! में किसको आज्ञा दूँगा?” “मुझे, और किसे आज्ञा दे सकते हो १” तुम्हें भी क्‍यों देने लगा ? और दूँ सी तो तुम छनने क्‍यों लगीं १” शेखरका कंठ गम्भीर और कुछ करुण हो गया गब तो ललिता मन ही सन और भी डर गई और फिर एक वार बिल्कुल पास आकर रुआसे कंठसे बोली, “जाश्रो,---इस समय तुम्हारी हँसी अच्छी नहीं लगती तुम्हारे पैरो पड़ती हूँ, क्या होगा बताओ, मारे डरके मुझे रातको नीद तक नहीं आती “” डर किस वातका “तुम खूब हो ! डर नहीं होगा ? तुम पास नहीं थे, मा भी नहीं थीं, बीचमें मामा जाने क्या कर बैठे अब, मा अगर मुझे अपने घरमें ले तो १?” शखर क्षण भर चुप रहकर बोला, “सो तो ठीक है, मा नहीं लेना चाहेंगी तुम्हारे मामाने दूसरोसे रुपये लिये हैं,--ये सब बाते उन्हें मालूम हो गई हैं। ड्सके सिवा अब तुम हो गई ब्रद्मयत्माजी ओर हम लोग हैं हिन्दू !” अज्ञाकालीन इसी समय रसोई-घरसे पुकारा, “जीजी, मा बुला रही हैं।” ललिताने चिल्लाकर कहा, “आती हूँ ।” फिर स्वर धीमा करके कहा, धागा कुछ सी हो,-पर जो तुम हो सो में हैं। मा अगर तुम्हें नहीं छोड़ सकती तो मुझे भी छोडेंगी। और रहीं गिरीन व्वूसे रुपये लेनेकी बात, सो उनके रुपये वापस कर दिये जायेंगे दूसरे, कजका रुपया चाहे दो दिन पहले हो या पीछे, देंना तो पडेगा ही ।” शेखरने पूछा, “इ+ने रुपये पाओगी कहाँसे £” ललिता शेखरके चेहरेकी तरफ एक वार ओखिं उठाकर क्षण भर चुप रह- कर बोली, “जानते नहीं. ओऔरतोको रुपये कहांसे सिलते है ? मुझे; सी वर्हसे मिलेंगे ।” अब तक शेखर सयमके साथ बातचीत कर ता हुआ मी भीतर ही भीतर जल

कब का

रहा था, अत व्यंग-भरे शब्दोमे बोला, लेकित,माम ने तुम्दें वेच जो दिया है €*

१४६ परिणीता

ललिता अधेरेमे शेखरके चेहरेका भाव देख सकी परन्ठु कंठ-स्व॒रका प्रिवर्तत उसे मालूम हो गया उसने सी दृढ़ स्व॒र्में जवाब दिया, “यह सब भठी बात है। मेरे सामा सरीखे आदमी संसारमें बहुत कम होंगे,---उनका ठुम मजाक सत उड़ाओ उनके दु*ख-कष्टोसे तुम भल्ते ही वाकिफ हो, लेकिन दुनिया जानती है---” कहकर एक घूँट-सा भरा, फिर जरा वगलें मक्ाककर कहा,“ इसके सिवा, उन्होने रुपये लिये हैं मेरे ब्याह होनेके पहले मुझे: बेचनेका अधिकार उन्हे है ही नहीं और उन्होने बेचा ही है यह अधिकार सिफ तुम्हींको है, तुम चाहो तो रुपये देनेके डरसे मुझे बेच भी डाल सकते हो !”

इतना कहकर वह उत्तरके लिए प्रतीक्षा किये बिना ही जल्दीसे अन्यत्र

चली गईं 2.

उस रात्तको बहुत देर तक शेखर विह्नलकी माति रस्तोमें चूमता रहा और फिर घर जाकर सोचने लगा कि उस दिनकी जरा-सी ललिता ,--वह इतनी बातें सीख कहोंसे गई ? इस तरह निलज मुखराकी तरह उसके मुंहपर बोली केसे £

आज ललिताके व्यवहारसे सचमुच ही वह अत्यन्त विस्मित और ऋद्ध हो गया था। सगर, अगर वह शान्त चित्तसे विचार कर देखता-कि इस क्रोधका

यथाथे कारण क्या है, तो मालूम हो जाता कि उसका गुस्सा असलमें लखिता- पर नहीं, वल्कि अपने हीं ऊपर था

लल्तिताको छोड़कर इन कई महीनोके प्रवासमें उसने अपनी कल्पनाश्रोमे अपनेहीको आवद्ध कर लिया था सिफ काल्पनिक सुख-दु और हानि- लाभका हिसाब लगाकर ही वह इस वातका खयाल कर रहा था कि ललिताका उसके जीवनमें कितना स्थान है, सविष्यके साथ उसका केसा अडेय बन्धन है, उसकी अनुपस्थितिम उसका जीना कितना कठिन और कष्टकर है। ललिता वचपनहीसे उसकी गृहस्थीमें घुल्न-मिल गई थी, इसीसे उसे वह खास तौरसे गहस्थके सीतर वाप-सा और भाई-वहनके वीच एक साथ मिलाकर ही देख

, सका, और कसी इसका विचार ही कर पाया | उसकी यह दुथ्चिन्ता वरावर थारा-प्रवाह चल ही रही थी कि ललिताको शायद वह पा सकेगा,

साता-पिता इस व्याहमे सम्सति देंगे, और शायद वह और किसीकी होकर रहेगी इसीसे विदेश जानेके पहले, उस रातझोे, वह जबरदस्ती उसके गलेमें: माला डाल कर इस दिशाकी दरारको जोड गया था।

! परिणीता श्द्ज प्रवासमें रहकर ग्रुरुचरणके धर्म-परिवर्ततका समाचार छुनकर वह ज्याकुल होकर दिन रात यही चिन्ता कर रहा था कि कहीं ललितासे हाथ धोना पढ़े सुखकर हो ढु खकर, दुश्चिन्ताकी इसी दिशासे वह परिचित था।' आज ललिताकी स्पष्टोक्नेने उसकी चिन्ताकी इस दिशाक्ों जोरके साथ बन्द करके उस धाराको बिलकुल उलटी तरफ वहा दिया पहले उसे चिन्ता थी क्र शायद लखिता मिले, पर अब चिन्ता हो गई, शायद वह छोड़ी नहीं जा सके | , श्यामबाजारका सम्बन्ध टूट गया था। वे लोग भी इतने रुपये द्ेसेके 'नामसे अन्‍्तर्में पीछे कदम हटा चुके थे ओर शेखरकी माको भी वह लड़की पसन्द नहीं आई थी लिहाजा, उस बलासे शेखरको फिलहाल यद्रपि छुटकारा मिल यया था, पर नवीन राय दस बीस हजारकी बात नहीं भूले थे, और उस दिशामें वे निश्चेष्ट भी नहीं थे शेखर सोच रहा था; क्या किया जाय ! उस रातका उसका वह काम इतना बड़ा गम्भीर रूप धारश करेगा, ओर ललिता उसपर इस तरह बिना किसी संशयके विश्वास कर बैठेगी कि उसका सचमुच ही ब्याह हो चुका है और अर्गत. किसी भी झारणसे इसमें फर्क नही सकता,--ये सब बाते शेखरने विचारकर नही देखी थी। यद्यपि उसने अपने ही मुहसे कहा था कि जो होना था सो हो गया, अब तो तुम ही लौठा सकती हो और में ही,' परन्तु आज जिस तरहसे वह सब कुछ विचारकर देख रहा है, उस दिन उस समय इस तरह विचारनेकी तो उसमे शक्ति ही थी और शायद्‌ इतना अवकाश ही उस समय सिरके ऊपर चंद था, चारा तरफ चॉदनी छिटक रही थी, गढेमें माला कूल रही थी, तियतमाका वक्ष-हान्दल अपनी छातीपर पाकर उसकी प्रथम अनुभूतिका मोह था, औौर था प्रणयी जनोने जिसे अधराम्ृत कहा ह;ै उसके पीनेका तीर नशा। उज समय स्वार्थ और सांसारिक भलाई- बुराईका छुछ खयाल ही नहीं था, और अर्थ-लोलुप पिताकी रुद्र मूर्ति ही ऑँखोके सामने आई थी सोचा था, मा तो ललिताको बहुत प्यार करती ही हैं, उन्हें सहमत करानेमे कठिनाई होगी और भशयाके सामने पिताकों किसी तरह कोमल करा लेनेसे अन्त तक, शायद, काम वन जाय इसके सिवा, झुरुचरणने तब इस तरह अपनेको विच्छिन्न करके उनकी आशाढा मागे पत्थरसे इस कदर मजबूतीके साथ वन्द नही कर डाला था। वास्तबमे शेखरके लिए चिन्ता करनेकी ऐसी कोई खास बात रही नहीं थी।

श्ह८ प्रिणीता अब वह निरचयसे समझ रहा था कि पिताको राजी कराना तो बहुत दूर रहा, माको राजी करना सी सम्भव नहीं ।--यहें वात अब तो मेंहसे सी नहीं निकाली जा सकती ! हे शेखरने एक गहरी सॉस लेकर फिर एक बार अस्फुट स्वसस दुहराया कि क्या किया जाय | वह ललिताको अच्छी तरह पहचानता है, उसे उसने अपने हाथो बनाया है,--एक वार जिसे वह घमम सममाकर अंगीकार कर चुकी है, किसी भी तरह उसे छोड़ नही सकेगी उसने समझ लिया है कि मैं शेखरकी धर्मपत्नी हूँ, इसीसे वह आज शामको ऑपेरेमे उसकी छातीके पास आकर सेंहके पास मुँह लाकर इस तरह खड़ी हुईं थी ! गिरी््के साथ उसके व्याहकी वातचीत हो रही है,---मगर कोई भी उसे: इसके लिए राजी नही करा सकता ! अब तो वह किसी सी तरह चुप नहीं रहेगी ! अब वह सब कुछ प्रकट कर देगी | शेखरका मुँह और ओँखें उत्ततः हो उठी। वास्तवसे बात सी तो सच है, वह सिर्फ माला बदलकर ही तो शान्त नही हुआ, उसने उसे अपनी छातीसे लगाकर चुम्बन भी तो लिया था| ललिताने बाधा नहीं दी, इसमें दोप नहीं, इसीसे नहीं दी,---इसका उसे अधिकार था, इसीसे नहीं दी |--अब इस व्यवहारका जवाब वह किसीके आगे क्या ढेगा £ यह निश्चित है कि माता-पिताकों वगर राजी किये ललिताके साथ उसका व्याह नहीं हो सकता, परन्तु गिरीन्द्रके साथ ललिताके ब्याह होनेका कारण प्रकट होनेके वाद वह घर और वाहर सब जगह मुँह केसे दिखाएगा १० असम्भव होनेसे शेखरने ललिताकी आशा बिलकुल ही छोड़ दी थी शुरू श॒ुरूमे वह कुछ दिनो तक मन ही सन अत्यन्त डरता हुआ रहा,-- कहीं अचानक वह जाय और सब वातें प्रकट कर दे ! कही इस बातको लेकर उसे सबके सामने जवाबदेही करनी पड़े! मगर किसीने उससे कोई कैंफियत नहीं मॉगी; कोई बात प्रकट हुईं है या नही, सो भी नही मालूमः हुआ; यहाँ तक कि उस घरसे इस घरमे किसीका आना जाना सी नहीं हुआ शेखरके कमरेके सामने जो खुली हुई छत थी, उसपर खड़े होनेसे सलिताकी छतका सव कुछ दिखाई देता है | कही ललितासे सामना हो जाग, इस दरसे वह छतपर भी नही जाता परन्तु, जब बिना किसी विज्नके

परिणीता श्ड९

महीता-भर बीत गया तब वह वेकिक्रीकी लोस लेकर मन ही मन बोला, आखिर कुछ भी हो, औरतोके लिद्ाज-शरम तो द्वोती ही है,--वे ये सब बाते प्रकट

का)

कर ही नहीं सकती शेखरने सुन रक्‍सा था कि ओऔरतोंकी छाती फटे तो फटे पर मुंह नहीं फटता इस बातपर उसे आज विश्वास हो गया और रूष्टिकर्ताने उनके शरीरमें ऐसी कमजोरी दी है, इसके लिए उसने मन ही मन उसकी तारीफ भी की |--मंगर फिर सी उसे शान्ति क्‍यों नही मिल रही है * जबसे वह समक गया हैं कि अब उरकी कोई बात नहीं, तभीसे उसकी छातीमें एक तरहदी अभृनपूत्र बेदना-सी क्यो इकट्ठी होती जा रही है --रह-रहकर हृदयत्स अन्तरतम ममस्थल तक इस तरह निराशा, वेदना और आशकासे क्यों कप उठता दे £ अब क्या ललिता किसीसे कुछ कहेगी नहीं, और किसीके हाथ अपनेकों सोपते समय तक मौन ही बनी रहेगी --इस बातका विचार करते ही कि उसका उ्योहि हो चुका हैं और वह अपने पतिका घर करने चली गई है, उसके मन और शरीरमे उस कदर आंग-सी क्यो जल

उठती है पहछे वह शामके वक्त घूमने जाकर सामने खुली छुतपर टहला करता था, अब भी टहलने लगा, परन्ठ एक दिन भी उस घरका कोई भी उसे छतपर नहीं दिखाई दिया सिर्फ एक दिन अन्नाकाली छतपर किसी कामसे आई थी परन्तु उसकी तरफ देखते ही उसने निगाह नीची कर ली ओर शेखरके यह तथ करनेके पहले ही कि वह उसे बुलाये या नही, वह वहसे कर गया कि हम लोगोंने जो छतका रास्ता

अदृश्य हो गई जेखर मनरभ समः हे श् ऋूू बन्द करवा दिया है, उसका अर्थ यह नन्‍्ही-सी काली तक समम गई है

ओऔर भी एक महीना बीत गया

एक दिन भुवनेश्वरीने बातो ही बातोमें कहां, इधर तैने ललिताको देखा है,,शेखर रा

शेखरने सिर हिलाकर कहा, नहीं तो, क्यो £ हे

माने कहा. लगंभग दो महीने वाद का उसे छतपर देखा तो मनें वुलाया।

__ लडकी जाने कैसी हो गई है। डुबली-पतली, मुँह सूखा-सा,-जैसे बहुत उमर हो गई हो ! ऐसी गम्भीर कि किसकी मजाल जो कह दे यह चौदह सालकी लड़की है|” कहते कहते उनकी ऑखोमे ऑस भर आये हाथसे उन्हें पोंछ॒ती हुई भारी गलेसे बोली, मैली-कचैली घोती पहने, पललेपर थिग्रा हुआ,--मैंने पक्का, तेरे पाल और धोती नहीं है क्या बिटिया कहा

हे]

सगा

हे परिणीता सने है, पर सुझे| विश्वास नहीं हुआ। किसी भी दिन उसने अपने मामाके दिये हुए कपडे नही पहने, से ही दिया करती थी,--सो मेने छह्-सात महीनेसे छुद्विग सी नही ।” आगे उनसे वोला नहीं गया, पल्लेसे आँखें पोंछने लगी --वास्तवम ललिताकोी वे अपनी लड़कीकी तरह प्यार करता था शेखर दूसरी तरफ निगाह किये चुपचाप वंठा रहा

बहुत ढेर बाद मा फिर कहने लगीं,“ सेरे सिदा किसी दिन उसने और किसीसें कुछ मोगा भी नहीं। वेवक्त भूख लगती तो मुँह खोलकर घरपर किसीसे कुछ कहती तक नही थी, सें ही उसे खानेकों दिया करती थी [---वह्व मेरे ही आस पास घूमा करती थी,--में उसका मेंह देखते ही समझ जाती कि सूखी है मुझे उसी व्यतकी याद आती है शेखर, अब भी शायद वह उसी तरह मृखी मारी मारी फिरती होगी, पर मागती होगी | कोई तो उसकी बात समझता होगा और कोई कुछ पूछता होगा | झुमे वह सिफे मा

कहती ही थी, बल्कि माक्की तरह सानती और प्यार भी करती थी शेखरसे हिम्मत करके माके मुंहकी तरफ आंख रूरते बना; जिस तरफ देख रहा था उस्री तरफ देखता हुआ बोला, अच्छा ही तो है मा, उसे बुलाकर पूछ क्यों नहीं लेती कि उसे क्या क्या चाहिए ? !

बह लेगी क्यो? इन्होने जाने-आनेका रास्ता बन्द कर दिया में ही भला किस सुंहसे उसे देने जाऊँ माना कि लालाजीने दु खमे पड़कर एक गलती कर डाछी तो हम लोग तो उनके अपने ही जैसे हैं,--चाहिए तो यह था कि कुछ प्रायश्वित्तजायश्वित्त करवा-कुरवूकर ढक-ढका देते | सो तो किया नहीं, उल्टा उन्हें छेककर बिलकुल गैर कर दिया | और सच तो यह है कि इन्हींते तंग आकर वेचारेको जात खोनी पडी है। बल्कि, में तो कहूँगी कि लालाजीने अच्छा ही किया। वह गिरीन लड़का हम लोगोंसे उनका कहीं ज्यादा अपना है। उसके साथ ललिताका व्याह हो जाय तो वह सुखसे रहेगी, इतना तो मे सी जानती हूँ सुना है, अगले, महीनेमें ब्याह होगा।”

सहसा शेखरने माकी तरफ मुँह करके पूछा,“ अगले महीने ही होगा क्‍या १”

सुन तो ऐसा ही रहीं हूँ। शेखरने और कुछ नहीं पूछा

4] दि

मै

परिणीता १०१ ना कुछ देर छुप रहफर झऋहने लगीं, “ललिताक्ने ठहसे ही सुना था कि उसके सासाझी दबीवत भी आज-झइल ठीक नहीं रहती सो ठीक ही है एक जी उनके मनमें सुख नहीं, उसपर छरसे रोज रोना-सकीकना,--एक मिनटके लिए भी वेचारेकी परपे शान्ति नहीं।” सैखर चुपचाप सुन रहा था, और अब सी चुप रहा थोड़ी देर बाद साके उठ जानेपर बद्द अपने विर्तरपर जाकर पद रहा और छलिताकी बात सोचने छया। जिस गलीमे शेसरका मकान दे, उसमे टो गाडी आसानीसे जा सके, इतना स्थान नहीं था। एक गाठी एक तरफ ब्रिलकुल किनारेसे सठक्र खटी हो तो दसरी उसके चगलसे नहीं निकल सकती आठ दस दिन वाद शक दिन शोखरकी आफिस-गाड़ी गुरुचवरणके मकानके सामने रुकावट पाकर खट़ी हो गई शेखर आफिससे लौट रहा था, उतर कर पूछनेपर मालूम हुआ कि डाक्टर आयादे। उसने कुछ दिन पहले मासे सना था कि ग्रुरुचरणकी तबीयत ठीक नहीं रहती उस बातका खयाल करके वह अपने घर नहीं गया, सीधा जाकर गुरुधरणके सोनेके कमरेमे जा पहुँचा बात बिलकुल ठीक निकली ग्रुचरण निर्जीवर्का भाँति विस्तरपर पढे है, एक तरफ ललिता और गिरीन्द्र सूखा-सुंह लिये ब्रैंठे हैं, सामनेकी कुरसीपर बैठा डाक्टर रोगीकी परीक्षा कर रहा है गुरुचरणने अस्फुट स्वसमें उसे वेठनेके लिए कहा और ललिता माथेका अज्ञा जरा नीचा करके घूमकर बैठ गई डाक्टर मुहल्लेका ही ऐ, शेखरकों पहचानता है। रोगकी परीक्षा करके और दवा आदिकी व्यवस्था करके वह शेखरके साथ बाहर आकर वैठ जया गिरीन्द्र पीछेसे आकर रुपये देकर डाक्टरकों बिदा करने लगा तो ढसने सावधान कर दिया कि रोग अब भी ज्यादा नहीं बढ़ा है, इस समय आधबव-हवा बदलनेकी खास जरूरत है। डाक्टरके चले जानेपर दोनों फिर ग्ुरुचवरणके पास आकर खड़े हो गये। ललिता इशारेसे गिरीन्द्रको एक तरफ बुलाकर चुपके चुपके उससे कुछ कहने लगी शेखर सामनेकी कुरसीपर बैठकर सच्च होकर गुरुचरणकी तरफ - छेखता रहा ग्ररुवरण पहलेसे ही उधरकी ओर करवट लिये सो रहे थे

उन्हें शेखरका दुबारा आना मालूम नहीं हुआ थोड़ी देर चुपचाफ बैठे रहनेके चाद शेखर उठकर चल दिया तब तक

श्र परिणीता ललिता और गिरीन्द्न्‍न उसी तरह चुपके चुपके बतरा रहे थे,--उससे तोः किसीने वैठनेकों कहा और उसकी किसीने कोई बात तक पूछी आज वह निश्चित रूपसे समझ गया कि ललिताने उसे अब उस कठोर दायित्वसे हमेशाके लिए सुकत कर दिया है ,--अब वह निभय होकर दम ले- सकता है ।--अब कोई शंका नहीं,--अव ललिता उसे फेंसिगी घर आकर हजारो वार उसे खयाल आने लगा कि आज वह अपनी आँखोसे देख आया है, गिरीन ही उस घरका परम वन्धु और अपना आदमी है,--सबकी आशा और भरोसा उसीपर है और ललिताके सविष्यका आश्रय भी वही है।में अब उनका कोई नहीं हूँ,--ऐसी विपत्तिके समय सी ललिता मेरे मुंहसे जरा-सी एक सछाह तककी आशा नहीं रखती ! है वह सहसा “उ.फ” करके गद्दीदार आराम-कुरसीपर सिर क्ुकाकर बैठ - गया ललिताने उसे देखकर साथेका पल्ला खीचकर मुँह फेर लिया था जैसे वह बिलकुल ही गेर हो,--बिलकुल अपरिचित ! और फिर,उसीकी ओआँखोके सामने गिरीनको ओटमें ले जाकर जाने क्या क्या सलाहे होती रहीं ! और मजा यह कि एक दिन उसीके साथ थियेटर जानेसे ललिताकों उसने रोक दिया था फिर भी उसने एक बार विचारनेकी कोशिश की कि शायद उसने आपसके गुप्त सम्बन्धका खयाल करके शरमके मारे ऐसा व्यवहार किया होगा। सगर ऐसा कभी केसे संभव हो सकता है १--तो क्या इतनी बात हो जानेपर भी वह इतन दिनोम एक भी व्यत किसी भी वद्वाने उससे पूछनेकी कोशिश नहीं कर सकती थी सहसा दरवाजेके वाहर साकी आवाज सुनाई दी वे पुकारकर,कह रही थी, कहाँ हैं तू, अभी तक हाथ-सुँह नहीं घोया,--शाम हुई जा रही है जो !” शेखर जल्दीसे उठ खड़ा हुआ, और इस ढगसे मुँह फेरकर कटपट नीचे उतर गया जिससे मा उसका चेहरा देख सके इधर कई दिनोसे बहुत-सी वाते अनेक तरहक़ा रूप घरकर रात-द्नि उसके: : मनसें आती-जाती रही हे पर सिफे एक वात ही वह नहीं सोचता था कि वास्तवमे दोप किसका है एक भी आशाकी वात उसने आज तक उससे कही, और उसे ही कहनेका मौका दिया वल्कि इस डरसे कि कहीं संडाफोड़ हो जाय और यह किसी तरहका दावा कर बैठे, वह पत्थर सा निश्चेष्ट हो रहा था। फिर भी सब त्तरहका अपराध लल्िताके माथे लादकर वह उसका विचार कर रहा था, _ आर अपनी ही इर्प्यासे, अपने ही कोवसे, अपने ही अभिमान और अपमानसे

परिणीता १०३ अपने आप जल सर रहा था !'--शायद, इसी तरह संसारके सभी पुरुष स्लियोंका विचार करते हैं ओर इसी तरह जलते रहते हैं

जलते जलते उसके सात दिन कट गये, आज भी शामके बाद वह अपने निस्‍्तच्ध कमरेमें वही आग लगाये बैठा था, सहसा दरवाजेके पास शब्द सुनकर और मुँह उठाकर देखते ही उसका हृदय उबल पडा | कालीका हाथ पकडे ललिता कमरेके भीतर आकर नीचे कारपेटके फर्शपर बैठ गई कालीने कहा, “शिखर मइया, हम दोनो तुमकों प्रशाम करने आई हैं,--कल हम लोग चली जायेगी 2”

शेखरके मुंहसे बात नहीं निकली, बह सिफ एकटक देखता रहा

कालीन कहा, “बहुत कसूर तुम्हारे चरणोम रहकर किये हैं शेखर भश्या, . सो सब भूल जाना ।*

शखर समझ गया कि इसमेसे एक बात भी कालीकी अपनी नहीं है, वह सिखाई हुईं ही वोल रही है उसने पूछा, “कल कहाँ जा रही हो तुम लोग #

“पश्चिम बावूजोको लेकर हम लोग सभी मुंगेर जायेंगे। वहाँ ग्रिरीन बाबूका मकान है बाबूजीके अच्छे हो जानेपर भी शायद हम लोगोका अब यहाँ आना होगा डाक्टरने कहा है कि यहाँ बाबूजीकी तबीयत कसी . ठीक नहीं रह सकती ।”

शेखरने पूछा, “अमी उनकी तबीयत कैसी है ?”

कुछ अच्छी है ।” कहकर कालीने ऑचलके भीतरतसे कई एक साड़ियों निकालकर दिखाते हुए कहा, “ताईजीने दी हैं ये।”

ललिता अब तक चुप बैठी थी, उठकर टेंबिलपर एक चाबी रखती हुई बोली, “आलमारीकी चाबी इतने दिनोसे मेरे पास ही थी,” फिर जरा हँसकर बोली, “लेकिन रुपया इसमें एक भी नहीं है, सब खर्च हो गये है ।”

शेखर चुप रहा

कालीने कहा, “चलो जीजी, रात हुईं जा रही है ।”

ललिताके कुछ कहनेके पहले ही अबकी वार शेखर सहमा व्यस्तताके साथ बोल उठा, “काली, नीचेसे जा जरा, मेरे लिए पान तो ले बहन 7

ललिताने उसका हाथ मसककर कहा, “व्‌ यहीं बैठ काली, में लाये ढेती- हूँ ।” और जल्दीसे वह नीचे चली गई थोड़ी देर बाद पान लाकर उसने कालीके हाथमें थमा दिये, और उसने शेखरको दे दिये।

पान हाथमें लेकर शेखर निस्तव्घ होकर बेंठ रहा

है

१७७ प्रिणीता

“चलती हैँ शेखर भइया ।” कहकर व्मलीने पेरोंके पास आकर जमीनसे सिर ठेककर प्रणाम किया ललिता जहाँ खड़ी थी वहींसे जमीनसे माथा लगाकर प्रणाम किया, और ठोनोकी दोनो धीरे घीर चली गईं

शेखर अपनी सलाई बुराई और आत्म-सम्मान लिये हुए पाण्डुर मुखसे विहल हतव॒ुद्धिकी तरह स्तन्च होकर गैटा रहा | ललिता आई, और जो कुछ रहना था, कहकर हमेशाके लिए विदा हो गई इस तरहसे सारा समय बीत गया, मानो कर्नेको उसे कुछ था ही नहीं। इस वातकों शेखर मन ही सन समझा गया कि ललिता काछीको जान-वूककर ही सेब लाई थी; कारण बह चाहती नहीं थी कि कोई वात उठे इसके बाद उसका सारा शरीर जाने क्रेसा होने खगा, जी सतला उठा, सिरसें चक्कर आने लगा,--अाखिर बह उठकर व्रिस्तरपर गया और ओंख मीचकर सो रहा

११ गुरुचरण का द्वटा शरीर मुंगेरकी आव-हवासे सी जुड़कर ठीक हो सका। 'साल-भर बाद वे अपने दु ख-छृष्ठोंक़ा बोक उत्तारकर हमेशाके लिए वर्हेंसि चल दिये। गिरीन्द्र सचमुच ही उन्हें काफी चाहने लगा था! और अन्ततक उन्के लिए यथासाध्य कोशिश करता रहा | पर छुछ हुआ मरनेके पहले गुरुवरणने गिरीनका हाथ पकड़कर अऑसू-भरे कंठसे अनुरोध किया था कि तुम कभी किसी दिन गेर हो जाना और यह ' गंसीर बन्धुत्व सगवान करे निकट आत्मीयताम परिणत हो जाय वे अपनी अखिोसे यह देखकर नहीं जा सके,-- वीसारीकी कमटमे समय ही नहीं मिला, परन्तु परलोकमें रहकर वे देख सके कि गिरीन्द्रन उस समय सानन्द और सवान्त करणसे ही उन्हें वर्चन दिया था गुरुचरणके ऋलकत्तेवाले सकानमे जो किरायेदार थे उनके द्वारा भुव- खरीको बीच-बीचमे उनका समाचार मिल जाया करता था। गशुरूचरणके - सरनेकी खबर सी उनसे उन्हें मिल गई इसके वाद एक जबरदस्त दुर्घटना हुई--न्वीन रायकी सहसा झत्यु हो “गई भुवनेश्वी शोक और दु.खसे पायछ-सी होकर बढ़ी बह़के हाथ अहस्थीका सार सौपकर काशी चछी गई कह गईं, “आगामी वर्ष सब कुछ ठीक हो जाने पर मैं आकर शेखरका व्याह कर जाऊँगी विवाह-सम्बन्ध नवीन रायने खुद ही ठीक किया था, और अब तक व॑

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( धर

परिणीता वण्ण्‌ ही भी जाना; पर अचानक ही उनकी झत्यु हो जानेसे साल-भरके लिए स्थग्रित हो गय्या पर कन्यापक्षवाले अब ज्यादा देर नहीं ठहर सकते थे, इसलिए वे कल आकर लउकेको आशरीर्वाद' दे गये हैं इसी महीनेसे ब्याह होगा, इसलिए शखर अदनी माको लानके लिए काशी जानेकी तेयारी कर रहा था ओर आलमारीमस चीज-वरत निकालकर वेक्ससें सजा रहा था। वहुत दिन वाद शाह उसे फिर सल्तिकी याद गईं ---यह सच काम वही किया करती थी। तीन सालसे ज्यादा हो गया, वे सब यहेसि चली गई थी इस वीचर्मे उनका कोई समाचार ही उसे नहीं मालूम हुआ, मालूम करनेकी कोशिश भी नही की, और शायद उसे अब कोई दिलचस्पी सी नहीं रही थी ।-- ललितापर क्रमश घृणा-सी होती जा रही थी। परन्तु, आज सहसा उसके मनसे आया कि. अगर किसी तरह उसकी कोई खबर मिल जाती ! कौन केसे है, हालों कि इस बातको वह जानता था, सब अच्छे ही होगे, कारण गिरी- खूके पास रुपया हे, फिर भी वह सुननेकी इच्छा करने लगा कि कब उसका ब्याद हुआ, और उसके साथ वह किस तरह रहती है---इत्यादि गरुचरणवाले सकानमें अब कोई किरायेदार नहीं रहता दो महीने हुए, मकान खाली पडा है। एक वार शेखरके भनमें आया कि चारुके वाप्से कर पूछ आये; क्योंकि, उन्हे गिरीन्दके समाचार जरूर मालूम होगे क्षण-भरके लिए बॉक्स सजाना स्थगित रखकर वह शज़्य इृष्टिसे खिड़कीके वाहरकी ओर डेखकर यही सब सोचता रहा, इतनेम ढरवाजेके वाहरसे पुरानी महरी आकर बोली “छोटे बाबू, आपको कालीकी माने बुलाया हैं खेखरने मेँह फेरकर उसकी तरफ अत्यन्त आश्चश्रके साथ देखते 'हुए कदी, “कालीकी मा दासीने हाथसे गुरुचरणके सकानकी तरफ इशारा करके कहां, “अपनी: कालीकी मा, छोटे वाव, वे सब कल रातको सैुँगेरसे वापस जो गई “चलों, आता हूँ ।” कहकर वह उसी समय उतरकर चल दिया तब दिन ढल रहा था शेखरके घरमें घुसते ही वहोंसि छाती-फाड़ रोनेकी आवाज झुनाई दी। विधवा-वेपथारिणी ग्रुरुचरणकी स्त्रीके पास जाकर वह अमीनपर वबैंठ गया और धोतीके खूँठसे चुपचाप अपनी ओखे पोंडने लगा। सिर्फ गुरुचरणके लिए ही नहीं, अपने पिताके शोकसे भी वह फ़िर एक .- बार अभिभूत हो गया

कप!

|

लाज

२०६ परिणीता

शाम होनेपर ललिता आकर दिआ जला नई गलेमे झोचल टाल उसने दूरसे शेखरको प्रशाम किया और ज्षण-भर ठहरकर वह धीरे भीरें चली गई शेखर सत्रह वर्षकी युवती पर-रत्रीकी तरफ आँख उठाकर देख सक्रा और उसे बुलाकर बातचीत ही कर सक्रा। फिर भी क्‍नखियोंत्रे बद जितनी दिखाई दी थी उससे मालूम हुआ कि वह पहलेले और भी वड़ी और बहुत ही दुवली हो गई है।

बहुत रोने-धोनेके वाद गुरुचरणकी विध्वा स्त्रीने जो कुछ कहा, उसका सार यह था कि इस मकानको बेचकर वे संगेरम अपने जमाईके पास रहेंगी, यही उनकी इच्छा है। मकान बहुत दिनोंसे शेखरकें पिता खरीदना चाहते थे, इस समय उचित मूल्यपर उनके खरीद लेनेसे मकान एक तरहसे घरका धरमें ही <ह जायपा, उनको सी किसी तरह दु.ख होगा ओर भविष्यमें अगर कमी वे इधर आयेगी तो दो एक दिन इस घरमें रह भी सकती हैं---श्त्यादि शेखरने कहा कि मासे पूछकर यश्णसाध्य इसक्के लिए कोशिश करूँगा इसपर उन्होंने ओस पोछते हुए कहा," जीजी क्‍या इस बीचसे यहाँ आयेगी नहीं शेखर १”

शेखरने जताया कि आज रातको ही वह उन्हे लेने जा रहा है। इसके बाद उन्होंने एक एक करके घरके छोटे-मोटे समाचार जान लिये--शेखरका कब व्याह हैं, कहाँ बारात जायगी, कितने हजार रुपये और कितना जेवर मिलेगा, जेठजी केसे मरे थे, जीजीने क्या किया, इत्यादि बहुत-सी गर्तें पूछी और उनका जवाब मझुना

शेखरकी जब चहोंप्ते छुटकारा मिला, तब चौंदनी फेल चुकी थी इसी

मय गिरीदडद्र ऊपरसे उतरकर शायद अपनी बहनके घर जा रहा था।

गुरुचरणकी विधवा उसे देखकर शेखरसे कहने लगी, '' मेरे जमाईके साथ तुम्हारी बातचीत नहीं हुई शेखर ऐसा लडका दुनियामे मिलना ठुश्वार है।

शेखरने कहा, इस बातमे भुके रचमात्र सद्ेह नहीं, ओर वातचीत सी मेरी हो चुकी है” इतना कदकर वह जल्दीसे वाहर चलाग यथा। परन्तु

रकी बेठकके सामने आकर उसे सहसा ठहर जाना पड़ा

अेघेरेसे, दरवाजेकी ओटसे छरूलिता खड़ी थी, उसने कहा, “सुनो, माको क्या आज ही लाने जा रहे हो ४!”

शंखरने कहा, हो |”

“+ वे क्या बहुत ज्यादा घबरा गई हैं 2”

परिणीता १७७

“हाँ लगभग पागल-सी हो गई हैं ।”

“तुम्हारी तबीयत केसी है १”

“अच्छी है ।?--.कहकर शेखर मटपट वहोंसे चल दिया

रास्तेपर आकर उसका नीचेसे ऊपर तक सारा शरीर मारे लज्जा और अ्ुणाके सिहर उठा उसे ऐसा मालूम होने लगा कि ललिताके पास खड़े “होनेसे उसका शरीर मानो अपविन्र हो गण हो | घर आकर उसने जैसे-तैसे बॉक्स भर-भराकर बन्द कर दिया, और अभी गा६डीमें देर है, जानकर खाटपर लेट गया ललिताकी विपाक्त स्मृतिको जलाकर भस्म कर देनेकी प्रतिज्ञा करके उसने उसका मन ही मन अकथ्य शब्दोमे तिरस्कार किया, यहॉ तक कि कुलणा कहनेमे भी उसे सकोच नहीं हुआ ग्रुरुवरणकी ज्लीने उससे बातो ही बातोंमें कहा था कि लड़कीका ब्याह कोई आनन्दका ब्याह थोडे ही था, इसीसे किसी- को कुछ खयाल नहीं रद्दा, नहीं तो ललिताने उस वक्त तुम सबोको चिट्ठी ड्ेनेके लिए कहा था ललिताकी यह हिमाकत मानों सारी आगके ऊपर लहराती हुई लौ बनकर लपगें लेने लगी

१२

शेखर माक्रो लेकर जिस दिन लौटा, उस दिन भी उसके व्याहको दस चारह दिनकी देर थी।

तीन चार दिन बाद, एक दिन सबेरे, ललिता शेखरकी माके पास बेठी कुछ एक टोकनीमें कुछ रख रही थी। शेखरको मालूम था, इसीसे किसी शक कामसे वह सा” कहकर सीतर घुसा ही था कि सहसा भौचक्का-सा (ठिठक कर खड़ा हो गया | ललिता मुँह नीचा किये काम करने लगी

माने पूछा, क्या है रे १”

वह जिस कामके लिए आया था, उसे भूल गया, और “नहीं, असी रहने दो” कहकर जल्दीसे बाहर निक्रत गया। ललिताका चेहरा तो उसे नहीं दिखाई दिया, पर उसके दोनों हाथोपर उसकी निगाह पड गई हाथ बिल्कुल चसूने थे, सिर्फ दो-दो कॉचकी चूड़ियोँ पड़ी हुईं थी, और कुछ नहीं शेखर्‌ सन ही मन क्रुद्द होकर हँसने छगा--“यह भी एक तरहका ढोंग हे-4”

श्प्प ए्रिणी तः

हद धरा 2 गिरीन पेस्वाला इसलिए पर उसकी द्धीके द्वाथ झेगरों यह उसे मालूम था कि गिरान पत्वाओ। ६, दे पलक ही बोके ऐसे री ५७ 323०६ स5 संगत कारण उसे देंढे नहीं मिला गदनाके से रीत-रीते होनेका बाई सचठ कारणु उस दूढ गटा ध्प जल हे >> की मे: थ्ृ प्र ललित लता + उस दिन शामके वक्त जन्दा अत्दा नीच उतर रहा था; का के के ५) रा

2 डे च््व जा च्ड डर उसी जीनेंसे ऊपर जा रही थी दह एक तरफ दीवारते सटकर स|े *ै हि 5 अल मनन के साथ घीमे ऊे नकद सगर शेखरके पास आते ही अन्वन्त सकाचके साथ उत्तर दी स्वरनें कहां, ध्तमसे एक जात कहती है

अबा टिस्मयके स्व॒रम जला, उससे शेखर क्ण-मर्‌ स्थिर रहऋर विस्मवके स्व॒रन गोला, “कि से:

22550 इट-+ कट कह लालता पएवंवत सुटठदवटठन 2७

मचसे तम्हें क्या कहता ता ह्

टी अि ५म अर 2 टिक उत्तर गया जल्दी जल्दा नाच उतर शया लखित द्हीं 52 2 2 2 22, 0 दम मम अल 8 हे बवि छोदी है #' एक लिता वहीं कुछ दर तक स्तच्च होकर खड़ी रहाँ आए द्रटि सी एक कि 03.. लक

कर पास बैठ गया, और शेखर प्रति-तमस्कार करके अखदारकों एक तर रखकर जिज्ञासु इृष्टिसे उसदी तरफ देखने लगा होनोकी जान-पहचाय ऑखो-ऑखोम जरूर थी, पर गतचीत नहीं हुईं थी: और इसके लिए आर तक दोनोमेसे कभी किसीने आग्रह थी

गिरीस्कने एल्वारगी कासकी गत छेड़ दी बोला, “एक खास 7

आप

कामके लिए आपक्ले तकलीफ ढेने जायरा हूँ। मेरी सासजीका अर्सिंताज |

आपने सुना ही होगा--अपना मकान वें आप लोगोंके हाथ बेच देता चित

हैं। आज सेरी माफत उन्होंने कहला भेजा है कि जल्दी ही इसका डा हल हो जाय | इ््ची संहंन सगर चला जाये सिरे

(

हि

|

नदी देखते हा शेखरकी छांताक सीतर तूफान उठ खड़ा हुआ था,

ज्से जरा सी अच्छा नहा लग रही था उससे आपग्रसर्न्ने

अैक हैं, सगर पिताजीकी अनुपस्थितिम अब सइया ही मार्लिक

उनसे कहता चाहिए

सुसकराते हुए कहा, “सो तो हम लोग भी जानते है) सम अच्छा हो 7

उ्स्‌

£ 2

३] चातते से हु, आपको मिरं

उनसे

हा

ल्‍क. अड़ रभ्शिनरकमनत

परिणीता पृण्र,

शेखरने उसी तरह जवाब दिया, “आप कहे, तो सी हो सकता है उस तरफके अभिभावक तो इस समय आप ही हैं ।”

गिरीद्धने कहा, “मेरे कहनेकी जल्रत हो तो में मी कह सकता हैँ, लेकिन अल घहनजी कह रही थी कि आप जरा ध्यान दें तो काम बडी आसानीसे हो सकता दे ।'

शेखर अब तक मोर तकियेके सहारे बेठा हुआ वात कर रहा था ख्रब सतर होकर बठ गया गेला, “कौन कह रही थी ?”

गिर्रीद्रने कहा, “बहनजी--ललिता बहनजी कह रही थी---!

शेखर मारे आश्रयके हतवुद्धि-सा हो गया। आगे गिरीन्द्र क्या क्या कहता गया, उसका एक शब्द भी शेखरके कानमें नहीं गया कुछ ढेर तक वह विह्नल इृष्टिसे गिरीनके चेहरेकी तरफ देखता रहा, फिर सहसा वोल उठा, “मुझे माफ़ कीजिएगा गिरीन बावू ,---ललिताके साथ क्या आपका व्याह नहीं हुआ १”

गिरीखने दोतो-तले जीभ दवाकर कहा, "जी नहीं,--उनके घरमे तो भाप सभीको जानते हँ--कारलीके साथ भेरा

“मगर ऐसी तो बात नहीं थी :”

गिरीन्द्रने ललिताके मुँहसे सब बातें सुन रक्खी थीं, उसने कद्दा, “नहीं, बात नहीं थी, यह ठीक है | गुरुचरण बाबू मरते समय मुझसे अलुरोव कर गये थे कि में अन्यत्र कही भी ब्याह नहीं करूँ मेने सी वचन दिय्रा था। उनकी रुत्युके बाद वहनजीने मुझे सब बातें झमकाकर कही --हालों कि ये सब बातें और किसीको मोलूम नहीं कि उनऊा व्याद पहले ही हो चुका हैं. और उनके पति जीवित मोजूड हैं इस बातपर शायद दूसरा कोई विश्वास भी करता सगर मेने उनकी किसी सी बातपर वश्चास नही किया इसके सिवा स्त्रियोक्रा तो एक बार छोड़कर टढुवारा व्याह हो ही नही सकता,--अरे यह क्या १”

शेखरकी दोनों: आँखें ऑउओसे भर आई थी, अब उनमेसे गिरीन्द्रके सामने हीं धारा वह निकली; परन्तु, उधर उसका कुछ खयाल ही था, उसे याद भी आजया कि पुरुपऊे सामने पुरुषफ़ी इस तरह कमजोरी प्रकट हो जाना अत्यन्त >ज्ञाकी बात है

गिरीन्द्र चुपचाप बैठा उसकी तरफ देखता रहा | उसके मनमे सन्देह तो था ही,--आज उसने ललिताके पतिक्रो पहिचान लिया ! शेखरने अखि पोछकर भारी गलेप्ते कहा; 'लिकिन, आप तो ललितासे स्नेह करते 2”

२६

ज्कॉ ६४ कि

आल परिणीता शिरीखके चर पर प्रछन्न वेदनाफी गहरी छाण-सी था पड़ी, सगर दूसरे

ही क्षण वह मन्द-मन्द सुमफराने लगा। _रते-आहिस्त कहने लगा, इस बातका जवाब देना अनावश्यक है | इसके सिवा, स्नेह चाहे फ्रितना ही गहरा क्यों हा जान वूमाझर कोई पराई व्वाहिता खीसे ब्याह नहीं कर सकता,-+-

जाने दीजि7, बडोके सम्बन्धम उस तरहकी चर्चा मे करना नहीं चाहता ।” सके वाद वह मुम्कराता #आ उठ खड्ा हुआ, और बोला, आज जाता हूँ, फिर किसी दित मुलाकात झलया

श्र

इसके बाद नमस्कार करके

वह चल दिया

गिरीन्तके प्रति शखर झुछसे ही विद्वेप रखता आया है और इधर तो उसका वह विद्वेप घोर घणामे परिणत हो गया था किन्तु आज उसके चले जाते ही शेखर उठकर जमीनसे

वार-बार सिर छुआकर इस अपरिचित त्राह्म युयकके लिए बार-बार नमस्कार करने लगा मनुष्य चपचाप कितना बडा स्वार्थत्याग कर सकता है, हँसते टसते अपने वचनोका क्रिस -क्ठिनताके साथ पालन कर सकता है --यह बात शेखर ने आज अपने जीवनमे पहले पहल देखी दोपहरके वाद भ्रुवनेश्वरी अपने कमरेमे फर्शपर वेठी छलिताकी मददते नये क्प्डोका ढेर सम्दाल सम्दहालऋर रख रही थीं. शेखर भीतर घुसकर माके

विस्तरण्र बैठ गया जाज वह ललिताको देंखके व्यस्त होकर, भागा नहीं माने उसे देखऊः कहा, 'क्या है रे?

)

शेखरने जवाब नही दिया, चप ब्रेठा कपड़ोकी थाक्र लगाना देखने लगा थोड़ी दे! बाद बोठा, “यह क्‍या हो रहा हैं सा

माने कड्ठा, नये कपड़ोमेंसे किसको क्‍या क्या देने हैँ, हिसाव लगाकर देख रही ह्ूँ--शायद और सी भगाने पड़ेंगे, बिटिया ? ?”

ललिताने गरदन हिलाकर समर्थन किया

शेखरने हँसते चेहरेसे कहा, “और अगर में व्याह करूँ मा

के भुवनेश्वरी हँस दी बोली, “सो तुम कर सकते हो, तुममें इन शुणोकी कसी नहीं ?

शेखर ट्सकर बोला, सो ही शायद होगा, मा

मा गम्भीर होकर कहने लगी, यह कैसी बात कह रहा है तू, ऐसी बुरी चात जबानपर मत ला |

शेखरने कहा, इतने दिनोसे तो जबानपर नहीं लाया था,--पर अब विना कहे महाप्रातक होगा , सा 7?

परिणीता १६ पवनेश्वरी समझ समनेके का रण शंफ़ित चेहरेसे उप्तकी तरफ देखने लगी शेखरने कहा, तुम अपने इस लड़केके वहुतसे कसर माफ करती आई हो, कसरकों भी माफ करना होगा मा, सचमुच ही में यह व्याह कर सकँगा।” पुत्रकी बात और चेहरेशा भाव देखकर भुवनेश्वरी सचमुच ही उद्विग्न हो उठी, पर उस भावक्नों दवाकर बोलीं, अच्छा, अच्छा, मत करना। अभी जा यहाँसे, मुंक परेशान मत कर शेखर,--मुमे बहुत काम करना है ![”

आखर और एक वार हँसनेका व्यथ प्रयास करके सूखे स्वरमें चोल उठा, « नहीं मा, सच्ची कहता हैँ तुमसे, यह व्याह नहीं हो सकेगा ।” «४ क्यो, यह क्या बच्चोका खेल है ८“ खेल नहीं हैं, इसीसे तो कहता हैं सा ।” भुवनेश्वरी अबकी बार अत्यन्त भयभीत हो उठी, और झस्सेसे बोलीं, « क्या हुआ है, मुझे समक्काकर वता, क्या बात दे ? यह सब ग्रड़बड़ीकी बाने मुझे अच्छी नहीं लगती ।” शेखरने मदु-कंठसे कहा, और किसी दिन सुनना मा, ओर किसी दिन बत्ताऊँगा ।” | “और किसी दिन बतायेगा !” उन्होने कपड़ोकी थाक एक तरफ हठाते हुए कहा, ' तो आज ही मुझे काशी भेज दे, ऐसी गृहस्थीमें में एक रात भी नहीं बिताना चाहती ॥” शेखर नीचेका सिर ऊकाये वैठा रहा भुवनेश्वरी ओर भी अस्थिर होकर कहने लगी, छलिता भी मेरे साथ जाना चाहती है, देख, इसके लिए अगर कोई बन्दोवस्त कर सकी--- अबकी बार शेखर सिर उठाकर हँस दिया, बोला, “तुम साथ छे जाओगी, फिर उसका वन्दोवस्त ओर किसके साथ करोगी मा ? तुम्हारी आज्ञारे बड़ी बात उसके लिए ओर क्या है 2” लड़केके चेंहरेपर हँसी देखकर मा कुछ मन ही मन आशान्वित हुईं, उलिताकी तरफ देखकर बोली, छ॒न॑ छी बेटी, इसकी बात सुन ली यह समझता है कि में चाहँ तो, तुम्हें जहों खुशी, ले जा सकती हैँ ।---इसकी मामीसे नहीं पूछना पढ़ेगा £ लक्षिताने कोई जवाब नहीं दिया | शेखरकी वातचीतके ढंगसे वह मन ही मन अत्यन्त सकुचित हुई जा रही थी

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४)।

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र्‌ पश्णिीता शखरने आखिर कह ही डाला, “उनसे कहना चाहो, तो कह दो, तुम्हारी इच्छा समर, तुस जो कहोगी, वहीं होगा, मा,--यह में भी समझता हैँ और जिसे छे जाना चाहती हो, वह भी जानती है यह तुम्हारी पतोह्ू है, सा !” थह कहनेके वाद ही शेखरने सिर झुका लिया भुवनेश्वरी मारे आश्चर्यके दंग रह गई माके सामने सन्‍्तानका यह कैसा परिहास | एकट्क उसकी तरफ देखकर माने कहां, "क्या कहा £ यह कीन

नई

दिया मा आज नहीं, चार सालसे सी ज्यादा हो गया, तुम सचम॒च, ही उसकी भा (सास) हो | मुझसे अब कहा नहीं जाता मा, उसीसे पूछी, वहीं बता- येगी ।? कहकर ज्यों ही उसने ललिताकी तरफ देखा, त्यों ही देखा कि ललिता गछेसें ऑचल डालकर माको प्रणाम करनेकी तैयारी ऋर रही है वह उठकर उसके पगलमे खड़ा हुआ, और दोनोंनें एक साथ माके चरणुमे सिर रखकर प्रणाम किया, इसके वाद शेखर चुपचाप धीरेसे बाहर चछा गया भुवनेश्वरीकी दोनो ऑखोसे आनन्दाश्षु करने लगे वे ललिताकी सचमुच ही बहुत ज़्यादा प्यार करती थी सदूक़् खोलकर अपने पबके सब गहने निकालकर उन्होने उसे पहनाते हुए धीरे घीरे एक एक करके सब बाते जान ली। सब सुन सुनाकर उन्होने कहा, “इसीसे शायद गिरीनका ब्याह कालीके साथ हुआ था ?” ललिताने कहा, “हों मा, इसीसे गिरीन बाबू जैसे आदमी डुनियामें और हैं या नहीं, सालूम नहीं। मैने उनले समम्काकर कहा, तो सुनते ही उन्होने विश्वास कर लिया कि सचमुच ही मेरा ब्याह हो चुका है। पति मुझे ऑअंगीकार करे या करें, यह उनकी इच्छा, पर वे हैं जरूर !” _. सेवनेश्वरीने ललिताके माथेपर हाथ रखते हुए कह, “जहूर है, बेटी [ में आशीर्वाद देती हूँ, जन्म-जन्म दीघेजीवी होकर रहे जरा ठहरना बेटी, अविनाशको खबर दे आऊँं कि ब्याहकी दुलहिन बदल गई है ।” इतना कहकर चे हँसती हुई बड़े लड़केके कमरेकी तरफ चली गईं।

[[एअमभलमलछ 9 से

खमापत्त ॥|